सोमवार, 4 मई 2015

केंद्र क्यों नहीं कर रहा महंगाई रोकने के विकल्पों की तलाश?

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव में उछाल का रुझान है। जब से बाजार में तेल कीमतों में वृद्धि होना शुरू हुआ है, तभी से लगातार भारत में भी अंतरराष्ट्रीय मार्केट के भरोसे छोड़े जा चुके तेल दामों में कुछ समय के अंतराल के बाद वृद्धि की जा रही है। यहां समझ में यह बात नहीं आ रही कि जो सरकार सबका साथ और सबका विकास के नारे तथा एक बार मोदी सरकार के वायदे के साथ सत्ता में आई है, वह उन मूलभूत बातों को क्यों नहीं गंभीरता से ले रही, जिससे कि भारत में कुछ समय काबू में रहने के बाद तेजी से बढ़ रही महंगाई पर अंकुश लगाया जा सकता।




निश्चित तौर पर आज इसे कोई नहीं नकार सकता कि देश के विकास में तेल का महत्व कहीं से भी कमतर है, किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि देश की कुल पेट्रोलियम मांग पूरा करने के लिए लगभग 70 से 75 प्रतिशत तेल आयात करना पड़ता है, जिस पर बड़ी तादाद में बहुमूल्य विदेशी मुद्रा खर्च होती है। इस वजह से स्थिति कई बार इतनी भयावह हो जाती है कि कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में जब भी उछाल आता है, देश की अर्थव्यवस्था डगमगाने लगती है। लगता है कि हम भले ही अंग्रेजों से मुक्त हो गए हों, किंतु एक अलग तरह से तेल-दासता के युग में जी रहे हैं।

पेट्रोल कीमतों में सिर्फ अप्रैल में इसके भाव तकरीबन 25 फीसदी तक बढ़े हैं। वैश्विक बाजार में पेट्रोलियम की कीमत 59.90 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंची, जिसे हम पिछले पांच महीनों में सबसे ऊंचा स्तर कह सकते है। इसका स्वाभाविक प्रभाव घरेलू बाजार पर हुआ है। फिर पिछले कुछ दिनों से मुद्रा विनिमय बाजार में डॉलर दबाव में है।

चूंकि कच्चे तेल का ज्यादातर अंतरराष्ट्रीय कारोबार डॉलर में होता है, अत: डॉलर के सस्ता होने का सीधा मतलब पेट्रोलियम के दाम में इजाफा होना है। इसी समय ज्यादा तो नहीं, फिर भी डॉलर की तुलना में रुपया कमजोर पड़ा है। रुपए की कीमत गिरने से हर आयात महंगा हो जाता है। यानी पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत पुराने स्तर पर रहे, तब भी उन्हें देश में मंगाना महंगा हो जाता है। यह बातें ऐसा नहीं है कि सरकार नहीं जानती, किंतु हालात यह है कि पिछली कांग्रेस सरकारों की तरह भाजपा खासकर स्वदेशी पर बल देने वाले दल की सरकार ने भी देश की जनता को भगवान के भरोसे छोड़ दिया है, यही वस्तुत: आश्चर्य का विषय है।

अभी यमन संकट कितने दिनों और चलेगा, इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। ऐसे में निकट भविष्य में कच्चे तेल के भाव में बड़ी गिरावट की आशा नहीं है। हालांकि, यह सही है कि पिछले वर्ष अगस्त से लेकर इस साल फरवरी के बीच पेट्रोल के दाम में दस बार कटौती हुई। इस दौरान इसकी कीमत 17.11 रुपए प्रति लीटर घटी, जबकि पिछले अक्टूबर से इस वर्ष फरवरी तक डीजल के दाम में छह कटौतियां हुईं और यह 12.96 रुपए प्रति लीटर सस्ता हुआ। परन्तु इसका कारण भी सभी को विदित है। पेट्रोलियम का अंतरराष्ट्रीय बाजार बुरी तरह लुढक़ने से मई में कच्चा तेल 105 डॉलर प्रति बैरल था, जो एक समय 50 डॉलर से भी नीचे चला गया था। इससे उपभोक्ताओं और सरकारी खजाने दोनों को आंशिक लाभ हुआ, किंतु आज स्थिति हाथ से निकल रही है। अंतरराष्ट्रीय कीमतों के कारण सरकार भी अपने को असहाय मानती है, पर वह जो कुछ कर सकती है, वह भी नहीं कर रही है।

