रविवार, 2 अक्तूबर 2016

सार्क सम्‍मेलन का रद्द होना

पाकिस्तान में नवंबर में प्रस्तावित सार्क (दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन) शिखर सम्मेलन आखिरकार स्थगित हो गया। उड़ी हमले के बाद पाकिस्तान को अलग-थलग करने के अभियान में यह भारत की पहली बड़ी सफलता मानी जा सकती है। भारत के मना करते ही इसके तीन अन्‍य सदस्‍य देशों अफगानिस्तानबांग्लादेश और भूटान ने भी इस 19वें सार्क शिखर सम्मेलन में भाग नहीं लेने का अपना फैसला सार्वजनिक कर दिया। इन देशों के भारत के पक्ष में आने से यह बात साफ हो गई कि आतंकवाद को लेकर पाकिस्‍तान कुछ भी कहेलेकिन सभी जानते हैं कि भारत के अंदर सबसे ज्‍यादा आतंकवाद को यदि कोई पोषि‍त करता है तो वह पाकिस्‍तान है इसलिए आतंक के विरोध में अकेला भारत क्‍यों खड़ा रहेसभी को इसका विरोध करना चाहिए।

आतंकवाद पर पाक को लेकर दूसरे देशों की प्रतिक्रिया क्‍या हैवह इससे भी समझी जा सकती है कि अफगानिस्तान ने कहाउस पर'थोपे गए आतंकवाद" के कारण राष्ट्रपति मोहम्मद अशरफ गनी सेना के सर्वोच्च कमांडर की भूमिका निभाने में व्यस्त रहेंगेइसलिए वे शिखर सम्मेलन में नहीं जाएंगे। बांग्लादेश ने कहा कि उसके 'आंतरिक मामलों में एक देश विशेष के बढ़ते दखल ने ऐसा माहौल बना दिया है कि स्थितियां इस्लामाबाद में 19वें सार्क शिखर सम्मेलन के आयोजन के अनुकूल नहीं रह गई हैं।" भूटान ने कहा कि इस क्षेत्र में आतंकवाद बढ़ने के कारण ऐसा वातावरण नहीं रह गया है कि पाकिस्तान में सार्क शिखर बैठक हो। इसी प्रकार श्रीलंका को भी देखा जा सकता हैजिसने की सीधेतौर पर तो पाकिस्‍तान में होने जा रहे इस सम्‍मेलन का विरोध नहीं किया थाकिंतु यह कहकर अपनी मंशा जरूर जाहिर कर दी थी कि भारत की अनुपस्थिति में शिखर सम्मेलन का आयोजन संभव नहीं होगा। वैसे भी सार्क बैठक का भारत की उपस्थिति के बिना कोई मतलब नहीं रह जाता है।

आज जिस तरह से अंतर्राष्‍ट्रीय मंच पर पाकिस्‍तान और सार्क शिखर बैठक को लेकर संदेश गया हैउससे यह बात भी स्‍पष्‍ट हो गई है कि वर्तमान दौर में पाकिस्तान की हकीकत न केवल आतंकवाद को प्रश्रय देने के मामले में सार्वजनिक हो चुकी हैबल्कि दक्षिण एशियाई क्षेत्र में वह अकेला पड़ चुका है। भारत के नागरिकों के कलेजे को भी कुछ ठंडक महसूस हुई है कि चलोपाकिस्‍तान पर दवाब बनाने का सिलसिला तो हमारी सरकार की ओर से शुरू हुआ। सोशल मीडिया से लेकर सभी जगह देश सरकार के पक्ष में प्रतिक्रियाएं आना आरंभ हो गई है। देश के लोगों को लगता है कि सरकार ने यह निर्णय लेकर पाक प्रायोजित आतंकियों के उड़ी हमले का यह सही उत्‍तर दिया है।

सरकार की ओर से देखें तो लगता है कि यह पाकिस्‍तान को घेरने की भारत शुरूआत कर रहा हैइसके बाद भारत आगे एक के बाद एक ऐसे कई ठोस कदम उठा सकता है। पाकिस्‍तान ने सपने भी नहीं सोचा होगा कि भारत उड़ी हमले का इतना आक्रामक जवाब देगा। वह उसकी चौतरफा घेराबंदी करेगा। दूसरी ओर 15-16 अक्टूबर गोवा में होने वाले बिमस्टेक (बे आफ बंगाल इनिसिएटिव फार मल्टी-सेक्टरल टेक्निकल एंड इकोनोमिक कोआपरेशन) सम्मेलन में अधिकांश सार्क देश हिस्सा ले रहे हैंजिसमें कि पाकिस्तान नहीं है। बिम्सटेक के सात सदस्य- भारतबांग्लादेशश्रीलंकाथाईलैंडम्यांमाभूटान और नेपाल विश्व की कुल जनसंख्या में 20 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखते हैं। यह जनसंख्या लगभग डेढ़ अरब है और इन सदस्य देशों का सकल घरेलू उत्पाद 2,500 अरब से अधिक है।सम्‍मेलन में सार्क देश आपस में क्षेत्रीय सहयोग को मज़बूत करने का अपना संकल्‍प दोहराएंगे साथ में कई मसलों पर चर्चा होने के बाद स्‍थायी सहमती भी बनेगी। पाकिस्‍तान बिमस्‍टेक का सदस्‍य नहीं हैइसलिये इसका सबसे अधिक लाभ यहां सार्क देशों के आपस में मिलने पर भारत को होगा।

हाल ही में 56 साल पुरानी सिंधु जल संधि की समीक्षा भी हुई हैइससे भी पाकिस्‍तान डरा हुआ हैउसे लगता है कि कहीं भारत पानी न रोक देयदि ऐसा हो गया तो आधे से ज्‍यादा पाकिस्‍तान में सूखे के हालात पैदा हो जाएंगे। इसके साथ ही भारत ने पाकिस्तान को एकतरफा दिए गए सबसे पसंदीदा देश (एमएफएन) के दर्जे की समीक्षा करने का फैसला लिया है। यह दर्जा विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियमों के अनुरूप है। किंतु इससे जुड़ा एक सत्‍य यह भी है कि भारत ने काफी समय पहले पड़ोसी मुल्‍क होने के नाते अपना ये दायित्व निभायाजबकि पाकिस्तान ने आज तक भारतीय उत्पादों को अपने देश में इसका लाभ नहीं दिया। इससे भी पाकिस्‍तान की भारत के प्रति मंशा जाहिर होती है। हालांकि द्विपक्षीय व्यापार में मुनाफे की स्थिति में भारत हैफिर भी पाकिस्तान पर शिकंजा कसने के लिए जरूरी है कि भारत उससे एमएफएन का दर्जा छीन ले।

