शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

विश्‍व में निवेशकों की पसंद का देश बना भारत

 

-डॉ. मयंक चतुर्वेदी
 आर्थिक मोर्चे पर केंद्र की मोदी सरकार को विपक्ष द्वारा लगातार कटघरे में खड़ा करने का प्रयास होता रहा है। इसके उलट वास्तविकता यह है कि पिछले सात साल के दौरान जिस तेजी के साथ भारत ने अर्थ से जुड़े प्रत्येक क्षेत्र में विकास किया है, वह इससे पहले कभी किसी भी सरकार में देखने को नहीं मिला है। सरकार के सामने एक तरफ जनसंख्या बढ़ने के साथ बेरोजगार युवाओं की संख्या को रोजगार देने का दबाव था तो दूसरी ओर उन तमाम योजनाओं पर भरोसा था, जो भारत के वर्तमान और भविष्य को दुनिया की नजर में शक्ति सम्पन्न बनाने जा रही थीं। वस्तुत: यह उन आर्थिक क्षेत्र के लिए गए सही निर्णयों का ही परिणाम है कि वित्त वर्ष 2020-21 में कोविड महामारी के बावजूद भारत में 81.72 अरब डालर का विदेशी निवेश (एफडीआइ) आया।

 अंतरराष्ट्रीय सलाहकार कंपनी डेलाय की रिपोर्ट कहती है कि वैश्विक कंपनियां भारत में निवेश के लिए पहले से ज्यादा तैयार हैं। इसे मोदी के नेतृत्व का चमत्कार ही कहिए, जो अमेरिका एवं ब्रिटिश कंपनियां सिंगापुर एवं जापान की तुलना में भारत को अपने लिए सबसे मुफीद और आकर्षक बाजार के तौर पर देख रही हैं।

 देखा जाए तो केंद्र सरकार आर्थिक क्षेत्र में अनेक बिन्दुओं पर गहराई से एक साथ कार्य करती हुई नजर आ रही है, उसे जहां गरीब की पूरी चिंता है तो वहीं उन सभी के लिए भी उसके पास कुछ ना कुछ है जो नवाचारों के माध्यम से देश की अर्थव्यवस्था को तेज गति देने का सामर्थ्य रखते हैं। आज जेएएम (जनधन-आधार-मोबाइल) ट्रिनिटी भारत के लिए एक गेम चेंजर साबित हुई है, जो उन्हें भविष्य में वित्तीय समावेशन प्रारूप को आगे बढ़ाने में सक्षम बनाती है। यही कारण है कि वित्तीय रूप से बहिष्कृत लोगों को आगे लाकर, बचत करके और वास्तविक लाभार्थियों को सरकारी लाभ वितरित करके, नागरिकों को उनके बैंक लेनदेन पर एसएमएस अपडेट प्रदान करके जेएमएम ट्रिनिटी ने हमारी बैंकिंग प्रणाली को पूरी तरह से पारदर्शी बना दिया है।

 सरकार का कोविड-19 महामारी के बीच में जनधन द्वारा लाया गया वित्तीय समावेश महत्वपूर्ण रहा, इसके कारण ही कई लोगों और छोटे व्यवसायों को जमानत-मुक्त ऋण मिल सका और जिसने कि उनके पूरे जीवन को ही बदलकर रख दिया।

 इसी तरह से आधार लिंकेज ने देश को बहुत अधिक चोरी से बचाया है। इस माध्यम से सरकार वास्तविक लाभार्थियों तक पैसा पहुंचाने में सक्षम हुई है। बैंक खातों की आधार सीडिंग ने हमें तत्काल केवाईसी लाभ दिया। इस समय भारत में पीएमजेडीवाई के तहत 43.23 करोड़ लाभार्थियों के खाते हैं। ये खाताधारी स्वयं तो सक्षम बन ही रहे हैं, अन्यों को भी सक्षम करने के लिए प्रयासरत हैं। यह मोदी सरकार की सही नीतियों का ही परिणाम है जो आज दुनिया की कंपनियां 60 फीसद निवेश नवीकरणीय ऊर्जा, हेल्थ सेक्टर, वित्तीय सेवा और फाइनेंशियल टेक्नोलाजी जैसे क्षेत्रों करने आगे आ रही हैं । देश में डिफेंस, टेक्सटाइल, खाद्य प्रसंस्करण का क्षेत्र भी विदेशी कंपनियों को आकर्षित कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) का आकलन भी यही है, वह कह रहा है कि इस पूरे वित्त वर्ष में सबसे तेजी से उभरने वाली इकॉनमी भारत की रहेगी।