फिलहाल, पेट्रोलियम की मूल्यवृद्धि के दिन लौटते नजर आ रहे हैं, जिससे आम महंगाई बढऩे लगी है। खासकर डीजल महंगा होने का असर मारक होता है। आशंका है कि ताजा बढ़ोतरी से माल ढुलाई भाड़े में वृद्धि होगी और वहीं सार्वजनिक परिवहन पर भी इसका बोझ पडऩा तय माना जाए। इसके परिणामस्वरूप अभी से सब्जी, फल और दालें इत्यादि महंगी होना शुरू हो गया है, लेकिन सरकार के पास विकल्प होते हुए भी कोई हल नहीं है।

हां, पिछले साल सितम्बर तक जरूर कुछ सरकारी प्रयासों, कुछ भारतीय रिजर्व बैंक की सख्ती और कुछ संयोग का नतीजा रहा था कि महंगाई दर काबू में रही। सितम्बर में थोक भाव मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति दर पांच साल के सबसे निचले स्तर (2.38 प्रतिशत) पर आ गई थी। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) आधारित मुद्रास्फीति की दर 6.46 फीसदी पर पर आकर सिमट गई थी। उस वक्त महंगाई दर के आंकड़े आने पर वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसका श्रेय केंद्र के कदमों को दिया था। यह बात आंशिक रूप से सच भी है। एनडीए सरकार ने खुले बाजार में बिक्री के लिए अपने भंडार से चावल और गेहूं की ज्यादा खेप जारी की, उपज के खरीद मूल्य को नियंत्रित रखा और राज्यों को प्रोत्साहित किया कि वे फसलों के समर्थन या खरीद मूल्य में ज्यादा बढ़ोतरी न करें। जिसका प्रभाव खाद्य पदार्थों के भावों पर पड़ा था।

खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 7.67 प्रतिशत पर आ गई, जबकि यह और पहले यह 12 फीसद तक जा पहुंची थी। लेकिन इस साल क्या हुआ, महंगाई यमन संकट के तेज होने के साथ ही धीरे-धीरे बढऩे लगी है। वित्त मंत्री ने संसद में जो बजट रखा, उसमें बहुत कुछ ऐसा है, जिसकी सर्वत्र आलोचना हुई है। भले ही फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा इसे अच्छे दिनों की आशा के अनुरूप बताने वाला दर्शाने का प्रयास किया गया हो, किंतु सच यही लगता है कि कुछ महंगाई खुद सरकार ने अपने हाथों स्वीकार कर रखी है, जिसे देखते हुए कहा जा सकता है कि जिस तरह के आरोप पिछली सरकारों पर लगते रहे हैं, उससे अब मोदी सरकार भी बचने वाली नहीं है।

वस्तुत: आज देश के सामने तमाम ऐसे विकल्प मौजूद हैं, जिनका उपयोग करते हुए ना केवल देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत किया सकता है, बल्कि लम्बे समय तक महंगाई को भी काबू में रखा जाना संभव है। यहां यह बात याद आती है कि जब कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार में नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री डॉ. फारुक अब्दुल्ला ने लोकसभा में बताया था कि केंद्र सरकार पेट्रोल और डीजल के वैकल्पिक ईंधन के विकास पर काम कर रही है। अब्दुल्ला ने सतपाल महाराज के सवाल के लिखित जवाब में यह जानकारी देते हुए बताया था कि पेट्रोल और डीजल की आपूर्ति को पूरा करने की दृष्टि से बायो ईंधनों विशेष रूप से बायो इथेनॉल और बायो डीजल तथा हाइड्रोजन का उपयोग करने की संभावना का पता लगाने के लिए पहल की गई है। जिसमें कि दिसंबर 2009 में घोषित राष्ट्रीय बायो ईंधन नीति में वर्ष 2017 तक पेट्रोल के साथ बायो इथेनॉल और डीजल के साथ बायो डीजल के 20 फीसदी मिश्रण के लक्ष्य का प्रस्ताव किया गया है।
लेकिन, देखने में आज यह आ रहा है कि इस सरकार की ओर से इस प्रकार की कोई पहल की बात नहीं की जा रही, जो कि हमारी विदेशी तेल पर निर्भरता को कम कर सके। सरकार को देखना चाहिए कि प्राकृतिक संसाधनों के रूप में धनी हमारे देश में कई ऐसे विकल्प मौजूद हैं, जिन्हें अपनाकर तेल के आयात को सार्थक रूप से कम किया जा सकता है, इनमें सबसे प्रमुख और सबसे ज्यादा संभावना वाला विकल्प इथेनॉल है।