कुल मिलाकर कहना होगा कि भारत सरकार का यह कदम स्‍वागत योग्‍य हैक्‍योंकि कार्य और समझौते अपनी जगह हैलेकिन देश की संप्रभुता अपनी जगह। पाकिस्‍तान जैसा मुल्‍क जो भारत से ही पैदा हुआ और आज भारत को ही आंख दिखाए तो बेहतर है ऐसे देश से जितनी अधिक दूरी बनाई जाए उतना अच्‍छा है। जब तक पाकिस्‍तान अपनी सोच में परिवर्तन नहीं करता और भारत के प्रति अपना रवैया नहीं बदलताभारत को यही चाहिए कि वह इसी प्रकार कूटनीतिक स्‍तर पर और जरूरत पड़ने पर जवाबी कार्रवाही करते हुए उसे अपना ठोस और स्‍थायी जवाब देता रहे।
: डॉ. मयंक चतुर्वेदी

उड़ी आतंकी हमले के बाद के नए खुलासे

ड़ी में आतंकवादियों ने आकर जिस तरह भारतीय सेना मुख्‍यालय पर हमला किया और हमारे 18 जवानों को मौत के घाट उतार दिया उससे यह बात तो साफ हो ही गई है कि भारत के अंदर बैठे देशद्रोहियों की कोई कमी नहीं, जो पाकिस्‍तान प्रायोजित आतंकवाद को लगातार प्रत्‍यक्ष-अप्रत्‍यक्ष सहयोग दे रहे हैं। पाकिस्‍तान लगातार सीजफायर का उल्‍लंघन कर रहा है। उसकी कोशिश यही है कि वह उड़ी और नौगाम सेक्‍टर से और आतंकवादियों के जत्थे किसी तरह भारत की सीमा में घुसाने में कामयाब हो जाए ।

वास्‍तव में नियंत्रण रेखा के पहाड़ों पर बर्फ गिरने के पहले पाकिस्‍तान आतंकवादियों को भारतीय सीमा में घुसाने के लिए कितना उतावला हैवह इस बात से भी समझा जा सकता है कि जिस स्‍थान से वह पहले आतंकवादियों को अंदर भेजकर हमला कराने के कामयाब रहाउसके बाद उसी स्‍थान से फिर उसने आतंकवादियों के एक बड़े जत्‍थे को धकेलने का प्रयास किया था। यह जानते हुए कि भारतीय सीमा सुरक्षा बल के जवान मुस्‍तैद होंगे। इतना ही नहीं पाकिस्‍तानी सेना आतंकवादियों को कवर फायरिंग का सपोर्ट भी मुहैया करा रही हैजिससे कि किसी तरह आतंकी भारत में घुसने में कामयाब हो जाएं। इससे सीधेतौर पर पाकिस्‍तान की आतंकवाद को प्रश्रय देने की नापाक मंशा तो जाहिर होती ही हैसाथ में यह भी पता चला है कि भारत को बाहर से उतना खतरा नहींजितना कि उसे  घर के अंदर छिपे उन तमाम देशद्रोहियों से हैजो खाते तो भारत की है लेकिन गुणगान से लेकर चाकरी उन मुल्‍कों की करते हैं जो हिन्‍दुस्‍तान को सदैव अशांत देखने की इच्‍छा रखते हैं।  

वस्‍तुत: आज उड़ी हमले के बाद जो सबसे बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है वह यही है कि बिना स्‍थानीय लोगों की मदद के इतना बड़ा आतंकी हमला सफल कैसे सफल हो सकता है इस हमले के बाद जो बातें निकलकर सामने आ रही हैंउनमें से एक यह बात भी है कि उड़ी हमला होने से पूर्व पिछले 4-5 दिनों से स्‍थानीय लोगों द्वारा 8 से 10 लोगों को फौजी वर्दी में भारी असला,बारूद लिए घूमते देखा गया था। इसमें सबसे खास ओर गौर करने वाली बात यह भी है कि हथियारों से लैस इन आतंकवादियों के साथ स्‍थानीय लोग भी दिखाई दिए थे। यहीं से स्‍थानीय लोगों के इस आतंकी हमले में शामिल होने का शक शुरू होता है।

दूसरी बात यह भी है कि पाकिस्‍तान से आए आतंकवादियों ने सेना के मुख्‍यालय पर उसी समय धावा बोला जिस वक्‍त चेंज ऑफ कमांड हो रहा थायानि की आतंकवादियों को पहले से सेना की आंतरिक गतिविधियों के बारे में जानकारी थीस्‍थानीय लोगों की आतंकवादियों को सहयोग देने की जानकारी तब ओर स्‍पष्‍ट हो गई जब यहां के तीन चरवाहोंजिन्‍हें स्‍थानीय भाषा में बक्‍करवाल भी बोला जाता है से सेना ने कड़ी पूछताछ की। इस पूछताछ के बाद उन्‍होंने जो बताया उससे जब मारे गए आतंकियों के हुलिए से इनके बताए हुलिए को मैच किया गया तो पता चला कि दो आतंकवादी ठीक वैसे ही कठ-काठी और हाव-भाव वाले थे जैसा कि चरवाहों ने उनके बारे में बताया था।

