शुक्रवार, 1 जून 2018

किसानों की मतलब परस्‍ती पर क्‍यों नहीं उन्‍हें धिक्‍कारना चाहिए ? डॉ. मयंक चतुर्वेदी

कभी देश में अन्‍न कम पैदा हुआ करता था तब देश के तत्‍कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्‍त्रीजी ने जय जवान के साथ जय किसान का नारा देते हुए हर भारतीय को एक दिन का उपवास सप्‍ताह में करने का आग्रह किया था। देश ने उसे माना और हर भारतीय गर्व से सीमा पर देश की सुरक्षा के लिए अपना जीवन उत्‍सर्ग कर देनेवाले सैनिक के समान ही उत्‍साह और सम्‍मान के साथ प्रत्‍येक किसान को देश का गौरव मानकर उसके कर्म को लेकर नमन करने लगे थे, उसके बाद अपने समय में प्रधानमंत्री रहे अटलबिहारी वाजपेयी ने इस जयजवान-जयकिसान के नारे में जय विज्ञान को भी जोड़कर किसानों के जीवन में विज्ञान के महत्‍व का प्रतिपादन किया था लेकिन आज जो किसान देशभर में कर रहे हैं, उसे देखकर लगता है कि किसानों की इस मतलब परस्‍ती पर क्‍यों नहीं उन्‍हें धिक्‍कारा जाय ? 

ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि जिस देश में सभी बच्‍चों को पीने के लिए आवश्‍यक पौष्‍ट‍िक आहार उपलब्‍ध नहीं, दूध सभी बच्‍चों के लिए सुलभ नहीं है, देश में अब भी 60 सालों तक राज करनेवाली कांग्रेस कुपोषण को दूर नहीं कर सकी और पिछले 4 साल की मोदी सरकार से वह अपेक्षा कर रही है कि 60 सालों का जहर वह 4 साल में उतार दे और सब कुछ हरा-हरा हो जाए?  आज दुर्भाग्‍यपूर्ण है कि उस कांग्रेस की पहल तथा उसकी विकृत नीयत में आकर के देश के आम किसानों को बरगलाकर वह सब किया जा रहा है जोकि यह देश कभी देखना नहीं चाहता है । 

सयुंक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुपोषित लोगों की संख्या 19.07 करोड़ है। यह आंकड़ा दुनिया में सर्वाधिक है। देश में 15 से 49 वर्ष की 51.4 फीसदी महिलाओं में खून की कमी है। पांच वर्ष से कम उम्र के 38.4 फीसदी बच्चे अपनी आयु के मुताबिक कम लंबाई है। इक्कीस फीसदी का वजन अत्यधिक कम है। भोजन की कमी से हुई बीमारियों से देश में सालाना तीन हजार बच्चे दम तोड़ देते हैं। वैश्विक भूख सूचकांक में 118 देशों में भारत को 97वां स्थान मिला था। देश में बहुत से लोग भुखमरी के कगार पर रहते है। इसके बाद भी किसान आन्‍दोलन को लेकर देशभर से खबर यही आ रही हैं कि किसान कई हजार लीटर दूध सड़कों पर व्‍यर्थ बहा रहे हैं। दूध बहाने के इस कृत्‍य पर वे सभी तथाकथित महान आत्‍माएं चुप हैं जो शिवजी पर दूध चढ़ाने को पाखण्‍ड मानकर उसकी खिल्‍ली उड़ाती हैं किंतु यहां जो हो रहा है उसके लिए वह यह कहती नजर आती हैं कि यह तो किसानों की मांगें नहीं मानने पर उनका आक्रोश है। 

यह कैसा आक्रोश है? अपने देश वासियों को भूखा रख, उनके बच्‍चों के पेट का दूध सड़कों पर उढेलकर वह मोदी सरकार से मांग कर रहे हैं कि उनकी मांगे पूरी की जाएं? स्‍वामीनाथन की रिपोर्ट क्‍या हलुआ है जो चम्‍मच में भरा और गप कर गए? देश के हर बजट में किसान आज तक सबसे आगे रहता आया है, पहले कि सरकारें किसानों के हक को उन तक नहीं पहुंचाने में सफल रही होगी, ठीक है मान लिया । लेकिन अब की सरकार पर यह कैसे आरोप हैं? अगर इतना ही था तो किसानों की पिछली 60 सालों की कांग्रेस सरकारों के वक्‍त यह चुप्‍पी क्‍यों रही? आज राष्ट्रीय किसान महासंघ ने 130 संगठनों के साथ विरोध प्रदर्शन और हड़ताल का जो हंगामा देशभर के कई राज्‍यों में फैला रखा है, वह कहां तक जायज है? इस आन्‍दोलन की आड़ में आगरा में अपने वाहनों की फ्री आवाजाही कराने के लिए किसानों ने जिस तरह से टोल पर कब्जा किया और जमकर की तोड़फोड़ की, क्‍या उसे देखकर किसी को किसानों का सम्‍मान करना चाहिए?  