इथेनॉल एक तरह का अल्कोहल है, जिसे पेट्रोल में मिलाकर मोटर वाहनों में ईंधन की तरह उपयोग में लाया जा सकता है। इथेनॉल का उत्पादन मुख्य रूप से गन्ने से किया जाता है, जिसकी हमारे देश में प्रचुरता है। इथेनॉल को गन्ने के अलावा शर्करा वाली अन्य फसलों से भी तैयार किया जा सकता है जिससे कृषि और पर्यावरण दोनों को लाभ होगा। भारत सरकार ने 2002 में गजट अधिसूचना जारी करके देश के नौ राज्यों और चार केन्द्र शासित क्षेत्रों में एक जनवरी 2003 से पांच प्रतिशत इथेनॉल मिला कर पेट्रोल बेचने की मंजूरी दे दी थी। इसे धीरे-धीरे बढ़ाते हुए पूरे देश में दस प्रतिशत के स्तर तक ले जाना था, लेकिन अनेक नीतिगत और आर्थिक समस्याओं के कारण यह लक्ष्य अब तक पूरा नहीं हो पाया है।

इसकी संभावनाओं के बावजूद भारत अभी तक इथेनॉल उपयोग में कई छोटे देशों से पीछे है। जबकि ब्राजील में लगभग 40 प्रतिशत कारें सौ प्रतिशत इथेनॉल पर दौड़ रही हैं और बाकी मोटर वाहन 24 प्रतिशत इथेनॉल मिला पेट्रोल इस्तेमाल करते हैं। स्वीडन जैसे छोटे देश ने अपने यहां 1980 से ही इथेनॉल इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था, जिसके बलबूते उसने कच्चे तेल के आयात में लगभग 35 प्रतिशत की कटौती कर ली है। कनाडा भी आज इथेनॉल के इस्तेमाल पर सब्सिडी भी प्रदान कर रहा है।

इथेनॉल जैसा ही एक अन्य कारगर विकल्प बायोडीजल है। कुछ पौधों के बीजों में ऐसा तेल पाया जाता है जिसे भोजन के उपयोग में तो नहीं लाया जा सकता परन्तु इसे मोटर वाहनों में ईंधन की तरह सफलता से इस्तेमाल किया जा सकता है। इसे पेट्रो-डीजल में आसानी से मिलाया जाना संभव है या डीजल इंजन में अकेले भी प्रयोग में लाया जा सकता है। देश के रतनजोत या जोजोबा, करंज, नागचंपा और रबर जैसे अनेक पौधों में बायोडीजल की संभावना मौजूद है। यह पौधे जंगली और बंजर भूमि पर आसानी से उगते हैं और इसे किसी विशेष देखभाल की जरूरत भी नहीं पड़ती। कुछ वर्ष पूर्व योजना आयोग ने जोजोबा की खेती और बायोडीजल के उत्पादन के लिए एक व्यापक योजना तैयार की थी जिसमें बायोडीजल की खरीद का प्रावधान था और किसानों को आर्थिक सहायता देने की सुविधा भी थी,परन्तु यह महत्वाकांक्षी योजना अब तक अपने लागू होने की बाट जोह रही है।