इन खुलासों के बाद जो अन्‍य जानकारियों निकलकर आई हैंउनमें हैइन फिदायीनों के पास से तमाम नक्‍शों का बरामद होना,जोकि इस आर्मी मुख्‍यालय की एक-एक आंतरिक गतिविधियों को केंद्र में रखकर बनाए गए थे। अब भला यह कैसे संभव है कि आतंकियों को पहले से सभी कुछ पता हो कि कहां से हमला करना है और कहां से हम भारतीय सेना की कई टुकड़ि‍यों को चकमा देकर भागने में कामयाब हो सकते हैं आतंकियों के पास से बरामद यह सभी नक्‍शों में लगे लाल निशान यही बता रहे हैं कि स्‍थानीय लोगों की गतिविधि जो इस सैन्‍य मुख्‍यालय के पासरोजमर्रा के जीवनक्रम में आए दिन होती थीसिर्फ उन्‍हीं लोगों को इस आर्मी मुख्‍यालय के बारे में सही जनकारी हो सकती है। इस बात को गहराई से इसलिए भी कहा जा सकता है क्‍यों कि उनके अलावा किसी बाहरी को यह किसी भी सूरत में नहीं पता हो सकता था कि आखिर यहां की सभी दिशाएं किस तरफ किस ओर के जाती हैं।

वस्‍तुत: सेना कैंपों या मुख्‍यालय में अभी तक हुए जितने भी हमले हैंयदि उन पर भी गंभीरता से गौर करलें तो आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि इतनी पुख्‍ता जानकारी के नक्‍शे कभी बरामद हुए हों। दूसरी ओर शुरूआती जांच से यह भी पता चला है कि पाकिस्‍तान की ओर से  आतंकवादी भारत की सीमा में कम से कम एक दिन और इससे भी कुछ दिन पहले ही घुसने में कामयाब गए थे। साथ ही इन आतंकियों के पास से जो ग्रेनेडसंचार तंत्रखाने के पैकेट और दवाईयां बरामद हुई हैंउन पर लगी मोहरें साफ बता रही हैं कि यह सभी कुछ पाकिस्‍तान में तैयार किए गए हैं। आतंकवादियों के पास से दो डेमेज रेडियो सेट मिले हैं। यह बरामद किए गए सेटेलाइट फोन जापान हैं, जिन्‍हें चलाने के लिए काफी प्रशिक्षित होना जरूरी है। इन सभी से साफ पता चलता है कि उड़ी हमले में सीधेतौर पर पाकिस्तान की सेना का हाथ है। उड़ी हमले के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित को तलब किया था ।

आज वास्‍तव में देखाजाए तो हर बार की तरह जिस बात का प्रत्‍येक भारतवासी को डर सता रहा हैवह यही है‍ कि कहीं पाकिस्‍तानी उच्‍चायुक्‍त से की गई भारत की नाराजगीभरी बातचीत सिर्फ कागजों तक सिमटकर न रह जाएक्‍यों कि जब-जब पहले भी पाकिस्‍तान ने इस प्रकार की कोई नापाक हरकत की हैज्‍यादातर मामलों में भारत सिर्फ अपनी नाराजगी जताने और पड़ौसी मुल्‍क पाकिस्‍तान के साथ दुनिया के तमाम देशों को आतंकवाद के सबूत सौंपने की कागजी खानापूर्ति करता ही दिखाई दिया है । बार-बार पाकिस्‍तान हमारा नुकसान भी कर जाता है और हम उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाते हैं।

– डॉ. मयंक चतुर्वेदी

डीएवीपी की विज्ञापन नीति ?

विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) की विज्ञापन नीति में पहले भारत सरकार की ओर से देश की तीन बड़ी संवाद समितियों को वरीयता दी गई थीसाथ में सभी समाचार पत्र-पत्रिकाओं से कहा गया था कि इन तीन में से किसी एक की सेवाएं लेना अनिवार्य है। जैसे ही यह निर्देश डीएवीपी की वेबसाइट पर आएदेशभर में जैसे तमाम अखबारों ने विरोध करना शुरू कर दिया। यह विरोध बहुत हद तक इस बात के लिए भी था कि क्‍यों समाचार पत्रों के लिए सरकार की इस विज्ञापन एजेंसी ने अंक आधारित नियम निर्धारित किए हैं। इन नियमों के अनुसार प्रसार संख्‍या के लिए एबीसी या आरएनआई प्रमाण पत्र होने पर 25 अंकसमाचार एजेंसी की सेवा पर 15 अंकभविष्‍य निधि कार्यालय में सभी कर्मचारियों का पंजीयन होने पर 20 अंकप्रेस कॉन्‍सिल की वार्ष‍िक सदस्‍यता लेने के बाद 10 अंकस्‍वयं की प्रेस होने पर 10 अंक और समाचार पत्रों के पृष्‍ठों की संख्‍या के आधार पर अधिकतम 20 से लेकर निम्‍नतम 12 अंक तक दिए जाएंगे।

इस नई विज्ञापन नीति के आने के बाद से जैसे ज्‍यादातर अखबारों को जो अब तक स्‍वयं नियमों की अनदेखी करते आ रहे थे,लगा कि सरकार ने उन पर सेंसरशिप लागू कर दी है। इन छोटे-मध्यम श्रेणी के अधिकतम अखबारों के साथ कुछ एजेंसियों को भी पेट में दर्द हुआ, जिन्‍हें अपने लिए इस नीति में लाभ नहीं दिख रहा था। बाकायदा विरोध-प्रदर्शन का दौर शुरू हो गया । एक क्षेत्रीय समाचार एजेंसी ने तो इसमें सभी हदें पार कर दीं । वह अपने खर्चे पर छोटे-मंझोले अखबार मालिकों को दिल्‍ली ले गई और अपनी ओर से कई दिनों तक विरोध प्रदर्शन करवाया।

यहां प्रश्‍न यह है कि सरकार को इस नीति को लाने की जरूरत क्‍यों आन पड़ी क्‍या सरकार को यह नहीं पता था कि अखबारों से उसकी सीधेतौर पर ठन जाएगी । यह तय था कि जिस मोदी सरकार के बारे में कल तक ये अखबार गुणगान करने में पीछे नहीं थेदेश में इस नई विज्ञापन नीति के लागू होते ही समाचार पत्र सीधे सरकार के विरोध में खड़े हो सकते हैं। वास्‍तव में यदि इन सभी का उत्‍तर कुछ  होगा तो वह हां में ही होगा। क्‍योंकि सरकारसरकार होती हैउसके संसाधन अपार हैं और उसे ज्ञान देने वालों की भी कोई कमी नहीं होतीइसके बाद यह जानकर कि आने वाले दिनों में नई विज्ञापन नीति के लागू होते ही सबसे पहले सरकार का विरोध होगायह नीति डीएवीपी ने लागू की।

