केंद्र सरकार की अनुमति मिलने के बाद जब से बिहार में नील गायों का
सफाया हैदराबाद से आए शूटरों किया, तब से लेकर अभी तक यह चर्चा लगातार बनी हुई है कि जैवविविधता के साथ इतनी
क्रूरताभरा मानवीय स्वभाव कितना उचित है। क्या किसी जंगली जानवर को मारे बिना हम
सह अस्तित्व के साथ जीवन निर्वाह नहीं कर सकते हैं? एक माह बीत जाने के बाद भी यह प्रश्न आज भी उतना ही महत्वपूर्ण और विचारणीय बना हुआ है, क्यों कि बिहार के बाद अन्य राज्य सरकारें भी कानूूून का सहारा लेकर पशुक्रूरता को प्रश्रय देने पर विचार कर रही हैं। बिहार की तरह ही कई राज्य ऐसे है जहां के इंसान किसी न किसी पशु नस्ल से अपने को परेशान पाते है। लेकिन इस सब के बीच यक्ष प्रश्न ये है कि इस मामले में मनुष्य के लिए क्या उपाय किए जाएं। क्यूं कि आज मनुष्य ने ही सबसे ज्यादा प्रकृति के साथ खिलबाड़ किया है। दिनों दिन इंसानी
नस्ल बढ़ती जा रही है, उसके बंध्याकरण के लिए जितने भी उपाए आज सुलभ हो गए हों लेकिन इसके बाद
भी भारत जैसे विकासशील देशों में यह कम ही कारगर सिद्ध हुए हैं, क्यों कि कई बार उचित शिक्षा
मिल जाने के बाद भी धार्मिक मान्यताएं आदमी की आबादी को बढ़ने का अवसर प्रदान करती
हैं।
क्या इंसान को ही यह हक प्रकृति ने दिया है कि वह
अपनी नस्ल के विकास और विस्तार के लिए जिसे चाहे उसे मार दे और जिसे जिंदा रखना
चाहे सिर्फ वही जीवित रहें? निश्चित ही मानव का प्रकृति के साथ यह व्यवहार उसके लिए ही भविष्य
का काल है, क्यों कि
प्रकृति, सह
अस्तित्व में विश्वास करती है और उसके लिए अकेला मानव नहीं, सभी जीव-जंतु महत्व रखते हैं।
नीलगाय, जंगली सूअर
या अन्य कोई जानवर क्यों न हो सभी का अपना इस प्रकृति के विकास में योगदान है, इसलिए सभी का जीवन उतना ही
महत्वपूर्ण है जितना कि मनुष्य का है। जब इंसान जानवरों के लिए जंगल ही नहीं
छोड़ेगा तो यह तय है कि वे शहर की ओर आएंगे, क्यों कि भूख किसी की भी हो, वह उसे बैठने नहीं देती है। जीवित रहने का संघर्ष जितना आदमी करता
है, उससे कई गुना ज्यादा पशु और पक्षी
करते हैं, उन्हें
इंसानों की तरह जीवित रहने के कृत्रिम उपकरण प्राप्त नहीं हैं।
केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी की तल्खी बाजिव है, वे सही फरमा रहीं हैं कि जंगली
जानवरों को मारना शर्म की बात है। इस घिनौने काम के लिए क्यों इजाजत दी गई है? कोई भी यह कहकर
नहीं बच सकता है कि जब किसानों को नुकसान होता है तब बहुत तकलीफ होती है। लेकिन
फिर भी हम सभी को यह समझना होगा कि पर्यावरण में सबका योगदान बराबर का है, संख्या बढ़ने और उसके संतुलन
के लिए पशु क्रूरता अपरिहार्य है तो क्या यह क्रूरता सरकारें इंसान के साथ कर सकती
हैं। इंसानों की दुनिया और इंसानी नियमों के बीच यह सोचना भी निश्चिततौर पर अपराध
की श्रेणी में आ सकता है। फिर ऐसा करना तो सीधा जुर्म है। यदि इंसान को मारना, उसे परेशान करना यहां तक कि
शारीरिक छोड़िए मानसिक शांति भंग करता तक अपराध है, तो क्यों नहीं वे इस बात को किसी अन्य पशू के जीवन से जोड़कर