पेट्रोलियम के विकल्पों में प्राकृतिक गैस या सीएनजी जाना-पहचाना नाम है, जिसकी लोकप्रियता और उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है। देश में प्राकृतिक गैस भंडारों की कोई कमी नहीं है। फिलहाल वर्तमान उत्पादन स्तर पर इतनी गैस मौजूद है कि वह देश की लगभग 30 वर्ष तक मांग पूरा कर सकती है। सीएनजी का उपयोग देश के लिए पर्यावरण के नजरिये से तो लाभकारी है ही, उपभोक्ता के नजरिये से भी कम कीमत के कारण आकर्षक है।


भारत सरकार ने हाइड्रोजन ऊर्जा के विकास और उपयोग को बढ़ावा देने के लिए समयबद्ध योजना तैयार की है जिस पर पूरी ईमानदारी के साथ आज अमल की जरूरत है। पेट्रोलियम के सभी विकल्पों पर मिशन के तौर पर आगे बढऩा होगा, साथ ही कार्बन उत्सर्जन को कम करना भी हमारा एक लक्ष्य होना चाहिए, तभी तेल-दासता से मुक्ति के द्वार खुलेंगे। इसके लिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है, जिसकी फिलहाल हमारे देश में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद भी कमी दिखाई दे रही है।

बुधवार, 21 जनवरी 2015

भारतीय व्यापार को चीन की चुनौती : डॉ. मयंक चतुर्वेदी



भारतीय जनता ने देश में भले ही स्थायी सरकार दे दी हो, लेकिन सरकार के बनने के बीत रहे छह माह के बाद भी कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे ऐसे हैं जिन पर भारत को ठोस समाधान की दरकार बनी हुई है। भारत अपनी नीतियों के कारण अभी भी व्यापार विस्तार को लेकर कई देशों के सामने पिछड़ा हुआ है। हम यदि समुची दुनिया की बात न करते हुए सिर्फ एशि‍या महाद्वीप की ही बात करें तो विशाल भू-भाग और अपार संभावना होने के बाद भी भारत व्यापार में चीन और रूस, जैसे बड़े देशों को छोड़ कर जापान, सिंगापुर, इज़रायल जैसे छोटे-छोटे देशों की तुलना में खराब प्रदर्शन कर रहा है।

एशि‍या के मान्य 48 देशों की सूची में भारत और चीन आज   क्षेत्रफल तथा जनसंख्या विस्तार में दुनिया के सबसे बड़े देश हैं। स्वाभाविक है विकास की संभावनाएं भी यहां अपार हैं। हमारे पड़ोसी देश जिसे आज दुनिया विश्व की सबसे तेजी से उभरती अर्थ व्यवस्था मान रही है वह चीन भले ही भौगोलिक विस्तार में भारत से ज्यादा होगा, लेकिन वह विविधता के मामलों में हमसे कई गुना पीछे है। इसके बाद भी चीन सामरिक और व्यापार की एशि‍यायी नीति तय करता हुए दिखाई देता है। वैश्विक नजरिए से देखें तो चीन ने अपने समर्थ‍ित संगठन एशि‍या प्रशांत आर्थ‍िक सहयोग (एपेक) के जरिए विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को आने वाले दिनों में निष्प्रभावी बनाने तथा अमेरिका को समर्थन देने वाले आर्थ‍िक संगठन ट्रांस पैसिफिक नेटवर्क (टीपीपी) को चुनौती देने की तैयारियां शुरू कर दी हैं।

वस्तुत: चीन ने इस समय एशि‍या में रूस को पछाड़ दिया है और वह अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी महाशक्ति बनने की और अग्रसर हो उठा है। लेकिन इन सब के बीच भारत कहीं नज़र नहीं आता। भले ही भारत में मोदी सरकार आ जाने के बाद कुछ परिवर्तन दिखाई देना शुरू हो गये हों। हमारे दूसरे देशों से लगातार के उनके विदेशी प्रवासों से कूटनीतिक और व्यापारिक स्तर पर संबंध मधुर हो रहे हैं, किंतु यह भी उतना ही सच है कि हम संबंध सुधारने के साथ विभन्न देशों में जाकर उनके उत्साह वर्धन करने में लग जाते हैं और चीन धीरे से अपने काम की बात करते हुए आर्थ‍िक मोर्चे पर आगे बढ़ जाता है। जब तक हमें पता चलता है कि चीन कूटनीतिक चाल चल गया तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

