मध्यप्रदेश की संस्कारधानी में आज प्रवास के दौरान
इतिहास के उस सच से सामना हुआ, जिसमें
हिन्दू मंदिरों के प्रति मुगलों की नफरत और क्रूरता को प्रत्यक्ष देखा । इसे देखकर
अनुभूति यही हुई कि भारतवर्ष में मुगलों ने धर्मांध होकर दो निशान, दो
पहचान के आधार पर देश का विभाजन भले ही करवा लिया हो लेकिन वह इस भारत भू से सनातन
संस्कृति को अपने लाख प्रयत्नों के बाद भी नहीं मिटा पाए। धन्य हैं वे हिन्दू स्वजन
जिन्होंने समय समय पर प्राणोत्सर्ग करना उचित समझा, जिन्होंने
पलायन उचित समझा किंतु अंत तक अपनी जड़ों को नहीं छोड़ा।
असल में मैं बात कर रहा हूँ, जबलपुर के भेड़ाघाट स्थित चौसठ योगिनी
मंदिर की । इस चौसठ योगिनी मंदिर का निर्माण 10 वीं सदी में हुआ था। जिसे त्रिपुरी
के कल्चुरि शासक युवराजदेव प्रथम ने अपने राज्य विस्तार के लिए योगिनियों का
आशीर्वाद लेने की मंशा से बनवाया था।
ये चौसठ योगनियां बहुरूप, तारा,
नर्मदा,
यमुना,
शांति,
वारुणी
क्षेमंकरी, ऐन्द्री, वाराही, रणवीरा,
वानर-मुखी,
वैष्णवी,
कालरात्रि,
वैद्यरूपा,
चर्चिका,
बेतली,
छिन्नमस्तिका,
वृषवाहन,
ज्वालाकामिनी,
घटवार,
कराकाली,
सरस्वती,
बिरूपा,
कौवेरी, भलुका, नारसिंही,
बिरजा, विकतांना,
महालक्ष्मी,
कौमारी,
महामाया,
रति,
करकरी,
सर्पश्या,
यक्षिणी,
विनायकी,
विंध्यवासिनी,
वीर
कुमारी, माहेश्वरी, अम्बिका, कामिनी, घटाबरी,
स्तुती,
काली,
उमा,
नारायणी,
समुद्र,
ब्रह्मिनी,
ज्वाला
मुखी, आग्नेयी, अदिति, चन्द्रकान्ति, वायुवेगा,
चामुण्डा,
मूरति,
गंगा, धूमावती, गांधार, सर्व
मंगला, अजिता, सूर्यपुत्री वायु वीणा, अघोर और भद्रकाली
हैं।
किंतु इस मंदिर का दुखद पक्ष यह है कि इन
समस्त चौसठ योगिनीयों में से एक भी मूर्ति ऐसी शेष नहीं जोकि सही सलामत छोड़ी गई हो।
हिन्दू आस्था के साथ मुगल विद्वेष की यह सभी मूर्तियां जीता जागता प्रमाण हैं।
इतिहास हमें बताता है कि आतातायी औरंगजेब
के आदेश पर उसकी मुगल सेना ने इन सभी मूर्तियों को खण्डित किया था। अक्सर ऐसे विषयों
पर धर्मनिरपेक्षता के चलते कई पढ़े लिखे लोग, पत्रकार तक जिन्हें सत्य का साक्षी
और कलम का सिपाही कहा जाता है,
बोलने एवं लिखने में संकोच करते हैं, किंतु यहां उनसे इतनाभर कहना है कि क्या सच छिपाने से इतिहास बदल
जाएगा । जब मैं इस स्थान को देख रहा था तो विचार बार बार यही आ रहा था कि इतने ऊँचें
स्थान पर तत्कालीन समय में इस मंदिर निर्माण में मूर्तिकारों का कितना श्रम एवं समय
लगा होगा। मंदिर नर्मदा और बाणगंगा के संगम पर स्थित 500 फीट ऊंची पहाड़ी पर स्थित
है।
आज त्रिभुजी कोण संरचना पर आधारित इस
मंदिर में योगिनियों की खंडित मूर्तियां बार बार यही पुकार रही हैं कि यदि कोई प्राचीन
भग्नावशेषों को सुधारने की आधुनिकतम वैज्ञानिक प्रक्रिया हो तो आओ यहां हम पर अपनाओ।
हमें पुन: अपने पुराने अस्तित्व में पुनर्जीवित होने दो ।
कोई तो सुध लो हमारी। मध्यप्रदेश पुरातत्व विभाग ने अब तक जो किया वह अच्छा,
लेकिन जो वो नहीं कर पा रहा, उस बारे में कोई सोचे तो कितना
अच्छा हो…….
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-08-2017) को "बच्चे होते स्वयं खिलौने" (चर्चा अंक 2703) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
इस्लाम के अनुयायी किसी दूसरे धर्म की इज़्ज़त करना नहीं जानते -दूसरों को अपमानित कर इन्हें तुष्टि मिलती है ,सचमुच देखा जाय तो इस्लाम में मानवीयता की भावना नहीं है.
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