अनुभूत कर सकते हैं। क्यों कि जीवन उसका भी मनुष्य की तरह मूल्यवान है।
वस्तुत: देश के किसी भी कोने में बहुसंख्या में किसी भी जानवर को
इंसानों द्वारा मारा जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। प्रकृति के विकास में सभी का समान
योगदान है, जितना मनुष्य का इस संसार में महत्व
है, उतना ही प्रत्येक
जीव का है। इसलिए कहना होगा कि समस्या की जटिलता को
देखते हुए समाधान की दिशा में गंभीर प्रयासों की आवश्यकता है। यह सही है कि जानवर इंसानों को
अपने तरीके से लाखों रुपयों का नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन आज यह अवश्य ही गंभीरतापूर्वक
सोचा जाना चाहिए कि उन्हें मारने के अलावा अन्य उपाए भी है जिनके द्वारा उन्हें रोका
जा सकता है। फिर यह भी सोचना होगा कि वो फसलों को क्यों खा रहे हैं। वजह बिल्कुल
साफ है कि जंगलों को इंसान अपने स्वार्थ के सशीभूत लगातार निगल रहा है। जब जानवरों
को रहने के लिए जंगल ही नहीं बचेंगे तो वे इंसानी दुनिया में ही आएंगे और अपने
अस्तिस्व को बनाए रखने के लिए वे सभी उन यत्नों को भी करेंगे जिनसे कि मनुष्य को
किसी न किसी रूप में नुकसान पहुंचता है।
एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पिछले साल वन्यजीवों व मनुष्य
संघर्ष में पांच सौ लोगों की मौत हुई है। ऐसे में संघर्ष टालने के लिए वैज्ञानिक
प्रबंधन की अनुमति उत्तराखंड, हिमाचल और बिहार प्रदेशों को दी गई है। किंतु भारत के संदर्भ में
यह भी केंद्र और राज्य सरकारों को ध्यान रखना होगा कि भारत दुनिया में प्रकृति के
साथ सामंजस्य व सहनशीलता के लिए जाना जाता है। वन्यजीवों को यदि मारने की अनुमति
दी जाएगी तो इसका प्रतिकूल असर जैव विविधता व प्रकृति के प्रति भारतीय नजरिये पर
भी पड़ेगा। वस्तुत: आज वन्यप्राणियों या अन्य जानवरों की समस्या से निवारण के
संदर्भ में कृषि वैज्ञानिक कई उपाए बंध्याकरण के अलावा भी बताते हैं । वे साफ कहते
हैं कि अनेक ऐसे विकल्प हैं, जिनसे वन्यप्राणियों को इंसानी बस्तियों में आने से रोका जा सकता
है।
इस संबंध में अन्य राज्य गुजरात से भी सहअस्तित्व के साथ रहने का
गुर सीख सकते हैं, जहां उत्तर गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ क्षेत्र में अरंडी, मूंगफली, बाजरा, गन्ना और कपास जैसी फसलों को जानवरों से ज्यादा नुकसान होता है। इस संबंध
में राज्य के कृषि विभाग ने तत्कालीन केंद्र सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय को
अवगत कराया था। लेकिन आज तक राज्य में एक भी वन्यप्राणी को इसलिए नहीं मारा गया, क्योंकि उसने इंसानी दुनिया
में कदम रखकर उसे नुकसान पहुंचाया था। यानि कि इच्छा शक्ति दृढ़ हो तो किसी जीव की हत्या करने के अलावा भी
पर्यावरण संरक्षण और जैव विविधता के पौषण के लिए रास्ते निकाले जा सकते हैं, जिसका कि श्रेष्ठ उदाहरण
गुजरात राज्य के रूप में आज हमारे सामने है।
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