बर्नाला और संगरूर समेत पंजाब में कई जगह किसानों ने विरोध प्रदर्शन करते हुए सब्जियों और डेयरी प्रोडक्ट्स को बाहर सप्लाई करने से इनकार किया हुआ है? क्‍या यह उनका सीमा पर देशहित में एक जवान का अपने वतन के लिए सर्वस्‍व बलिदान कर देने की ललक की तरह लिया गया देशहित में किया फैसला है? पंजाब के फरीदकोट में किसानों का विरोध प्रदर्शन हो रहा है, यहां किसान सड़कों पर सब्जियां फेंक कर विरोध जता रहे हैं। इसी तरह से मंदसौर में भी देखा जा रहा है। भारतीय किसान यूनियन की किसानों से की गई अपील जिसमें कहा गया है कि हड़ताल के दौरान फल, फूल, सब्जी और अनाज को अपने घरों से बाहर न ले जाएं, और न ही वे शहरों से खरीदी करें और न गांवों में बिक्री करें, इसे आज कौन सही ठहरा सकता है?  

हम यह नहीं कहते कि लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार को किसानों की मांगों पर गौर नहीं करना चाहिए। उसे  स्वामीनाथन कमीशन द्वारा की गई अनुशंसाओं को लागू करने और कर्ज माफ करने समेत सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का भुगतान के वादे को पूरा करने की मांग को नहीं स्‍वीकारना चाहिए। लेकिन क्‍या इसी लोकतंत्र में उन्‍हें यह हक दिया जा सकता है कि वह सार्वजनिक सम्‍पत्‍त‍ि का आन्‍दोलन के नाम पर नुकसान करें? किसी की वैयक्‍तिक सम्‍पत्‍त‍ि में आग लगा दें? वास्‍तव में इस आन्‍दोलन के आगे बढ़ने के साथ जो सबसे बड़ा डर बना हुआ है वह यही है कि किसानों को राजनीतिक रोटियां सेंकनेवाले इतना न भड़का दें कि वे पिछले साल की तरह इस वर्ष फिर चलती बसों, सवारी वाहनों, पुलिस गाडि़यों और सार्वजनिक सम्‍पत्‍त‍ि को इस आन्‍दोलन के नाम की भीड़ के सहारे आग के हवाले करने में कामयाब हो जाएं? 

फिर से मंदसौर गोलीकांड की तरह 6 लोग बेकार में मारे जाएं और सरकार को फिर जो हिंसा का शिकार हो उसके परिवार को सांत्‍वना देने के लिए नौकरी के साथ एक-एक करोड़ रुपए देने का एलान न कर देना पड़े? कुल मिलाकर  किसान अन्‍नदाता है, मां-पिता और गुरु के बाद नहीं बल्‍कि पहले वह पेट की भूख को शांत करनेवाला एक मसीहा है, उसके बाद भी यह आन्‍दोलन के नाम पर उसका विकृत स्‍वरूप कहीं न कहीं हमारे विश्‍वास को तोड़ रहा है, जो किसी भी सूरत मे देश की सेहत के लिए उचित नहीं माना जा सकता है।, अब विचार आगे आपको करना है?  