देखा जाए तो जिन लोगों को ये नहीं समझ आ रहा है कि क्‍यों सरकार ने आ बैल मुझे मार वाली कहावत को अपनी इस नीति के कारण चरितार्थ किया, तो उन्‍हें ये समझ लेना चाहिए कि सरकार इस रास्‍ते पर चलकर देश के उन तमाम कर्मचारियों का भला करना चाहती थीजो किसी न किसी अखबार के दफ्तर में वर्षों से काम तो कर रहे हैं लेकिन उनका पीएफ नहीं कटता। जीवन के उत्‍तरार्ध में जीवन यापन के लिए कहीं कोई भविष्‍य नि‍धि सुरक्षित नहीं है। वस्‍तुत: सरकार इस नियम के माध्‍यम से देश के ऐसे कई लाख कर्मचारियों का भविष्‍य सुरक्षित करना चाह रही थी। इसी प्रकार समाचार एजेंसियों की अनिवार्यता को लेकर कहा जा सकता है। 

अक्‍सर देखा गया है कि वेब मीडिया के आ जाने के बाद से कई अखबार अपने समाचार पत्र में खबरों की पूर्ति इनसे सीधे कर लेते हैं। इन खबरों के निर्माण में जो श्रमसमय और धन उस संस्‍था का लगा हैउसका पारिश्रमिक चुकाए बगैर समाचारों का उपयोग जैसे इन दिनों रिवाज सा बन गया था। एक तरफ दूसरे के कंटेंट को बिना उसकी अनुमति के उपयोग करना अपराध माना जाता है तो दूसरी ओर मीडिया जगत में ऐसा होना आम बात हो गई थी। वास्‍तव में एजेंसी के माध्‍यम से सरकार की कोशिश यही थी कि सभी अखबार नियमानुसार समाचार प्राप्‍त करें और उन खबरों के एवज में कुछ न कुछ भुगतान करें, जैसा कि दुनिया के तमाम देशों में होता है । लेकिन इसका देशभर के कई अखबारों ने विरोध किया । 

आश्‍चर्य की बात उसमें यह है कि यह विरोध एक समाचार एजेंसी पर आकर टिक गया था। यहां कोई भी पीटीआई या यूएनआई का विरोध नहीं कर रहा था, विरोध करने वालों के पेट में दर्द था तो वह हिन्‍दुस्‍थान समाचार को लेकर था। इस एजेंसी को लेकर यही बातें आम थी कि यह एक विशेष विचारधारा की एजेंसी है। यहां समाचार नहीं विचारधारा मिलेगी और इन्‍हीं के लोगों की सरकार है इसलिए उन्‍होंने इस एजेंसी को डीएवीपी में मान्‍यता दी है। यानि की पैसा भी देना पड़ेगा और समाचार भी नहीं मिलेंगेलेकिन क्‍या यह पूरा सत्‍य था जो हिन्‍दुस्‍थान समाचार की कार्यप्रणाली से पहले से परिचित रहे हैं वे जानते हैं कि इस संवाद समिति का सत्‍य क्‍या है। एक क्षेत्रीय न्‍यूज एजेंसी से जुड़े समाचार पत्र एवं अन्‍य लोग जैसा कि कई लोगों से चर्चा के दौरान पता चला कि नाम लेकर हिन्‍दुस्‍थान समाचार का खुला विरोध कर रहे थे। कम से कम उन्‍हें पहले इसके इतिहास की जानकारी कर लेनी चाहिए थी । हिन्‍दुस्‍थान समाचार 1948 से देश में कार्यरत है। पीटीआई को जब देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल ने विधिवत शुरू किया थाउसके पहले ही यह संवाद समिति मुंबई से अपना कार्य अंग्रेजी के साथ भारतीय भाषाओं में आरंभ कर चुकी थी। 

यह आज भी देश में सबसे ज्‍यादा भारतीय भाषाओं में समाचार देने वाली बहुभाषी न्‍यूज एजेंसी है। इस एजेंसी के खाते में कई उपलब्‍धियां दर्ज हैं। यह हिन्‍दी और भारतीय भाषाओं में सबसे पहले दूरमुद्रक टेलीप्रिंटर निर्माण कराने वाली संवाद समिति है। चीन का आक्रमण हो या अन्‍य विदेशी घुसपैठ से लेकर देश की ग्रामीण जन से जुड़ी बातें यदि किसी एजेंसी ने सबसे ज्‍यादा और पहले देश के आमजन से जुड़ी सूचनाएं सार्वजनिक की हैं तो यही वह एजेंसी है। आज भी इस संवाद समिति का अपना संवाददाताओं का एक अखिल भारतीय और व्‍यापक नेटवर्क है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी के समय तक हिंदुस्‍थान समाचार को केंद्र व राज्‍य सरकारों द्वारा लगातार न्‍यूज एजेंसी के रूप मान्‍यता दी जाती रही है। यहां तक कि कई कांग्रेसी एवं अन्‍य विचारधाराओं वाले नेता समय-समय पर इससे जुड़े रहे। मध्‍यप्रदेश कांग्रेस के अध्‍यक्ष अरुण यादव के पिता स्‍व. सुभाष यादव भी कभी हिंदुस्‍थान समाचार बहुभाषी सहकारी संवाद समिति  के अध्‍यक्ष रह चुके हैं। संवाददाताओं के स्‍तर पर भी देखें तो किसी पत्रकार की अपनी विचारधारा कुछ भी रही होयदि उसमें पत्रकारिता के गुण हैं और वह मीडिया के स्‍वधर्म को जानता हैतो बिना यह जाने कि वह किस विचारधारा से संबद्ध हैहिंदुस्‍थान समाचार ने उसे अपने यहां बतौर संवाददाता से लेकर केंद्र प्रमुख एवं अन्‍य महत्‍वपूर्ण जिम्‍मेदारियां सौंपने में संकोच या भेदभाव नहीं किया।