 यह एक तथ्य है कि देश के जीडीपी में कुल 10 गुना बढ़ोतरी हुई है और महंगाई दर छह फीसदी के आसपास स्थिर हो गई है। देश के विदेशी मुद्रा भंडार में 76 गुना की बढ़ोतरी हुई है। वस्तुत: हाल ही में आई लगभग सभी अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट इस बात पर एकमत हैं कि भारत पांच लाख करोड़ डालर की इकोनामी बनने में सक्षम है और इसमें एफडीआइ की अहम भूमिका होगी। भारत की इकॉनमी को लेकर अमेरिका के उद्योगपतियों में चीन, ब्राजील, वियतनाम, मेक्सिको जैसे दूसरी समकक्ष इकॉनमी के मुकाबले ज्यादा प्रतिष्ठा है। अमेरिका एवं ब्रिटेन के कारोबारी भारत के संस्थानों की मजबूती व बेहद प्रशिक्षित श्रम शक्ति को ज्यादा पसंद कर रहे हैं। अधिकांश कारोबारियों का कहना यही है कि वे भारत में नया निवेश करेंगे और यहां पूर्व से चल रही अपनी कंपनियों में निवेश बढ़ाएंगे।

 आंकड़े बता रहे हैं कि वर्ष 2020-21 (54.18 अरब डॉलर) के पहले 10 महीने में एफडीआई इक्विटी प्रवाह 28 प्रतिशत बढ़ गया है। वित्त वर्ष 2020-21 के पहले 10 महीने में एफडीआई इक्विटी के जरिए निवेश करने वाले देशों में 30.28 फीसदी की हिस्सेदारी के साथ सिंगापुर सबसे अव्वल रहा। इसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका (24.28) और यूएई (7.31%) का स्थान है। इसके साथ ही जनवरी 2021 के दौरान कुल एफडीआई इक्विटी प्रवाह में 29.09 फीसदी की हिस्सेदारी के साथ जापान सबसे आगे रहा। इसके बाद सिंगापुर (25.46%) और उसके बाद यू.एस.ए. (12.06%) का स्थान है । आज दुनिया की कई कंपनियां भारत को वैश्विक मैन्यूफैक्चरिंग हब के तौर पर देख रही हैं। जापान की कंपनियां भारतीय बाजार को ध्यान में रखते हुए निवेश कर रही हैं। इनकी भावी योजना भारत को एक निर्यात हब के तौर पर इस्तेमाल करने की है। यही वह कारण भी है जोकि सरकार के कदमों से देश में एफडीआई का प्रवाह निरंतर बढ़ा है।

