मध्यप्रदेश
के पूर्व मुख्यमंत्री सुन्दरलाल पटवा से खास बातचीत

डॉ.
मयंक चतुर्वेदी: - श्री पटवा जी, आपातकाल
भारतीय इतिहास का वह स्याह पन्ना है,
जिस पर जितनी बात की जाए कम होगी, यह
आपका भोगा हुआ यथार्थ भी है। आज आप इस कालखण्ड को किस रूप में देखते हैं
सुन्दर लाल पटवा: - 26 जून 1975 को
आपातकाल की घोषणा श्रीमती इंदिरा गांधी ने की थी। उनके प्रति श्रद्धाभाव रखने
वालों ने इसे अपने समय में अनुशासन पर्व तक कहा, जबतक कि वक्त के गुजरने के साथ
उनके सामने आपातकाल की यथास्थिति प्रकट नहीं हो गई । अपातकाल की सच्चाई यही थी
कि ये दमन पर्व था। श्रीमती गांधी ने अपने विरोधियों तथा उन सभी राजनीतिक दलों के
नेताओं को जिनसे उन्हें जरा भी भय प्रतीत होता था उन सभी को नींद से जगाकर जेल में
डाल दिया और यह सब हुआ आंतरिक सुरक्षा के नाम पर । तत्कालीन सरकार को लगा कि देश
की आंतरिक सुरक्षा पर खतरा है और इस बहाने से आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत बंदियों
को न्यायालय में प्रस्तुत किये बगैर ही सजा देनाशुरू कर दिया गया। न अपील, न
वकील न दलील। अंधकार ही अंधकार था, चारो
ओर अंधकार था। कोई सुनने वाला नहीं था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में
तानाशाही कायम कर दी। अखबारों में सेंसरशिप लागू हो गयी। उनकी तारीफ केवल छप सकती
थी उनके खिलाफ टिप्पणी छपना तो दूर की बात हो गई थी । एक तरह से बोलने तक की आजादी इस
दौरान छीन ली गई थी।
डॉ.
मयंक चतुर्वेदी:: पुलिस ने आपको कब पकड़ा, और
आप कब तक जेल में बंद रहे ?
सुन्दर लाल पटवा: मुझे पुलिस उसी रात पकड़ ले गई
जिस दिन देश में आपातकाल लगाए जाने की घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा
गांधी द्वारा की गई थी । मेरा घर पुलिस थाने के सामने मंदसौर में था। हुआ यह कि
एसपी ने मुझे थाने बुलाया और आगे किसी विषय पर बात न करते हुए सीधे लॉकप में बंद
कर दिया। मेरी यह जेल यात्रा फिर उस समय तक चलती रही जब तक कि इस मीसा की समाप्ति नहीं
हो गई । यानि कि मैं पहले दिन से लेकर अंतिम दिन तक मीसा के तहत जेल में बंद रहा।
डॉ.
मयंक चतुर्वेदी- क्या उस समय कुछ
लोग सहयोग के लिए आगे आए
सुन्दर लाल पटवा:- हां, बिल्कुल, आए।
(पूरा नाम न बताते हुए)
बेरिस्टर त्रिवेदी हमारे साथ थे, पिटिशन
तैयार की गई, लगाई भी गई लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। सरकार के
सामने हमारी एक न चली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ और समाजवादी पार्टी के सर्वोदयी कार्यकर्ता उस समय इंदौर
सेट्रल जेल समेत पूरे प्रदेश की जेल में निरुद्ध कर दिये गए थे। उन पर अनर्गल आरोप
जड़ दिये गये। मेरे साथ जनसंघ के नेता वीरेन्द्र कुमार सकलेचा पर आरोप लगाया गया कि
वे सरकार के खिलाफ जनता में बगावत पैदा कर रहे हैं। इसी प्रकार से नीमच के
वयोवृद्ध नेता उमाशंकर त्रिवेदी जिनकी आयु 80 वर्ष के ऊपर थी,
पर सरकार ने आरोप लगाया कि वे टेलीफोन
के खंबे पर चढ़कर तार काट रहे हैं, इत्यादि
। सरकारी मशीनरी कुछ सुनने को तैयार नहीं थी। मैं चार दिन मंदसौर जेल में रहा, उसके
बाद मुझे इंदौर केंद्रीय कारागृह में शिफ्ट कर दिया गया।
डॉ. मयंक चतुर्वेदी:- जेल में आपके