डीएवीपी ने हिन्‍दुस्‍थान समाचार को केवल इसलिए ही अपनी सूची में नहीं डाल लिया होगा कि इसकी विशेष विचारधारा से नजदीकियां होने की चर्चाएं आम हैं। सभी को यह समझना ही चाहिए कि समाचार में कैसा विचार क्‍यों कि एक समाचार तो समाचार ही होता हैऔर देशदुनिया के समाचार देना प्रत्‍येक संवाद समिति का रोजमर्रा का कार्य है।  वास्‍तव में विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय ने पीटीआईयूएनआई के साथ हिन्‍दुस्‍थान समाचार को इसलिए अपनी सूची में लिया क्‍योंकि यह एजेंसी प्रिंट के लिए दी जाने वाली समाचार सामग्री में सबसे ज्‍यादा क्षेत्रीय खबरों को नियमित प्रसारित करती है और वह भी कई भाषाओं में । यह भी सरकार के समय-समय पर निर्धारित किए गए नियमों का पालन करती हैमजीठिया वेतन आयोग की अनुशंसाओं के अनुसार अपने कर्मचारियों को वेतन देती है और नियमित कर्मचारियों का पीएफ काटने से लेकर अन्‍य निर्धारित मापदंडों को पूरा करती है। ऐसे में क्‍या उन तमाम समाचार एजेंसियों को अपने गिरेबान में नहीं झांकना चाहिए जो अपने कर्मचारियों के हित में न तो किसी वेज बोर्ड की अनुशंसाओं को लागू करती हैं और न ही सभी को कर्मचारी भविष्‍य नि‍धि का लाभ देती हैं।

देखा जाए तो विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) को आज अखबारों की तरह ही यह तय कर देना चाहिए कि न्‍यूज एजेंसी के लिए हमारे यहां सूची में पंजीकृत होने के लिए क्‍या नियम होने चाहिएजिनकी कि पूर्ति की जाना अपरिहार्य रहे। डीएवीपी ने अभी हाल ही में इस मामले को लेकर ‘ मुद्रित माध्‍यमों के लिए भारत शासन की विज्ञापन नीति-2016 में संशोधनकिया है, उसमें उसने लिखा है कि समाचार पत्र पीआईबी एवं प्रेस कॉन्‍सिल ऑफ इंडिया से मान्‍यता प्राप्‍त किसी भी न्‍यूज एजेंसी के ग्राहक बन सकते हैं। यहां सीधा प्रश्‍न विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) से आज क्‍यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि आपने यह जो नया निर्देश निकाला हैविरोध इसका नहीं, लेकिन क्‍या उन्‍होंने उन तमाम संवाद एजेंसियों का निरीक्षण करा लिया है जो अब इस निर्देश के नाम पर अखबारों को अपनी सदस्‍यता देंगे। क्‍या यह तमाम एजेंसियां समय-समय पर पत्रकारों के हित में बनाए गए भारत सरकार नियमों और आयोगों के निर्देशों का पालन कर रही हैं। इन्‍होंने अपने यहां क्‍या मजीठिया बेज बोर्ड के नियमों का अक्षरक्ष: पालन किया है। यदि पीटीआई और यूएनआई के साथ हिन्‍दुस्‍थान समाचार केंद्र सरकार के सभी नियमों का पालन करती है तो क्‍यों नहीं अन्‍य संवाद समितियों को भी उन नियमों को स्‍वीकार करना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं कर रहीं तो उन्‍हें किस आधार पर विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी)  अपनी सूची में शामिल करने के लिए तैयार हो गया  

- डॉ. मयंक चतुर्वेदी

हिंदी दुनिया की जरूरत है

भाषा के बारे में कहा जाता है कि वह स्व प्रवाहित होती हैआप चाहकर भी उसे रोक नहीं सकते । विश्व में कोई नहीं जिसका कार्य भाषा बिना चलता हो । मनुष्य की बात एक बार को छोड़ भी दीजिए तो पशुपक्षीकीट और पतंग भी अपने स्तर पर किसी न किसी भाषा का प्रयोग करते हैंफिर ये भाषा सांकेतिकविभि‍न्न किस्म की आवाजों के जरिए या अन्य प्रकार की भलेही हो सकती है । कुल मिलाकर भाषा प्रत्येक जीव के लिए अभि‍व्यक्ति का माध्यम है।

मनुष्यों के स्तर पर इसे देखे तो आज दुनिया में इंसान कई प्रकार की भाषाएं इस्तेमाल कर रहा है। इतिहास में भाषायी विकास बताता हैकि विश्व में जिस समय जो शक्ति प्रभावशील रहीउसकी बोलनेवाली भाषा का विस्तार तेजी से हुआयह प्रभाव दो तरह से देखा गया है एकअर्थ शक्ति के रूप में और दूसरा पराक्रम युक्त श्रमशक्ति के रूप में ।  कहने को दुनियाभर में अंग्रेज मुट्ठीभर रहे,लेकिन उनके पराक्रम के कारण उनके साम्राज्य का विकास हुआ ही साथ में अंग्रेजी भी जहां जहां वे गए वहां सशक्त भाषा के रूप में उभरी। इसी प्रकार इस्लाम के फैलने के साथ अरबी लिपि का विकास हुआ। फ्रेंच का विकास भी हुआ किंतु यह विकास एक विशेषवर्ग तक सीमित रहा जो अपने को श्रेष्ठ मानता है। लेकिन हिंदी अपना वह मुकाम नहीं हासिल कर सकी जो जनसंख्यात्मक स्तर पर बहुत बड़ी संख्या में बोले जाने के कारण इसे मिलना चाहिए था। किंतु अब ऐसा नहीं है। आज दुनिया में भाषायी नजरिए को लेकर सभी समीकरण बदल चुके हैं।  वैश्विक फलक पर यदि अंग्रेजी वर्तमान की जरूरत बनती जा रही है तो कई देश आज हिन्दी सीखने के लिए अपने यहां विशेष कक्षाएं लगा रहे हैं।

वस्तुत: यह परिवर्तन अचानक नहीं आ गया है। देखाजाए तो यह आज बाजार की देन है। वर्तमान समय अर्थ प्रधान है यहां आज हर चीज बिक रही है। हर कोई विश्व में छा जाना चाहता हैइस छा जाने के चक्कर में कई शक्तिशाली देश और अन्य देश भी परस्पर एक दूसरे की भाषा सीख रहे हैंइन्हें जहां बड़ा बाजार दिखाई दे रहा हैवहीं लाभ दिख रहा है। निज भाषा उन्नति को मूल का सिद्धांत अब पुराने दिनों की बात हो गई है। यानि कि वैश्विक परिदृश्य में परिस्थितियाँ बदल रही हैं। उपभोगताओं का युग हैबाजार में जिस भाषा का जितना अधिक उपभोक्ता होगाबाजार उसी भाषा में बात करता हुआ दिखाई देगा।