शनिवार, 21 अप्रैल 2018

उच्‍चशिक्षा में भारत का विस्‍तार : डॉ मयंक चतुर्वेदी

भारत में इन दिनों जो स्‍थ‍ितियां बन पड़ी हैं, उसमें उच्‍च शिक्षा क्षेत्र के लिए अनेक अवसर उपलब्‍ध हैं। केंद्र सरकार द्वारा लगातार इस संबंध में किए जा रहे प्रयास और उसके अनुवर्तन में राज्‍य सरकारों द्वारा अपने यहां का हायर एजुकेशन मॉडल सुदृढ़ करने के लिए किए जा रहे प्रयत्‍नों के फलस्‍वरूप समूचे देश में एक बदला-बदला सा नजारा दिखाई दे रहा है। निश्‍चित तौर पर इसके लिए केंद्र की भाजपानीत मोदी सरकार को श्रेय दिया जा सकता है। वस्‍तुत: देखा जाए तो आज भारत का उच्च शिक्षा तंत्र विश्व का तीसरा सबसे बडा उच्च शिक्षा तंत्र है। स्‍वतंत्रता के बाद से देश के विश्वविद्यालयों की संख्या में 11.6 गुना, महाविद्यालयों में 12.5 गुना, विद्यार्थियों की संख्या में 60 गुना और शिक्षकों की संख्या में 25 गुना वृद्धि हुई है। सभी को उच्च शिक्षा के समान अवसर सुलभ कराने की नीति के अन्तर्गत सम्पूर्ण देश में महाविद्यालयों प्रयास निरंतर हो रहे हैं।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उच्‍चशिक्षा क्षेत्र में जो मानसिक परिवर्तन आया है, वह इस सोच का विकास है कि अब देश की तस्‍वीर बदलने के लिए हम सभी को प्रयत्‍न करने होंगे। यदि कोई साथ नहीं तो भी
‘एकला चलो रे’ की तर्ज पर हमें आगे बढ़ते रहना होगा, तभी इस दिशा में ठोस और क्रांतिकारी परिवर्तन दिखाई देंगे। वैसे देखा जाए तो भारत में कभी शिक्षा का निजीकरण नहीं होना था, किंतु कांग्रेस के लम्‍बे शासनकाल में यह दुखद हुआ कि वह कोई ऐसी नीति नहीं बना पाई कि देश में अपने भविष्‍य को गढ़ने की वह समान रूप से सरकारी पाठशाला तैयार कर पाती, जहां सभी को शिक्षा के समान और अधिकाधिक अवसर सुलभ हो सकते । ऐसे में वर्तमान सरकार को अपनी परंपरा से जो मिला है, उसे पूरी तरह से बदला तो नहीं जा सकता किंतु उसमें आवश्‍यक सुधार अवश्‍य ही किए जा सकते हैं।

निजीकरण का जो सबसे बड़ा देश में दुष्‍परिणाम है, वह यही है कि जिनके पास धन की कमी है या जो किन्‍हीं कारणों से निजी ‍शिक्षा संस्थानों में नहीं पढ़ सकते हैं, आखिर वे श्रेष्‍ठ शिक्षा प्राप्‍ति के लिए क्‍या करें?वस्‍तुत: आज उनके लिए कहना होगा‍ कि भारत सरकार का मानव संसाधान विभाग ऐसे सभी लोगों की चिंता कर रहा है। उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षा के स्तर को बेहतर बनाने और अनुसंधान की सुविधा उपलब्‍ध कराने के लिए सरकार ने विशेष ध्यान देते हुए अमेरिका, ब्रिटेन, इजराइल, नॉर्वे, न्यूजीलैंड जैसे देशों के साथ संयुक्त अनुसंधान कार्यक्रम बनाए हैं । इस प्रयास के माध्‍यम से योजना यही है कि शिक्षा संस्थानों के संकायों को उच्च स्तरीय बनाए जा सके, शिक्षकों को अनुसंधान करने का अवसर मिले और विश्व स्तरीय उपकरणों और सुविधाओं के लिए अंतर-विश्वविद्यालय केंद्रों की स्थापना की जा सके।

देश में मोदी गवर्नमेंट ने आज उच्‍चशिक्षा क्षेत्र में जो नए प्रयोग शुरू किए हैं, उनसे यही देखने में आ रहा है कि वह भारत की ज्ञान परंपरा के विस्‍तार में एक नया अध्‍याय लिख रहे हैं। ऐसी ही एक योजना, उच्चतर आविष्कार योजना (यूएवाई) आज आरंभ हुई है । इस यूएवाई योजना का उद्देश्‍य आईआईटी संस्‍थानों में नए आविष्‍कारों को बढ़ावा देना है, ताकि विनिर्माण उद्योगों की समस्‍याओं को हल किया जा सके। आविष्‍कार करने वाली मानसिकता को प्रोत्‍साहन मिले, शिक्षा जगत और उद्योग के बीच समन्‍वय लाया जा सके तथा प्रयोगशालाओं और अनुसंधान सुविधाओं को सुदृढ़ किया जा सके।

ऐसे ही एक अन्‍य प्रयास मोदी सरकार का उच्‍चशिक्षा के क्षेत्र में है अनुसंधान, नवोन्‍मेष और प्रौद्योगिकी पर प्रभाव (आईएमपीआरआईएनटी), यानि की समाज से जुड़े क्षेत्रों की पहचान करना है, जिसमें नवोन्‍मेष व वैज्ञानिक अनुसंधान की आवश्‍यकता है। इस योजना का उद्देश्‍य इन क्षेत्रों में अनुसंधान के लिए बड़ी धनराशि की उपलब्‍धता सुनिश्चित करना है।