अर्थ बिना सब व्यर्थ है, यह दुनिया मानती हो या नहीं लेकिन विश्व का भारत ही एक ऐसा देश है, जहां धन की पूजा घर-घर लक्ष्मी के रूप में होती है। साथ में श्री सूक्त और लक्ष्मी सूक्त के पाठ होते हैं, किंतु व्यवहार में धन कमाने की कला अभी भी लगता है हमें चीन जैसे अर्थ और दिशा केंद्रित देशों से सीखने की जरूरत है। क्यों कि सिर्फ भारत से ही चीन अपना सामान बेचकर खरबों रूपए सालाना कमा रहा है। दोनों देशों के बीच 2013 में कुल व्यापार 65.88 अरब डॉलर का था। इस दौरान भारत ने चीन को 14.50 अरब डॉलर मूल्य का निर्यात किया, वहीं 51.37 अरब डॉलर का आयात किया।यही कारण रहा कि चीन के कारण हमारा व्यापार घाटा पिछले वित्त वर्ष में 2 हजार 22 अरब के करीब रहा है।अभी कुछ माह पहले तक भारत और चीन के बीच व्यापार अंतर 35 अरब डालर का है जो चीन के पक्ष में है। पिछले साल दोनों देशों के बीच कुल द्विपक्षीय व्यापार 66.4 अरब डालर रहा है।

वास्तव में देखा जाए तो एशि‍या में अकेले भारत का चीन के साथ करीब 925 अरब रुपए का निर्यात होता है जबकि आयात 3 हजार 14 अरब रुपए का है। यह आंकड़ा अपने आपने नज़ीर है कि भारत को चीन से कितना आर्थ‍िक लाभ है और उसे हमसे कितना है। भारत एक हजार अरब का आंकड़ा भी पार नहीं कर पा रहा है और चीन निरंतर तीन के अंक को पार करते हुए चार हजार अरब रुपए के कारोबार की तरफ बढ़ रहा है। इस कारण भारत का लगातार व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है। चीन से प्रतिदिन अरबों रुपए के प्रॉडक्ट मोबाइल फोन, लैपटॉप, सीडी, सीडी कवर, सेरामिक्स, ऑटो सीट कवर का आयात होता है। पिछले दो सालों में हर साल 78,000 करोड़ रुपए की कंज्यूमर सामग्री का आयात भारत में हुआ। इसमें 31,000 करोड़ रुपए की लागत के सिर्फ मोबाइल फोन ही आयात किए गए हैं। हालांकि जब चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग भारत आए थे उस समय द्विपक्षीय वार्ता के अंतर्गत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दानों देशों के बीच के व्यापार असंतुलन का मुद्दा उठाया था जिस पर भारत के बीच विशाल व्यापार असंतुलन को दूर करने के लिए चीन की ओर से भारतीय वस्तुओं तथा निवेश के लिए चीन का बजार उपलब्ध कराने का भरोसा दिलाया गया। लेकिन यहां भी चीन अपनी योजना को सफल बनाने में आर्थ‍िक मोर्चे पर कामयाब रहा। भारत में दो चीनी औद्योगिक पार्क तथा पांच साल में 20 अरब डॉलर के निवेश का वादा चीन ने भारत से किया। जिस पर अभी सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि चीन जहां पांच साल में 20 अरब डॉलर निवेश करेगा वहां हम भारतीय चीन का सामान खरीद करमुनाफे के तौर पर 200 अरब डालर उसकी झोली में डाल चुके होंगे।
वस्तुत: भारत की ओर से अभी जो आर्थ‍िक मोर्चे पर कमजोरी की सबसे बड़ी वजह सामने आती दिखाई दे रही है, वह है भारतीय उद्योगपतियों को सरकार से उस सीमा तक जाकर मदद नहीं मिलना, जितना कि चीन प्रशासन अपने व्यापारियों के हित में दूसरे देशों के साथ मिलकर समझौतों के स्तर पर करता रहा है। ड्रैगन अपनी फर्मों की खातिर हमेशा पूरी शक्ति झोंकते हुए उनके पीछे खड़ा होता आया है। ज‍बकि भारत के उद्यमियों के इंडिया इंक जैसे संगठन विदेश में ड्रैगन के दबदबे को तोड़ने के लिए अपनी सरकार से कई बार गुहार लगा चुके हैं।