यहां हम दो भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करते हैंसंस्कृत विश्व की सबसे पुरानी जीवित भाषा होने के साथ ही आधुनिक कम्प्युटर की प्रिय भाषा हैकिंतु  बाजार में उसका उपभोक्ता नगण्य हैइसीलिए वह श्रेष्ठ भाषा होने के बाद भी दुनिया के परिदृश्य में आज भी अपने को पुनर्जीवित कर रही भाषा बनी हुई हैकिंतु क्या यही बात हिंदी के संदर्भ में कही जा सकती है हिंदी भाषा संस्कृत की बेटी है लेकिन आज बेटी की धाक दुनिया में माँ से ज्यादा हैवह भारत जैसे विशाल देश की सबसे अधिक पसंद और बोली जाने वाली भाषा होने के साथ ही दुनिया के कई देशों में सहज स्वीकार्य है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि आज हिंदी बाजार की भाषा बन चुकी हैकई हजार करोड़ रोज का हिन्दी का बाजार है। करोड़ों उपभोक्ताओं की ताकत वह अपने में समेटे है। इसे उदाहरण के तौर पर समझें तो कहा जा सकता है कि मनोरंजन की दुनिया में हिंदी सबसे अधिक मुनाफा देने वाली भाषा के रूप में स्वयं को स्थापित करने में सफल रही है । हमारा भारत भले ही बहुभाषिक देश होकिंतु इसे बाजार की मजबूरियां ही कहिए कि यहां कुल विज्ञापनों का लगभग 75 प्रतिशत भाग हिंदी में तैयार किया जाता है।

हिंदी आज न केवल विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की भाषा है बल्कि दुनिया के तमाम देशों में भी हिंदी की लोकप्रियता अन्य भाषाओं की तुलना में सबसे अधिक है। भारत में यदि थोड़े समय के लिए राजनीतिकरण से हिन्दी को मुक्त करके देखें तो इसकी सर्वव्यापकता सहजत समझी जा सकती है। इस भाषा का भौगोलिक विस्तार काफी दूर-दूर तक फैला हैजिस दक्षिण के राज्यों में इसका विरोध होता है वहां भी सबसे ज्यादा विरोध करने वाले ही हिन्दी के भक्त हैं। भारत के बाहर नेपालत्रिनिदादसूरीनामफिजीमॉरीशस,अमेरिकाब्रिटेनमलेशियासिंगापुर हॉगकॉगचीनजर्मनीजापानअफगानिस्तानदक्षिण अफ्रीकाघानापाकिस्तानबांग्लादेश,श्रीलंकारूसआदि कई देशों में हिन्दी स्वयं को बोलने के लिए आमजन को प्रेरित करती है। अन्तराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी का परचम इस कदर लहरा रहा है कि विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने वाले विद्वानों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।

रूस की विज्ञान अकादमी के तहत प्राच्यविद्या संस्थान के भारत अनुसंधान केंद्र की नेता तत्याना शाउम्यान का कहना हैं कि ब्रिटेन में रहनेवाले भारतीय प्रवासियों का संगठन दुनिया में सबसे प्रभावशाली है तथा अमरीका में रहनेवाले भारतीय मूल के लोगों की संख्या सबसे बड़ी है। इस वजह से दुनिया में हिंदी भाषा की भूमिका काफी बढ़ गई है। दूसरी ओर हिन्दी को लेकर आज संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा किए उस जनसांख्यिकीय शोध कहता है कि 15 सालों में भारत चीन को पीछे छोडक़र जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया में पहले स्थान पर पहुंच जायेगा और एक भाषा के स्तर पर भी वह चीन को पछाड़ देगा। हिंदी की दीवानगी को लेकर एक अन्य मास्को में भूविज्ञान से जुड़े विद्वान रुस्लान दिमीत्रियेव मानते हैं कि भविष्य में हिंदी बोलनेवालों की संख्या इस हद तक बढ़ जाएगी कि यही दुनिया की एक सबसे लोकप्रिय भाषा होगी। वह आंकड़ों के साथ बताते हैं कि इस समय दुनिया में करीब एक अरब लोग हिंदी बोलते हैंयह अनुमान लगाया जा सकता है कि दस सालों में हिंदी बोलनेवालों की संख्या 1,5 अरब तक बढ़ेगी। तब हिंदी वर्तमान में सबसे लोकप्रिय भाषाओं चीनी और स्पेनी भाषाओं को पीछे छोड़ देगी। सच पूछिए तो त्रिनिदादसूरीनामफिजीदक्षिण अफ्रीका एवं मॉरीशस में हिंदी की जड़े गहरी हुई हैंतो रूसजापानअमेरिका,  ब्रिटेनजर्मनी,  इटलीकोरियाचीन आदि देशों ने हिंदी की शक्ति को जाना और स्वीकारा है।

पिछले सालों में हिंदी की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दुनियाभर के देशों में लगातार हिन्दी सीखने की ललक अन्य भाषाओं की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक बढ़ी है। कई देशों में विधिवत शासकीय स्तर पर हिंदी भाषा में प्रकाशन शुरू किया हैनिजि स्तर पर तो सैकड़ों पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो ही रही हैं। यूरोप और अमरीका में हिंदीभाषी विद्यालय स्थापित किये गये हैं। यहाँ  हिंदीभाषी रेडियो स्टेशनटीवी चेनल और वेब साइटें काम करती हैं। हिंदी फिल्मों की लाखों डीवीडी जारी की जाती हैं जो हाथों हाथ बिकती हैं। न केवल एशियायूरोप के तमाम देशों और इजराइल के विश्वविद्यालयों में कई वर्ष पूर्व से हिंदी पढ़ाया जारी है। हिंदी सोसाइटी सिंगापुर द्वारा आज कई  हिंदी प्रशिक्षण केंद्र चलाये जा रहे हैंजिसमें बच्चों से लेकर वयस्कों तक को हिंदी प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रांत की सरकार ने देश की केंद्र सरकार से हिंदी को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में शामिल करने की गुजारिश की है।