अनुसंधान कार्यों के परिणाम से ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लोगों के जीवन स्‍तर में सुधार सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इस योजना के तहत आने वाले प्रस्‍तावों के लिए 50 प्रतिशत की धनराशि गृह मंत्रालय द्वारा तथा शेष 50 प्रतिशत धनराशि संबंधित मंत्रालय, विभाग, उद्योग या गैर-गृह मंत्रालय स्रोत से उपलब्‍ध कराई जा रही है।

आज केंद्र सरकार आईआईटी संस्‍थानों में अनुसंधान पार्कों की स्‍थापना करने जा रही है। इस कार्य के लिए सरकार ने आईआईटी दिल्‍ली, आईआईटी गुवाहाटी, आईआईटी कानपुर, आईआईटी हैदराबाद और आईआईएससी बंगलुरू में पांच नए अनुसंधान पार्कों के निर्माण की मंजूरी दे दी है। प्रत्‍येक अनुसंधान पार्क के निर्माण के लिए 75 करोड़ रूपये की धनराशि स्‍वीकृत की गई है। आईआईटी मुंबई और आईआईटी खड़गपुर में कार्यरत दो अनुसंधान पार्कों को चालू रखने के लिए 100 करोड़ रूपये की धनराशि स्‍वीकृत की गई है। दूसरी ओर इससे जुड़े विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग ने आईआईटी गांधीनगर के अनुसंधान पार्क के लिए 90 करोड़ रूपये की धनराशि आवंटित की है।

सरकार का एक प्रयास इस दिशा में गुणवत्‍ता सुधार कार्यक्रम (क्‍यूआईपी) भी है, इसके अंतर्गत डिग्री और डिप्लोमा स्‍तर के संस्‍थानों के संकाय सदस्‍यों की विशेषज्ञता को बेहतर बनाने और क्षमता निर्माण करने के लिए इन दिनों कार्य किया जा रहा है। साथ में एक मार्गदर्शन योजना का आरंभ भी मोदी सरकार में हुआ है, जिसके तहत प्रतिष्ठित संस्‍थान के अंतर्गत एक हब बनाना, जो प्रौद्योगिकी संस्‍थानों के मध्‍य समन्‍वय स्‍थापित कर सके विशेष रूप से शामिल है।

उच्‍च शिक्षा संस्‍थानों को विश्‍वस्‍तरीय शिक्षण व अनुसंधान संस्‍थानों के रूप में परिवर्तित करने के लिए जो एक अधिसूचना जारी की गई है, उसके अनुसार सरकार चयनित विश्‍वविद्यालयों एवं अन्‍य शिक्षा संस्‍थानों को पांच वर्षों की अवधि में 1000 करोड़ रूपये उपलब्‍ध कराने जा रही है, ताकि वे विश्‍वस्‍तरीय विश्‍वविद्यालय के रूप में विकसित हो सकें। देश में ऑनलाइन शिक्षा प्‍लेटफॉर्म ‘स्‍वयं’ लांच किया जा चुका है । इस प्‍लेटफॉर्म के माध्‍यम से शिक्षण-प्रशिक्षण, स्‍नातक और स्‍नातकोत्‍तर विषयों की पढ़ाई देश में किसी भी कोने में रहकर आसानी से की जा सकती है।

अत: अंत में यही कहना होगा कि भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था में अभी बहुत कुछ सुधार किया जाना बाकी है। गुणवत्ता में हमारे विश्वविद्यालय दुनिया के टॉप- 200 की संख्‍या में भी शामिल नहीं हैं। विद्यालय स्‍तर की पढ़ाई पूरी करने वाले नौ छात्रों में से एक ही कॉलेज पहुँच रहा है। भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम है। वहीं दूसरी ओर देश के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का शिक्षा स्तर बहुत कमज़ोर है। शोध के क्षेत्र में भी अभी भारत बहुत पीछे है। दुनिया भर में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हुए शोध में से सिर्फ़ 3 फ़ीसदी शोध पत्र ही भारत के उच्‍चशिक्षा क्षेत्र में प्रकाशित हो पा रहे हैं। इन सभी विसंगतियों के बीच कहना होगा कि केंद्र की मोदी सरकार के उच्चशिक्षा क्षेत्र को सबल बनाने के प्रयास निश्‍चित ही आनेवाले दिनों में उच्‍चशिक्षा के क्षेत्र में भारत की तस्‍वीर बदलकर रख देंगे।