अप्रैल 2020 से जनवरी 2021 के बीच भारत में 72.12 अरब डॉलर का एफडीआई आया। यह वित्त वर्ष 2019-20 की तुलना (62.72 अरब डॉलर) में 15 फीसदी ज्यादा एफडीआई था। यह किसी भी वित्तीय वर्ष के पहले 10 महीने में आया सबसे अधिक एफडीआई रहा है। कोविड महामारी के बाद भारतीय इकॉनमी के प्रदर्शन एवं इसकी मजबूती को देख कर वैश्विक समुदाय प्रभावित है। अमेरिकी कंपनियों के सीइओ में भारत के भविष्य को लेकर बहुत भरोसा दिखा रहे हैं । इसी तरह का भरोसा दुनिया के कई देशों का इन दिनों भारत को लेकर बना है, जिसके बाद कहना होगा कि जो भारत को पांच लाख करोड़ डालर की इकॉनमी बनने में आठ लाख करोड़ डालर के सकल पूंजी निर्माण की जरूरत है और अगले छह से आठ वर्षों में 400 अरब डालर के एफडीआइ की आवश्यकता है, वह इस भरोसे के आधार पर भारत प्राप्त करने में सफल हो जाएगा। कुल मिलाकर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल में आर्थिक नीतियों के माध्यम से स्पष्ट कर दिया है कि उनकी सरकार निवेश का महौल बनाने के लिए काफी कुछ कर रही है। पीएलआइ देना, बीमा समेत कई सेक्टर में एफडीआइ सीमा बढ़ाना, रेट्रो टैक्स व्यवस्था को खत्म करने जैसे फैसले इसी दिशा में हैं।

इस वर्ष 15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण में इन्फ्रास्ट्रक्चर में 1.4 लाख करोड़ डालर के निवेश की बात कही थी, जोकि दुनिया भर में बहुत सकारात्मक तरीके से ली गई है। इन्वेस्टर या निवेशक चाहते भी यही हैं कि भारत का जितना बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर होगा उतना ही अधिक उनके लाभ में भी बढ़ोत्तरी होगी, साथ ही भारतीयों के जीवनस्तर में भी और अधिक सुधार आएगा। कहना होगा कि मोदी सरकार की तरफ से उठाए जा रहे आर्थिक क्षेत्र के कदम लम्बे समय तक भारतीय इकॉनमी की विकास दर को तेज बनाए रखने में मददगार साबित होंगे। भविष्य का भारत निश्चित ही एक मजबूत भारत बनकर हम सभी के सामने आनेवाला है, जिसके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आर्थिक नीतियों को श्रेय दिया जाए तो कुछ गलत नहीं होगा।

तालिबान, शरिया कानून और भारत


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डॉ. मयंक चतुर्वेदी


पटकथा लिखी जा चुकी है, अभी सरकार नहीं बनी लेकिन यह तय हो गया है कि प्रारंभ से ही कौन से देश आतंकी तालिबानियों के साथ हैं। इसमें सबसे ज्यादा खतरा यदि किसी मुल्क को है तो वह भारत है और जो देश अफगानिस्तान में बने वर्तमान हालातों में सबसे अधिक लाभ देख रहा है, वह चीन है। हालांकि चीन के साथ ही अभी पाकिस्तान, टर्की और रूस ने अफगानिस्तान में अपने दूतावास बंद नहीं करके यह साफ संकेत दे दिए हैं कि वे नई तालिबानी हुकूमत के साथ जाएंगे।

वस्तुत: यह सर्वविदित है कि तालिबान की सोच इस्लाम का दुनिया भर में परचम लहराना है। हर हाल में इस्लाम की सत्ता और हर जगह शरिया कानून लागू करने का सपना इस तालिबान के हुक्मरानों का है। इसके लिए अपनी शक्ति से भी आगे तक जाने के लिए तालिबानी लड़ाके तैयार रहते हैं। दीन के प्रति समर्पण और मरने के बाद तमाम हूरों का सपना इन पर पूरी तरह से हावी है। यही कारण है कि तालिबान जब पिछली बार अफगानिस्तान में की सत्ता में आए, उन्होंने शरिया कानूनों के नाम पर कहर ढाया था। इस्लाम की सत्ता का अहंकार इस कदर इन पर हावी हुआ कि इन्होंने अमेरिका तक को चुनौती दे डाली और 9/11 की घटना घटी। अमेरिका में 2001 को हुए इस आतंकी हमले में तीन हजार से अधिक लोगों की मौत हुई और हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक संगठन अल-क़ायदा के प्रमुख ओसामा बिन लादेन ने ली थी ।