साथ अन्य बंदी साथियों की क्या मनोदशा थी,
इस संबंध में आप क्या अनुभव कर
रहे थे
सुन्दर लाल पटवा: मेरे साथ जनसंघ के अलावा कई राजनैतिक पार्टियों के लोग भी मीसा में जेल में
बंद किए गए थे । ज्यादातर नेताओं एवं कार्यकर्ताओं की स्थिति यह थी कि उनका जेल
से मुक्त होने का विश्वास डगमगाने लगा था। अधिकांश का एक ही प्रश्न परस्पर होता
था, कब छूटेंगे,
कब छूटेंगे। जेल में ऐसा माहौल हो
गया था कि लोग यह आस छोड़ने लगे थे कि जेल से जिन्दा बाहर लौट भी पाएंगे या नहीं। उन्हें
भय था कि जेल में पुलिस उन्हें मार डालेगी और उनकी हड्डियां ही बाहर निकलेंगी। किसी
तरह एक वर्ष बीता लेकिन उसके बाद तो जैसे ज्यादातर हमारे साथी निराश ही हो गए, उन्हें
लगने लगा था कि अब तो जिन्दगी यहीं गुजरेगी। बड़े बड़े नेताओं की सही पहचान उन 19
महिनों में हो गई जो स्वयं को बहुत बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करते थे। कई लोग श्रीमती
गांधी के भय से राजनीति छोड़ने की बात करने लगे थे। ऐसे लोग मुझसे कहा करते थे कि
इंदिरा जी के पास लिखकर माफीनामे का आवेदन भिजवा देते हैं और
साथ में यह भी लिखेंगे कि राजनीति से सन्यास ले लेंगे। उन्हें छोड़ दिया जाए।
डॉ.
मयंक चतुर्वेदी: - आप तो
सर्वमान्य नेता थे, ऐसे समय में आपने क्या किया
सुन्दर लाल पटवा:- अच्छा प्रश्न किया है, तुमने।
थोड़ा रुकते हुए, मैं और मेरे साथी इस दौरान सभी का हौंसला बढ़ाते थे
। मैं यह बात सभी से बार-बार कहता कि हम अधिकतम तीन वर्ष तक यहां रखे
जाएंगे, उसके बाद यह आपातकाल देखना, हमेशा के लिए समाप्त हो
जाएगा। मैं कहता था कि यह हमारे लिए स्वर्णिम काल से कम नहीं है। बाहर, जनता
देख, सुन और समझ रही है। वह अपना निर्णय जरूर हमारे पक्ष में ही
सुनाएगी। हमारा यह त्याग व्यर्थ जानेवाला नहीं है। यह आपातकाल हमारे लिए आपातकाल
नहीं, कांग्रेस के लिए आपातकाल सिद्ध होगा। पर इतना सब कहने के बाद भी
बहुत से ऐसे लोग भी हमारे साथ थे जिन्हें मेरी कही हुई बातों पर भरोसा नहीं होता
था। ऐसे लोग ज्यादा नहीं थे, किंतु जितने भी थे ये सभी बहुत निराश हो गए थे।
डॉ.
मयंक चतुर्वेदी:- मीसा बन्दियों
को छुड़ाने के लिए लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने भी बाहर से कुछ प्रयत्न किए थे, क्या
उनका सरकार पर कोई असर नहीं हुआ
सुन्दर लाल पटवा:– हां, हां
बिल्कुल हुआ । श्रीमती गांधी पर उनके प्रयासों का विपरीत असर हुआ। प्राय: होता यही
था कि जो राजनैतिक बंदी होते थे वे महीने दो महीने में जेल के बाहर आ जाते थे।
लेकिन यहां तो 6 माह और देखते-देखते एक वर्ष बीत रहा था। इन परिस्थितियों में मीसाबंदी के
पारिवारिक सदस्य सशंकित थे कि जो अंदर गये वो कभी बाहर आयेंगे भी कि नहीं। इसलिए
सभी दलों का सहयोग लेकर जय प्रकाश नारायण ने मीसाबंदियों को छुड़ाने के लिए
लोकसंघर्ष समिति का गठन किया, जिसके माध्यम से इंदिरा जी की
तानाशाही के खिलाफ जन सत्याग्रह की योजना बनायी गई। मध्यप्रदेश की तरह देश के कई
राज्यों से हजारों लोग स्वेच्छा से सत्याग्रह करके जेल गये। लेकिन इस सत्याग्रह का
असर इंदिरा गांधी पर उल्टा हुआ। परिस्थितियां चहूंओर मानवीय संवेदनाओं को झंकझोर
के रख देने वाली थीं।
डॉ.