गुरुवार, 8 मार्च 2018

# अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस और हम

महिला अर्थात् नारी, स्‍त्री, औरत और न जाने ऐसे अनेक नाम जिनसे उसे पुकारा जाता है । यह मानव की ही नहीं अपितु मानवता की भी जन्मदात्री है, क्योंकि मानवता के आधार रूप में प्रतिष्ठित सम्पूर्ण गुणों की वही जननी है। इसलिए ही भारत वर्ष में सनातन संस्‍कृति और हिन्‍दू धर्म में उसे धर्म को धारण करनेवाली अधिष्‍ठात्री कहा गया और माना गया है।  हम भारतवासी वंदन में सबसे पहले उपनिषदों के माध्‍यम से मातृ देवो भव कहते हैं। वह स्‍त्री जो बालक को ज्ञान का प्रकाश पुंज सबसे पहले देती है, वह देवों में पहले वंदनीय होकर मातृ देव है। 

भारतीय संस्कृति में स्त्री की भूमिका पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक सम्माननीय मानी गई है।  हमारे आदि-ग्रंथों में नारी को गुरुतर मानते हुए यहाँ तक घोषित किया गया है – यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमंते तत्र देवता,  अर्थात जहाँ नारियों की पूजा की जाती है वहां देवता निवास करते है अथवा गृहणी गृहमित्याहू न गृह गृहमुक्यते।   इसकी अभिव्यक्ति कालिदास करते हैं कि -वागार्थविव संप्रक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये। जगतः पि‍तरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ ॥ (कुमार संभवम) जगत के माता-पिता (पि‍तर) भवानी शंकर, वाणी और अर्थ के सदृश एकीभूत है उन्हें वंदन। भारतीय संत परंपरा में संत ज्ञानेश्वर स्वयं को “माऊली’’ (मातृत्व,स्त्रीवत) कहकर संबोधित करते हैं।

महिलाएं भारतीय संस्कृति की संवाहक हैं। भारतीय सांस्कृतिक विरासत को बेटी, बहू और मां के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करती हैं। हमारी संस्कृति ने कभी महिला को वस्तु नहीं मानती।एक घर की महिला ही सबकी चिंता करती है, औरों की ख़ुशी में ही खुद खुश होकर रहना यही उसका आदर्श है, इसीलिए ही हमने महिला को देवी के रूप में देखा है। 

हिन्‍दी के महान साहित्‍यकार प्रसाद के इन शब्‍दों से भारतीय संस्‍कृति में किसी भी महिला के महत्‍व को समझा जा सकता है... 

नारी जीवन का चित्र यही
क्या विकल रंग भर देती है।
स्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती है।।

महिला दिवस पर देश की समस्‍त स्‍त्री शक्‍ति एवं मातृ शक्‍ति को हार्दिक शुभकामनाएं एवं वंदन....





बुधवार, 7 मार्च 2018

केंद्र की नीति से मर जायेंगे लघु उद्योग



डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारतीय अर्थ व्‍यवस्‍था ग्राम्‍य प्रधान है और यहां आरंभ से ही छोटे उद्योग अर्थव्‍यवस्‍था में प्रमुख स्‍थान रखते आ रहे हैं। इसीलिए ऋग्‍वेदकालीन समाज-व्यवस्‍था से लेकर भारत के वर्तमान तक इस इकाई का अपना एक श्रेष्‍ठ स्‍थान बना हुआ है। राजशाही के बाद लोकतंत्र शासन व्‍यवस्‍था में सरकारें आती रहीं किन्‍तु किसी ने भी छोटे व मध्‍यम श्रेणी के उद्योगों को लेकर वह नीति नहीं बनाई, जिससे कि उसका नाश हो जाए। अंग्रेजों ने अवश्‍य यह प्रयास किया था किंतु तब भारतीयों ने जिस समवेत स्‍वर में विदेशी सामान की होली जलाकर, धरना प्रदर्शन एवं अन्‍य आन्‍दोलनों के माध्‍यम से विरोध किया तो मजबूरन ब्रिटिश सरकार भी आगे उद्योग नीति में बहुत बड़े बदलाव लेकर आई थी, जिन्‍हें इतिहास में आज भी कर सुधार एवं उद्योग संवर्द्धन नीति के नाम से जाना जाता है। 

स्‍वतंत्र भारत में भी जब कांग्रेस या अन्‍य सरकारों ने छोटे उद्योगों के विरोध में जाकर यदि नीति बनाने का प्रयास किया तब भनक लगते ही कई ट्रेड यूनियनें, लघु उद्योग भारती एवं मजदूर संघ जैसे संगठन खुलकर सरकार के विरोध में सड़कों पर उतर आए, परिणामस्‍वरूप नीतियां भले ही बनती रहीं, किंतु बिना छोटे एवं मध्‍यम उद्योग समूह तथा संगठन के विचार के वे कभी भी व्‍यवहार में नहीं लाई गईं। इस सब के बीच वस्‍तुत: आज परिदृश्य बदला हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के सर्वमान्‍य नेता होने के साथ ही एक वैश्‍विक नेता हैं। उनकी चिंताएं भी भारतीयता के साथ वैश्‍विक हैं। स्‍वाभाविक है कि जब ऐसा कोई नेता अपने देश के विकास की योजनाएं बनाए तब वह भारतीय पक्ष को ध्‍यान में रखने के बाद भी अनजाने में भूल कर सकता है। 