पूरी योजना अफगानिस्तान से संचालित थी जहां पर कि कट्टरपंथी इस्लामिक समूह तालिबान का ही शासन था। तालिबान ने जब ओसामा को अमेरिका के हवाले करने से इनकार किया, तब मजबूरन 11 सितंबर की घटना के एक माह बाद से अमेरिका आतंकवादियों के इन दोनों ही संगठनों को समाप्त करने की मंशा से सीधे सामने आकर लड़ाई लड़ने लगा। उसने अफगानिस्तान में हवाई हमले शुरू किए। असर भी व्यापक दिखा, लेकिन फिर क्या ? 20 सालों के लम्बे संघर्ष के बाद हालत फिर वहीं आकर ठहर गए हैं। इसका जो सबसे बड़ा कारण सीधे तौर पर नजर आता है, वह है अफगानिस्तान की अधिकांश जनता का तालिबान के सामने समर्पण कर देना। शरिया कानूनों को अमल में लाने का उनका आग्रह, जिसमें कि अफगान सेना का तीन लाख की संख्या में होने के बाद भी 70 हजार तालिबानियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया जाता है। ऐसे में विचार करें कि वर्तमान परिस्थितियों में भारत कहां है, उसके अफगानिस्तान से जुड़े हित क्या हैं और वर्तमान हालातों में उनका क्या होगा ?

इस संदर्भ में देखा जाए तो अफगानिस्तान में भारतीय मिशनों पर हुए हमलों में तालिबान की सीधी भागीदारी अबतक रहती आई है। 1999 में आईसी-814 विमान का अपहरण आज भी हर देशभक्त भारतीय को चुभता है जिसमें जैश-ए -मोहम्मद प्रमुख मौलाना मसूद अजहर, अहमद ज़रगर और शेख अहमद उमर सईद को छोड़ने के बदले इस कंधार विमान अपहरण कांड में यात्रियों को सकुशल भारत को लौटाने की शर्त तालिबान की ओर से रखी गई थी। दरअसल, तालिबानी सत्ता को लेकर भारत के समक्ष सबसे बड़ा संकट वैचारिकी का भी है। एक तरफ भारत है जो सर्वपंथ सद्भाव एवं धर्म आधारित व्यवस्था को समान रूप से देखता है, जबकि इसके उलट तालिबान है जिसके लिए इंसानियत से भी ऊपर उसका मजहब है। हदीस की शिक्षाएं हैं और शरीयत कानून है। कुरान के आईने से वह पूरी दुनिया बना देना चाहता है, फिर इसके विरोध में यदि कोई इस्लाम को मानने वाला खड़ा हो जाए या तार्किक रूप से यदि कोई उनसे प्रश्न करेगा तो वह तालिबानियों के हाथों तुरन्त मार दिया जाएगा। ऐसे में उनके लिए अपने मजहब का होना भी मायने नहीं रखता।

इस सब में दुखद पक्ष यह है कि फ्रांस, भारत या अन्य देश में घटी किसी घटना पर दुनिया भर में शोर मचानेवाली इस्लामिक भीड़ आज अफगानिस्तान के समूचे घटनाक्रम पर मौन नजर आ रही है। भारत में पिछले एक दिन भी तालिबानियों की बर्बरता को लेकर जुलूस नहीं निकाला गया और ना ही किसी अन्य देश से ही ऐसी तस्वीरें सामने आईं हैं, जबकि वास्तविकता यही है कि जिन लोगों पर तालिबान अभी कहर ढा रहा है वे सभी इस्लाम को ही मानने वाले हैं, हां शरिया कानून के पक्ष में पूरी तरह से नहीं हैं। ये सभी आधुनिक मुसलमान महिलाओं को भी बहुत हद तक सामान्य रूप से स्वतंत्रता देने एवं शिक्षा के समान अधिकार देने की वकालत करते आए हैं। सोचने वाली बात है, क्या अफगानिस्तान और फिलिस्तीन में मरने वाले अलग-अलग तरह के सलीम और अब्दुल हैं ? जो अबतक काबुल बचाओ, अफगानिस्तान बचाओ जैसा कोई हैशटैग नजर नहीं आया ? नेशनल इंटरनेशनल सैलिब्रिटीज, शांतिदूतों की पूरी फौज जैसे तालिबान की इस सत्ता को मौन समर्थन देती नजर आ रही है। वास्तव में भारत को आज खतरा इसी मौन से है।