मयंक चतुर्वेदी:- जेल में बंद
मीसा बंदियों के साथ ऐसी क्या परिस्थितियां पैदा हो गई थीं
सुन्दर लाल पटवा: मीसाबंदियों के घरवालों को
बहुत कष्ट दिए जाते थे। उस समय लोग मीसा बंदी के परिवार या उससे जुड़े किसी भी
व्यक्ति से संबंध रखने में भय का अनुभव करते थे। उन्हें लगता था कि पुलिस पकड़कर
जेल में बंद न कर दे। जिलाधीश मीसाबंदियों की पत्नि को मिलने तक का समय नहीं देते
थे, बहुत प्रयत्नों के बाद यह समय मिल पाता था। यही हाल अन्य
पारिवारिक सदस्यों के साथ था।
कई बार मिलने के लिए घरवालों
द्वारा आवेदन देने और प्रयास करने के बाद ही कोई मीसाबंदी अपनी पत्नि, बच्चे
और बूढ़े मां बाप से नहीं मिल पाता था। इसके अलावा
महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि मीसाबंदी परिवार में किसी की मृत्यु हो
जाने पर बंदी को तीन दिन का पेरोल देकर अंतिम संस्कार में शामिल होने की सुविधा दी
गई थी, लेकिन हकीकत कुछ
ओर थी। अक्सर, बंदी की जमानत और सालवेंसी के लिए अंडगा लगाया
जाता, जो सक्षम नहीं थे उनको पैरोल नहीं मिलती और इस कारण से वे अपने माता
पिता, भाई, पत्नि के अंतिम संस्कार तक में शामिल नहीं हो
पाते थे। वास्तव में यह मानवीय संवेदनाओं को झकझोरकर रख देने वाली स्थितियां थीं। आजादी
की लड़ाई के सेनानियों के लिए तो सजा तय होती थी मगर मीसा बंदियों की सजा तय नहीं
थी। आपातकाल के जरिए लोकतंत्र को समाप्त करने की कोशिश की गई थी मगर इस मंशा को
देश की जनता ने पूरा नहीं होने दिया।
डॉ.
मयंक चतुर्वेदी:- इस दौरान आपकी
पत्नि श्रीमती पटवा ने भी राजनीतिक आंदोलन किए थे
सुन्दर लाल पटवा: – वास्तव में आपातकाल के वक्त सबसे
ज्यादा कष्ट हम जैसे राजनैतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं की पत्नियों ने झेले। मेरी
पत्नि भारती के साहस की मैं आज भी दाद दूंगा। वह जब भी जेल में मिलने आतीं तो कहती
थीं कि आपसे मिलने के लिए पांव उछलकर चलते हैं और वापिस जाते समय यही पैर सवा मन
के हो जाते हैं। उन्होंने भी इस आपातकाल के दौरान एक आंदोलन का नैतृत्व किया था।
इस में मीसाबंदी परिवारों की महिलाएं मंदसौर में एकत्र होकर तानाशाही के
खिलाफ सड़कों पर जुलूस की शक्ल में निकलीं। जिला
प्रशासन ने भरसक कोशिश की कि यह जुलूस न
निकले। महिलाओं को हतोत्साहित करने के लिए सरकार की ओर से तमाम प्रयत्न हुए, यहां
तक प्रचारित किया गया कि जुलूस में भाग लेने वाली महिलाओं को गिरफ्तार
करके मीसा में बंद कर दिया जाएगा। लेकिन इसके बाद भी मेरी धर्मपत्नी ने महिलाओं के
जुलूस प्रदर्शन की अनिवार्यता को देखते हुए उसका नैतृत्व किया। इसके पूर्व उन्होंने कभी किसी राजनैतिक जुलूस
में हिस्सा नहीं लिया था।
मंदसौर के दशपुरकुंज गार्डन से जुलूस प्रारंभ हुआ। जिलेभर से एकत्र हुईं महिलाएं हाथ में तख्तियां
पकड़ी हुई थीं जिस पर लिखा था कि मीसाबंदी छोड़ दो, छोड़ दो,
इंदिरा तेरी तानाशाही नहीं चलेगी, नहीं
चलेगी। वास्तव में यह जुलूस आपातकाल के मुंह पर करारा
तमाचा था। जुलूस कलेक्ट्रेट पहुंचा। महिलाओं की ओर से हमारी श्रीमती ने कलेक्टर से
कहा कि पैरोल पर आने के लिए जमानत और सालवेंसी का अडंगा हटाएं। जिसे कि महिलाओं के
भारी आक्रोश को देखते हुए मंजूर कर लिया गया। इसके बाद मीसाबंदियों को व्यक्तिगत