वस्‍तुत: छोटे उद्योगों के संदर्भ में यही बात आज उभरकर आ रही है कि मोदी सरकार इन्‍हें लेकर गंभीर चिंतन नहीं कर रही। जबकि एनडीए के अटलबिहारी वाजपेयी शासनकाल में बने लघु उद्योग मंत्रालय में गठन के समय इस बात को प्रमुखता से रखा गया था कि छोटे कार्य करनेवाले सूक्ष्‍म और लघु उद्योगों के विकास और विस्‍तार पर सरकार फोकस करे। 12 फरवरी 1999 को वाजपेयी सरकार ने तब की परिभाषा के अनुसार 3 करोड़ लागत वाले उद्योगों को लघु उद्योग की श्रेणी में रखा तथा बाद में छोटे व्‍यापारियों से बातचीत कर इसे घटाकर राशि 1 करोड़ लागत कर दिया था। यूपीए सरकार ने फिर इसे बढ़ाकर 5 करोड़ किया, किंतु 2006 में मध्‍यम उद्योगों को जोड़कर इसे सूक्ष्‍म, लघु एवं मध्‍यम उद्योग मंत्रालय भी बनाया। यहां तक भी सब कुछ सही चला, लेकिन जब 2014 में मोदी सरकार आई तो उसने सूक्ष्‍म उद्योग की राशि 25 से 50 लाख, लघु उद्योग 5 से 10 करोड़ और मध्‍यम उद्योग को 10 से 30 करोड़ प्रतिवर्ष के टर्नओवर होने के साथ परिभाषित किया, किंतु लघु उद्योग भारती जैसे संगठनों के प्रयासों के कारण यह अमल में अब तक नहीं लाया गया था। 

इसके बाद 7 फरवरी 2018 को केंद्रीय मंत्रिमण्‍डल ने फिर से इसमें जो परिवर्तन करने को मंजूरी दी है, यही वह निर्णय है जिसे देखते हुए कहा जा रहा है कि मोदी सरकार लघु उद्योगों को कमजोर करने की नीति तय कर चुकी है। इसके अनुसार 5 करोड़ की वार्ष‍िक आय वाले उद्योग सूक्ष्‍म, 5 से 75 करोड़ आय के कारोबारी उद्योग लघु और 75 से 250 करोड़ तक वार्ष‍िक कारोबारी उद्योग मध्‍यम उद्योग कहलाएंगे। इसे संबंधित विभाग नोटिफिकेशन द्वारा तीन गुना तक भी बढ़ा सकता है। इस तरह संसद में बिल लाने की आवश्‍यकता भी समाप्‍त कर दी गई है। वस्‍तुत: खतरा यहीं है। कहीं ऐसा न हो कि इस बढ़े हुए स्‍लैब से पूरे सूक्ष्‍म, लघु और मध्‍यम उद्योगों का ढांचा ही बदल जाए। 

अव्‍वल तो यह कि सूक्ष्‍म में लिए 5 करोड़ तथा मध्‍यम उद्योगों के लिए तय की गई 75 करोड़ वार्ष‍िक टर्नओवर की राशि इतनी अधिक है कि नियमों के फेर में कई छोटे उद्योग बर्बाद हो जाएंगे। अपने स्‍तर पर वह कार्य नहीं कर पाएंगे, जिसका परिणाम यह होगा कि देश के उद्योग-धंधे खासतौर से स्‍थानीय स्‍तर पर बढ़ने की जगह सिमटने लगेंगे और उनके स्‍थान पर बड़ी पूंजीवालों का वर्चस्‍व दिखने लगेगा। यदि कोई बहुराष्‍ट्रीय कंपनी लघु उद्योग में रजिस्‍ट्रेशन कराकर 1 से 5 करोड़ की पूंजी लगाकर तथा अलग-अलग नामों से जीएसटी नंबर लेकर बाजार पर कब्‍जा करना चाहेगी तो इस व्‍यवस्‍था से उसे आसानी होगी। पुरानी व्‍यवस्‍था में मशीनरी में निवेश आवश्‍यक था तो नई नीति से कोई भी बाहर से आयात कर यहां सामान असेम्‍बल कर उस पर मेक इन इंडिया के नाम का उपयोग करके बेच सकता है। कहना होगा कि वास्‍तव में वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूटीओ) और विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के कारण से जो खतरे नहीं, उससे कहीं अधिक खतरा केंद्र के इस निर्णय से कम पूंजी के घरेलू उद्योगों पर आज आ खड़ा हुआ है। 