हाल ही में एक अध्ययन सीधे तौर पर इसी खतरे की ओर इशारा भी करता है। अमेरिकी थिंक टैंक ''प्यू रिसर्च सेंटर'' की एक स्टडी में यह बात खुलकर सामने आई है। ''रिलिजन इन इंडिया : टॉलरेंस एंड सेपरेशन'' टाइटल से प्रकाशित रिपोर्ट में इसका खुलासा बहुत स्पष्टता के साथ किया गया है। रिपोर्ट बताती है कि भारत में 74 प्रतिशत मुस्लिम आबादी इस्लामी अदालतों यानी कि शरीयत के कानून को लागू करने के पक्ष में हैं। 59 प्रतिशत मुसलमानों ने भी विभिन्न धर्मों के अदालतों का समर्थन किया है। इसका मतलब यह हुआ कि भारत में हर चार मुसलमान में से तीन शरिया अदालत चाहते हैं। यही सोच वास्तव में आज भारत के लिए संकट की घंटी बजा रही है।

वस्तुत: भारत जैसे देश जहां बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय रहता है, जब धर्म के आधार पर देश का विभाजन हुआ, तब इस बहुसंख्यक समाज ने यही कहा था कि जो भी मुसलमान विभाजित भारत में रहना चाहता है, वह यहां उतने ही अधिकार के साथ रहे जितना कि एक हिन्दू का यहां अधिकार है। कानून बनाते वक्त, संविधान का निर्माण हो रहा था, उस समय भी बहुसंख्यक हिन्दुओं के तंत्र ने हर उस अल्पसंख्यक का ध्यान रखा, जिनकी संख्या बहुसंख्यक समाज से कम थी। आज सबसे बड़ा अल्पसंख्यक मुसलमान है और जितनी भी भारत सरकार की अल्पसंख्यकों के लिए योजनाएं चल रही हैं या पिछड़े वर्ग की योजनाएं चल रही हैं, उनमें जनसंख्या के अनुपात में सबसे अधिक लाभ लेनेवाला भी आज यही मुसलमान समुदाय है।

इतना ही नहीं तो धार्मिक स्थानों पर जहां एक तरफ मंदिरों का सरकारीकरण करते हुए उसके लाभ को सरकार लेने में जरा भी देरी नहीं करती तो दूसरी तरफ उन्हें (अल्पसंख्यक को) हर तरह का शिक्षा संस्थानों के साथ धार्मिक संस्थानों का लाभ वर्ष 1947 से आजतक दिया जा रहा है। बहुसंख्यक हिन्दू समाज के टैक्स पर अल्पसंख्यकों के लिए तमाम जनकल्याणकारी योजनाएं-शिक्षा एवं अन्य चलाई जा रही हैं, किंतु इसके बाद भी देश का बहुसंख्यक समाज यह नहीं कहता कि हमारे लिए भारतीय संविधान में स्वीकृत व्यवस्था से अलग कोई व्यवस्था बनाई जाए, जबकि यह अध्ययन एक चुनौती देता है खासकर मुसलमानों के संदर्भ में जो कि भारत में भी 74 प्रतिशत की संख्या में शरिया कानून को अमल में लाने की इच्छा रखते हैं। अब तय हम सभी को करना है कहीं इस सहमति से तालिबानी सोच तो भारत में नहीं बलवती हो रही? यदि ऐसा है तो अफगानिस्तान का यह घटनाक्रम भारत के लिए एक संकेत है। जिसे हर देशभक्त को पंथ और धर्म से ऊपर उठकर समझने की आवश्यकता है।