ब्रिटिश सरकार ने अपने यहां की पाठ्यक्रम तय करने वाली समिति से जाना कि क्यों हिंदी को देश के पाठ्यक्रम में 11 भाषाओं के साथ शामिल किया जाना चाहिए। रूसी विश्वविद्यालयों में भी हिंदी के विशेषज्ञ शिक्षा पा रहे हैं।  हिंदी के प्रति दुनिया की बढ़ती चाहत का एक नमूना यह भी है कि विश्व के लगभग डेढ़ सौ विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ी और पढ़ाई जा रही है। विभिन्न देशों के 91 विश्वविद्यालयों में हिंदी चेयर’ है। इसे देखते हुए हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए सरकार की ओर से प्रयास किए जा रहे हैं। वैसे यूनेस्को की सात भाषाओं में हिंदी पहले से ही शामिल है। हिंदी बोलनेवालों तथा हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य का प्रचार करनेवालों के बीच संपर्कों के विकास के लिए दुनिया के विभिन्न देशों में नियमित रूप से विश्व हिंदी सम्मेलनों का आरंभ भारत के विदेश विभाग के सहयोग से चल ही रहा है।

भाषाई अनुमान के अनुसार विश्व में कुल छह हजार आठ सौ नौ भाषाएँ बोली जा रही हैंजिसमें से 905 भाषाओं को बोलनेवालों की संख्या एक लाख से कम है। इन सभी भाषाओं में हिंदी को सीधे चुनौती देनेवाली भाषा चीन में बोली जानवाली मैंड्रीन भाषा हैकिंतु जिस तरह से दुनिया का आकर्षण भारत और हिंदी के प्रति बढ़ रहा हैउसे देखते हुए कहा जा सकता है कि हिंदी को अब अपने अस्तित्व के लिए विदेशियों के बीच संघर्ष करने की जरूरत नहीं बची है। हिंदी वैश्विक स्तर पर आज पूरी तरह बाजार की भाषा बन चुकी है। यह वर्तमान दुनिया की जरूरत है।

 : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

जिन्‍हें भारत पसंद नहीं, वे यहां क्‍या कर रहे हैं ?


भारत वर्ष के स्‍वाधीनता आंदोलन के वक्‍त राष्‍ट्रकवि‍ मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा था कि जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं। वह हृदय नहीं है पत्थर हैजिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। आज देश की आजादी को 69 साल बीत चुके हैंलेकिन उनकी यह पक्‍तियां अपने समय में जितनी शाश्‍वत थी, उतनी ही वर्तमान में भी हैं तथा भविष्‍य में भी रहेंगी। क्‍यों कि जब तक पृथ्‍वी पर राष्‍ट्र और देश का भूगोल रहेगाअपने देश के प्रति देशभक्‍ति का अपार अनुराग होना उतना ही अपरिहार्य है। किंतु भारत में कुछ ऐसे तत्‍व हैंजो भारत की खाते हैंसुविधाएं भी तमाम भोगते हैं लेकिन जब देशभक्‍ति या स्‍वराज के प्रति सम्‍मान रखने और उसे प्रदर्श‍ित करने की बारी आती है तो वे सबसे ज्‍यादा अपने ही देश को कोसते हैं । यह सीधा और सपाट प्रश्‍न ऐसे ही लोगों के लिए हैक्‍या उन्‍हें एक पल भी भारत में बिताना चाहिए जिन्‍हें भारत पसंद नहींआखिर वे यहां कर क्‍या रहे हैं वस्‍तुत: जिस प्रकार से हाल ही में कश्‍मीर में घटनाक्रम हुआ हैयह बात आज देश का हर वो भारतवासी सोच रहा है जो अपने देश को तनमनधन और जीवन से ज्‍यादा प्रेम करता है। जिनके लिए राष्‍ट्र ही सर्वोपरि हैराष्‍ट्र का मान उनका मान और राष्‍ट्र का तिरस्‍कार उनका स्‍वयं का अपमान है।

देश की चुनी हुई मोदी सरकार को प्रतिपक्ष के नाते जो कांग्रेस कई मुद्दों पर कटघरे में खड़ा करती आई हैआज वह भी यह स्‍वीकार्य करने लगी है कि कश्‍मीर में जो हुआ वह गलत है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद सही कहते हैं कि कश्मीर के अलगाववादियों को सिर्फ पाकिस्तान के उच्चायुक्त से नहीं मिलना चाहिए। सांसदों की बातचीत की पहल को हुर्रियत कांफ्रेस द्वारा ठुकराया जाना सही नहीं है। आज हर कोई कश्मीर मुद्दे का समाधान चाहता है। देश का प्रत्‍येक नागरिक यहां के बिगड़े हालातों को लेकर चिंतित है।

वास्‍तव में दुनिया के तमाम देशों के बीच यह भारत का ह्दय ही है जो यह कहता है कि बातचीत के लिए हमारे दरवाजे ही नहीं,हमारे रोशनदान भी खुले हैं। एक मर्तबा देखा जाए तो यदि यह स्‍थि‍ति दुनिया के किसी ओर देश में घटी होतीजहां देश के सर्वोच्‍च मंदिर लोकसभा का कोई सर्वदलीय प्रतिनिधि‍मंडल अपनी ही आवाम से बातचीत करने जाए और उसे आवाम के बीच ही बैठे अलगाववादि‍यों द्वारा खाली हाथ लौटा दिया जाए हमारा पड़ौसी मुल्‍क चीन होता तो ऐसी परिस्‍थ‍िति उत्‍पन्‍न होने पर क्‍या करता वह तत्‍काल सभी को उनके घरों से निकालकर जो सबक सिखाता उसकी यहां कल्‍पना करना भी दुष्‍कर है। लोग कल्‍पना करने के लिए आगे जीवित भी बचते यह भी नहीं कहा जा सकता। जबकि यही हाल युरोप के तमाम देशों अमेरिकाफ्रांस,जर्मनीइंग्‍लैण्‍ड से लेकर रूसआस्‍ट्रेलिया या किसी अन्‍य देश में होता। इन देशों में किसी की इतनी हिम्‍मत नहीं कि वह अपनी सर्वोच्‍च सत्‍ता का इस प्रकार खुलेतौर पर अपमान कर सकें। संसद सदस्यों से ना सिर्फ मिलने से इनकार कर दिया जाए बल्कि अपने घर की दीवारों पर Go Back के साथ ही अपने दरवाज़ों पर भी Do Not Enter वाला बोर्ड लगा दिया जाए। लेकिन ऐसा भारत में ही हो सकता है। क्‍यों कि यहां देश के राष्‍ट्रपति महात्‍मा गांधी संत नरसी मेहता के भजन को आदर्श मानकर राष्‍ट्रनायकों को शांति और संवेदना का पाठ पढ़ाते रहे हैं। यहां जो करो भारतीय संविधान के दायरे में रहते हुए करो।