इस व्‍यवस्‍था का सच यही है कि इससे उत्‍पादन घटेगा, कामगारों की संख्‍या घटेगी, मशीन से अधिक काम होगा और इसके कारण ट्रेडिंग गतिविधियां बढ़ेंगी। कुल मिलाकर यह देश के न तो परंपरागत उद्योग के लिए लाभदायक है और न ही सूक्ष्‍म, लघु और मध्‍यम उद्योग के हित में है। वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य में यह आवश्‍यक हो गया है कि मोदी सरकार जिसका लक्ष्‍य वर्षभर में लाखो बेरोजगारों को रोजगार देना भी है, वह अपनी बनाई इस फरवरी 2018 की नीति पर पुनर्विचार करे।


मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

भारत, जनसंख्‍या और दुष्‍परिणाम : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारत में जनसंख्या अभी 121 करोड़ पहुंच चुकी है और इसका निरंतर यहां तेजी से बढ़ने का क्रम जारी है। आगे यदि यह इसी तरह बढ़ती रही तो शीघ्र ही देश की जनसंख्‍या 150 करोड़ और फिर 200 करोड़ पर पहुंच जाएगी। खतरा आगे इसी बढ़ती जनसंख्‍या के आंकड़े से है। वस्‍तुत: जब किसी भी देश की जनसंख्‍या उसके आवश्‍यक संसाधनों की पूर्ति के समर्थन में हो तो वह उस देश के लिए लाभकारी होती है, किेंतु जब वही जनसंख्‍या मांग और पूर्ति से आगे होकर अपना विकराल रूप धारण करले तो वह उस देश के लिए मुख्‍य मानवसंसाधन का केंद्र न रहकर वहां के लिए अभिशाप बन जाती है।

वैसे देखाजाए तो भारत की वर्तमान ताकत उसका युवा मानव संसाधन का होना है। किंतु इसी के साथ जो सबसे बड़ा सवाल है, क्‍या हमारे पास अपनी बढ़ती युवा जनसंख्‍या के लिए पर्याप्‍त रोजगार और उनको एक विकासपरक जीवन दे सकने के लिए आवश्‍यक पर्यावरणीय संसाधन हैं? निश्‍च‍ित तौर पर इसका जवाब नहीं है। भारत के कई लाख युवा आज दुनिया के अनेक देशों में कार्य कर रहे हैं और वे वहां अपने जीवन की मूलभूत आवश्‍यकताओं को पूरा करने के साथ भारत में भी निरंतर विदेशी पूंजी का प्रवाह बनाए हुए हैं। जिससे कारण कहना होगा कि देश की अर्थव्‍यवस्‍था को उनसे पर्याप्‍त ताकत मिल रही है। 

वहीं दूसरी तरफ जो तस्‍वीर भारत में युवाओं की है उसके कारण जो स्‍थ‍ितियां निर्मित हो रही हैं, उसको यदि देखें तो यहां युवाओं की संख्या 24 करोड़ 30 लाख से ज़्यादा है, अपनी इतनी बड़ी जनसंख्‍या के लिए आज न तो केंद्र सरकार के पास पर्याप्‍त रोजगार है और न ही किसी राज्‍य सरकार के पास इन युवाओं की क्षमताओं का भरपूर उपयोग कर लेने की कोई ठोस योजना है। केंद्र सरकार का एक आंकड़ा बताता है कि देश की आबादी के लगभग 11 फीसदी अर्थात् 12 करोड़ लोगों को नौकरियों की तलाश है। इन बेरोजगारों में 25 फीसदी 20 से 24 आयुवर्ग के हैं, जबकि 25 से 29 वर्ष की उम्र वाले युवकों की तादाद 17 फीसदी है।  20 साल से ज्यादा उम्र के 14.30 करोड़ युवाओं को नौकरी की तलाश है। इसमें भी 12वीं तक पढ़े युवाओं की तादाद लगभग 2.70 करोड़ है, जिन्‍हें रोजगार की तलाश है। तकनीकी शिक्षा हासिल करने वाले 16 फीसदी युवा भी बेरोजागारों की कतार में हैं, यानी की तकनीकि दक्षता प्राप्‍त कर लेना भी रोजगार मिलने की गारंटी नहीं है। 