मुचलके पर पैरोल मिलना शुरू होने लगा। आज इतिहास के आइने में देखें तो मध्यप्रदेश
में आपातकाल के साये में महिलाओं का यह प्रदर्शन अपने आप में पहली घटना थी,
बाद
में अनेक राज्यों में भी महिलाओं ने इस प्रकार के जुलूस, धरना, प्रदर्शन किए।
सुन्दर लाल पटवा:- मीसा के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के तरुण स्वयंसेवकों का उत्साह देखते ही बनता था। वे बेफिक्र होकर जेल में
शाखा लगाते थे और कबड्डी, खो खो,
बालीबॉल, बेडमिंटन
जैसे खेल खेलते थे । उनका बालपन हम सभी के लिए त्याग और सेवा का भाव जगाने वाला
तथा संघर्ष करते रहने की प्रेरणा देने वाला रहा। संघ के लोग मीसा में बंद लोगों के
परिवारवालों की छद्म नाम रखकर खाद्य सामग्री से लेकर स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने
तक एवं अन्य सभी प्रकार का सहयोग कर रहे थे। सही पूछिए तो संघ का योगदान संपूर्ण
आपातकाल के दौरान अति महत्वपूर्ण रहा है। संघ की उपस्थिति के कारण जेल के अंदर
हम जैसे लोग कुछ सीमा तक बेफिक्र थे,
हमें मालूम था कि संघ सभी
मीसाबंदियों के घरवालों की बाहर बराबर मदद कर रहा है, उनकी
चिंता कर रहा है।
डॉ.
मयंक चतुर्वेदी:– मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मीसा बंदियों के
लिए लोकनायक जयप्रकाश सम्मान निधि देने का जो प्रयास किया है, उसे
आप किस रूप में देखते हैं।
सुन्दर लाल पटवा:– शिवराज सिंह जी का यह बहुत अच्छा
निर्णय और कार्य है। वास्तव में यह तो लोकतंत्र की रक्षा के लिए किए गए संघर्ष
और त्याग की भावना का सम्मान है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का यह कदम अन्य राज्यों
को भी प्रेरणा देनेवाला है। आपातकाल के दौर में मीसा में बंद हुए अनेक
मीसाबंदियों के परिवार उजड़ गए, अनेक लोग आज इस दुनिया में नहीं हैं और
उस समय जो किशोर अवस्था में कदम रख रहे थे आज वे बुढ़ापे की दहलीज पर कई प्रकार की
शारीरिक एवं अन्य प्रकार की समस्याओं से घिरे हुए हैं। परेशानियों के इस दौर में
सरकार द्वारा दी जाने वाली सम्मान निधि निश्चित ही उनके अंधेरे जीवन में रोशनी ला
रही है।
धन्यवाद, श्री
पटवा जी आपने अपने कीमती वक्त में से कुछ समय निकालकर साक्षात्कार के लिए दिया।
डॉ मयंक धन्यवाद तुम्हारा भी है, जो
यहां आकर मेरी यादें ताजा कर दीं।
इन परिस्थितियों में लगता है आपातकाल
भारतीय संविधान में आपातकाल की घोषणा करने के लिए
कुछ विशेष परिस्थतियों का जिक्र है। जैसे कि देश पर बाहरी आक्रमण होने, आंतरिक
अशांति को खतरा, अथवा वित्तीय संकट की स्थति में आपातकाल की घोषणा
की जा सकती है। देश ने 1962 में चीन के साथ हुआ युद्ध और 1971 में पाकिस्तान के
साथ युद्ध के दौरान आपातकाल का दौर देखा था। इन दोनों समय में इसे लगाने का
मुख्यकारण "बाहरी आक्रमण" था।
25 जून 1975 की मध्यरात्रि से 21 मार्च 1977 के बीच जो आपातकाल का दौर देश ने देखा, वह
"आंतरिक अशांति" के करण अनुच्छेद 352 के अंतर्गत लगाया गया था।
यूं लगा आपातकाल
25 जून,
1975 की मध्यरात्रि को मंत्रिमंडल
की अनुशंसा पर राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी।
यद्यपि हकीकत यह है कि आपातकाल की घोषणा रेडियो पर पहले कर दी गई तथा बाद में सुबह