महात्‍माजी ! भारत को प्रेम करने वाले हर नेता को यह शिक्षा दे गए कि वैष्णव जन तो तेने कहिएजे पीर पराई जाने रेपर दुक्खे उपकार करे तोएमन अभिमान न आए रे। सकल लोक मा सहुने वंदेनिंदा न करे केनी रेवाच काछ मन निश्चल राखे,धन धन जननी तेरी रे। यही कारण है कि अब तक अपने हजारों जवानखरबों की संपत्‍त‍ि तथा कश्‍मीरी पंडितों का नरसंहार और पलायन देखने के बाद भी कश्मीर की शांति के लिए देश की सर्वोच्‍च चुनी हुई सरकार किसी से भी बातचीत को तैयार है। किंतु प्रश्‍न यही है कि जो अलगाववादी भारत के संविधान और चुने हुए प्रतिनिधियों को ही अपना नहीं मानते वो कश्मीर के हमदर्द कैसे हो सकते हैं कश्मीर में हुर्रियत नेताओं ने जो किया निश्‍चित ही आज उनके इस अड़ि‍यल रवैये की जितनी भर्तसना की जाए उतनी ही कम होगी। उन्होंने भारत की जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों का अपमान करकेप्रत्‍यक्षअप्रत्‍यक्ष दोनों तरह से देखें तो देश के 132 करोड़ लोगों को अपमानित किया है।

घाटी में अलगाव फैला रहे हुर्रियत संगठन को लेकर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने जो कहा सभी को उसे गंभीरता से समझना चाहिए। गृहमंत्री कह रहे हैं कि केंद्र और राज्य सरकार घाटी में शांति का माहौल तैयार करने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। 'मैं हुर्रियत नेताओं से कहना चाहता हूं कि जम्मू-कश्मीर हिंदुस्तान का अभिन्न अंग थाभारत का अंग है और हमेशा रहेगा, इसमें कोई दोमत नहीं। अगर कोई बातचीत के लिए जाता है और हुर्रियत के नेता बात नहीं करते हैं तो इससे साफ जाहिर है कि उनका इंसानियतजम्हूरियत और कश्मीरियत में कोई भरोसा नहीं है। 'हम घाटी में शांति बहाली के लिए हर संभव प्रयास करने के लिए तैयार हैं।  हम राज्य सरकार के साथ हर कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ रहे हैं।

आज जम्मू कश्मीर के गर्वनरमुख्यमंत्री और स्टेट के सभी मंत्रियों से लेकर जम्‍मूलद्दाख एवं ज्‍यादातर घाटी के लोग यही चाहते हैं कि हालात सुधरे और शीघ्र शांति कायम हो सके। किंतु कश्‍मीर में अलगाववादी नहीं चाहते कि राज्‍य में शांति स्‍थापित हो। देखाजाए तो वे चाहेंगे भी क्‍यों राज्‍य में शांति आते ही उनकी दुकान चलना जो बंद हो जाएगी। अभी अलगाववादी दोनों ओर से मलाई मार रहे हैंभारत में रहकर पाकिस्‍तान का झंडा और देश विरोधी नारे लगाकर पड़ौसी देश से धन कमाते हैं और उधर राज्‍य सरकार से अपने लिए अपार सुविधाएं प्राप्‍त करते हैं। इस बात का प्रमाण पिछले दिनों मीडिया ने जिस सच के साथ सभी के समक्ष रखाउसे जानकर लगता है कि क्‍यों केंद्र और राज्‍य सरकार अलगाववादियों पर रहम कर रही है ?

यदि यह रिपोर्ट सही है कि जम्मू-कश्मीर की सरकार नेपिछले 5 वर्षों में अलगाववादियों पर 506 करोड़ रुपये खर्च किए हैं, तब यह जरूर बहुत चिंता का विषय है। यह जानकर और आश्‍चर्य होता है कि हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के अलगाववादी नेताओं पर पिछले वर्षों में जो रकम खर्च की गईवह राज्य के बजट में अन्‍य सेक्टर के लिए आवंटित धन से कहीं ज़्यादा थी। सरकार ने जो धन अब तक इन अलगाववादियों पर खर्च कियावह अकेले जम्‍मू-कश्‍मीर की जनता का पैसा नहीं थायह देश के हर उस नागरिक का धन था जो टैक्‍स-पेयर है और जिनके लिए जन्‍मभूमिमातृभूमि भारतवर्ष स्‍वर्ग से भी बढ़कर है।

वस्‍तुत: संपूर्ण देश को आज इन अलगाववादियों से पूछना चाहिए कि जब उन्‍हें अपने देश भारत में रहना ही नहीं है तो क्‍यों नहीं उन्‍हें देश से बाहर कर दिया जाए। यदि उन्‍हें भारत में बहुत अधिक कष्‍ट है तो क्‍यों वे यहां रह रहे हैं अपने अमन-चैन के लिए दूसरा देश क्‍यों नहीं ढूढ़ लेते हुर्रियत से लेकर अन्‍य सभी इस जैसे संगठनों से यही कहना है कि जो अपने देश को तन,मनधन और जीवन से ज्‍यादा प्रेम नहीं कर सकते। जिनके लिए राष्‍ट्र सर्वोपरि नहींराष्‍ट्र का मान उनका मान नहीं और राष्‍ट्र का तिरस्‍कार उनका स्‍वयं का अपमान नहीं है। कुल मिलाकर जिन्‍हें भारत पसंद नहींआखिर वे यहां कर क्‍या रहे हैं ?

 डॉ. मयंक चतुर्वेदी