चीन के प्रभाव के बारे में उद्योगपति सुनील मित्तल ने अपने अनुभव को साझा करते हुए एक बार बताया था कि वह विदेश में जहां भी गए उन्हें चीन के प्रभाव का सामना करना पड़ा। निवेश संभावनाओं की तलाश करते हुए श्रीलंका में जब उनकी कंपनी पहुंची तो वहां सरकार एक परियोजना के लिए दस करोड़ डॉलर के सहयोग की अपेक्षा कर रही थी। उन्होंने यह बात विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय में पहुंचाई, लेकिन कुछ नहीं हुआ। उसी के कुछ महीने बाद चीन एक अरब डॉलर का चेक लेकर श्रीलंका पहुंच गया, जिसके कारण चीनी कंपनियों को वहां उद्योग स्थापित करने में श्रीलंका सरकार से मदद मिली। चीन सरकार की अपने उद्योगपतियों को दिए जा रहे सहयोग के अलावा गूगल, फेसबुक, एप्पल जैसी अमेरिकी कंपनियों को अपनी सरकारों से जोरदार समर्थन मिलता है। किंतु भारत सरकार से इस प्रकार का कोई सहयोग अपने उद्योगपतियों को नहीं मिलता। विदेश में विस्तार के लिए भारतीय कंपनियों को नई सरकार से सक्रिय मदद की जरूरत है। चीन की चुनौती से निपटने के लिए उन्हें पूर्व में अपेक्षित सहयोग नहीं मिला पर अब यदि मिल जाए तब कहना होगा कि भारतीय उद्यमी भी अपनी आर्थ‍िक उड़ान से चीन को पीछे छोड़ सकते हैं।
modi in china
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग                      फोटो- साभार
आसियान और पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन का ताजा उदाहरण आज हमारे सामने है। आसियान में 10 देश ब्रुनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमा, फिलीपीन, सिंगापुर, थाईलैंड तथा वियतनाम हैं। आसियान सम्मेलन के कुछ ही दिन बाद क्या हुआ? म्यांमा के साथ संबंधों को मजबूती देते हुए चीन ने आठ अरब डालर के व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर किये। ली पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में भाग लेने म्यांमा गए थे। जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन देशों के प्रमुखों को यहां संबोधि‍त किया था उस समय सभी मोदी को मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे जिसमें हमारे प्रधानमंत्री ने यहां तक सुझाव दिया था कि भारत और आसियान, व्यापार में सुधार तथा उसे  सबके लिये फायदेमंद बनाने के लिये भारत-आसियान मुक्त व्यापार समझौतों की समीक्षा करें। जबकि चीन बिना शोर-शराबे के यहां सम्मेलन में आकर अपना काम कर गया। उसने अकेले म्यांमा से आठ अरब डालर के व्यापार करार कर लिए और हम वहां मनभावन भाषण देकर चले आए।

वस्तुत: यह जो चीन की आर्थ‍िक क्षेत्र में कार्य करने की शैली है, उसे देखकर कहीं न कहीं लगता है कि वर्तमान भारत को उससे बहुत कुछ सबक लेकर सीखने की जरूरत है। केवल विकास की चर्चाओं से अब काम नहीं चलने वाला, हमें धरातल पर भी चीन की तरह व्यवहारिक निर्णय और अन्य देशों के साथ अनुबंध करने होंगे, नहीं तो भारत की ओर से लाख कोशि‍शे कर ली जायें हम कभी व्यापार के मोर्चे पर चीन की चुनौती को नहीं तोड़ पाएंगे।