मंत्रिमंडल की बैठक के बाद उस पर राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर किए। यद्यपि संवैधानिक
प्रावधान यह है कि मंत्रिमंडल की बैठक के बाद उसकी अनुशंसा पर जब राष्ट्रपति
हस्ताक्षर कर देते हैं तब आपातकाल की घोषणा की जा सकती है।
आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक
अधिकार निलंबित कर दिए गए। 25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की
गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया। जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल
बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडीस आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल
दिया गया। जेलों में जगह नहीं बची। आपातकाल के बाद प्रशासन और पुलिस के द्वारा
भारी उत्पीड़न की कहानियां सामने आई। प्रेस पर भी सेसरशिप लगा दी गई। हर अखबार में
सेंसर अधिकारी बैठा दिया, उसकी अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था। यह दौर
23 जनवरी 1977 को मार्च महीने में चुनाव की घोषणा हो जाने के साथ ही थमा।
संक्षिप्त परिचय
नाम - सुन्दरलाल पटवा
पिता - श्री
मन्नालाल पटवा
जन्मतिथि - 11 नवम्बर,
1924
जन्म स्थान
- कुकड़ेश्वर
वैवाहिक स्थिति - विवाहित
शैक्षणिक योग्यता - इन्टरमीडिएट
व्यवसाय - कृषि
अभिरूचि
- खेलकूद, संगीत, सहकारिता, उद्योग
भाषाओं का ज्ञान - हिन्दी, अंग्रेजी
स्थायी
पता - कुकड़ेश्वर, जिला - मंदसौर
(म.प्र.)
सार्वजनिक एवं राजनैतिक जीवन का संक्षिप्त
विकास क्रम :
1941 से इन्दौर
राज्य प्रजा मण्डल एवं 1942 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध।
1947 से 1951 तक
संघ प्रचारक एवं 1948 से संघ आंदोलन में सात माह जेल यात्रा। 1951 से
जनसंघ के सक्रिय कार्यकर्ता। 1957 से 1967 तक विधान सभा
सदस्य एवं विरोधी दल के मुख्य सचेतक। 1967 से
1974 तक जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष. संचालक, राज्य सहकारी
बैंक एवं राज्य सहकारी विपणन संघ। प्रदेश जनसंघ के कोषाध्यक्ष। ब्रिटेन के 1974 के आम चुनावों
का अध्ययन तथा गणमान्य लोगों से भेंट। 1975
में म.प्र. जनसंघ के महामंत्री। 27
जून, 1975 से 28 जनवरी, 1977 तक आपातकाल में
मीसा में निरूद्ध। जनता पार्टी कार्य समिति के सदस्य। 1977 में विधान सभा सदस्य निर्वाचित होकर 20
जनवरी, 1980 से 17 फरवरी, 1980 तक प्रदेश के
मुख्यमंत्री। 1980 में सीहोर से
विधान सभा सदस्य निर्वाचित होकर भा.ज.पा. के नेता एवं सदन में विरोधी दल के नेता।
विधान सभा की विभिन्न समितियों के सदस्य तथा लोक लेखा समिति के सभापति। 1980 में तीन माह तक संयुक्त राज्य
अमेरिका का भ्रमण एवं राष्ट्रपति चुनाव का अनुभव प्राप्त किया। 1985
में पुन: विधान सभा सदस्य चुने गए तथा लोक लेखा समिति के सभापति एवं सामान्य
प्रयोजन समिति के सदस्य रहे। 1986 से
भा.ज.पा. के प्रदेशाध्यक्ष. वर्ष 1989 में हुए अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी
सम्मेलन के अवसर पर 'विधान गौरव' की उपाधि से सम्मानित।
सन्
1990 के विधान सभा चुनाव में सदस्य निर्वाचित एवं 5.3.1990 से
15.12.1992 तक मुख्यमंत्री रहे, 1993
में पुन: विधान सभा सदस्य निर्वाचित हुए।
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