इन आंकड़ों से साफ है कि देश में युवाओं की तादाद के अनुपात में नौकरियां नहीं हैं। दूसरी ओर देश में यह दृष्‍य आम है कि नौकरियां पैदा करने के लिए केंद्र की मोदी सरकार के साथ ही सभी राज्‍य सरकारें अपने स्‍तर पर कौशल विकास और लघु उद्योगों को बढ़ावा दे रही हैं, लेकिन इसके बावजूद देश से बेरोजगारी की मुक्‍ति का कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ रहा। इस अनियंत्रित हो रही जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए कड़े उपाय, नीति व कानून लागू करने की मांग करते हुए हाल में सुप्रीम कोर्ट में तीन जनहित याचिकाएं भी दाखिल हुई हैं। 

याचिकाओं में कहा गया है कि सरकार को एक ऐसी नीति बनाने का आदेश दिया जाए जिसमें दो बच्चों की नीति अपनाने वालों को प्रोत्साहन और नीति का उल्लंघन करने वालों को उचित दंड देने की व्यवस्था हो।
उच्‍चतम न्‍यायालय में याचिकाएं दाखिल करनेवालों ने जनसंख्या से देश की प्रगति, संसाधन और विकास पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को बताते हुए इसे नियंत्रित करने के लिए प्रभावी नीतिगत उपाय किये जाने की जरूरत बताई है। साथ में यह भी बताया है कि कैसे जनसंख्या वृद्धि का बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, खराब सेहत, अर्थव्यवस्था, पर्यावरण पर असर पड़ रहा है क्योंकि जनसंख्या के अनुपात में संसाधन सीमित हैं। 

यहां कहा गया है कि जनसंख्या वृद्धि पर रोक सिर्फ कड़े नीतिगत उपायों से ही संभव है। याचिकाओं में मांग की गई है कि कोर्ट सरकार को जनसंख्या नियंत्रण के लिए एक ऐसी नीति बनाने का आदेश दे जिसमें दो बच्चों की नीति अपनाने वाले परिवारों को प्रोत्साहन और उसका उल्लंघन करने वालों को उचित दंड की व्यवस्था हो याचिकाकर्ताओं के कुलमिलाकर करने का अर्थ यही है कि जनसंख्या विस्फोट से देश का सारा विकास गड़बड़ा गया है। इसे तुरंत ठीक किया जाए। इसके बावजूद प्रश्‍न यही है कि क्‍या यह जनसंख्‍या विस्‍फोट सरकार के या न्‍यायालय के हस्‍तक्षेप के बाद बने नियमों से रुक सकता है? कहना होगा नहीं । आज देश में जनसंख्‍या वृद्धि‍के जो महत्‍वपूर्ण कारण हैं, उनमें अशिक्षा तो है ही साथ में कुछ धार्मिक कारण भी जिम्‍मेदार हैं। 

इसके अतिरिक्‍त भारत की जनसंख्‍या बढ़ाने में विदेशी घुसपैठियों का भी बहुत बड़ा योगदान है।  देश में आज भी परिवार नियोजन के कार्यक्रमों को इस्लाम विरोधी बताया जाता है। ऐसा कहनेवालों का मत है कि महिलाएं बच्चा पैदा करने के लिए ही होती हैं। मुस्लिम परिवार गर्भ निरोधक का इस्तेमाल बंद करें और ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे पैदा करें।

वस्‍तुत: इससे देश में पिछले दिनों में हुआ यह है कि एक हिन्दू महिला की तुलना में मुस्लिम महिला 1.1 अधिक बच्चों को जन्म देती है। केवल दिल्ली में ही मुसलमानों की जनसंख्या साढ़े दस गुना बढ़ी है।  हरियाणा में यह तीन गुना बढ़ी है। कोलकाता में मुसलमान 18 प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं। असम के कुछ भागों में मुस्लिम संख्या 31.8 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ रही है।

स्वतंत्रता से पूर्व मुस्लिम जन्म दर 10 प्रतिशत थी जो अब 25 प्रतिशत से अधिक हो गई है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार शहरी क्षेत्र में हिन्दू जनसंख्या 26 प्रतिशत तो मुस्लिम जनसंख्या 36 प्रतिशत की दर से बढ़ी है जबकि उनकी मृत्यु दर हिन्दुओं की तुलना में कम है। एच.एफ.एच.एस. के आंकड़े बतलाते हैं कि हिन्दुओं की मृत्यु दर 9.6 प्रतिशत है तो मुस्लिम की 8.9 प्रतिशत।

बात यहां केवल हिन्‍दू मुस्‍लिम या अन्‍य किसी धर्म की नहीं है। विषय यह है कि जनसंख्‍या पर कैसे नियंत्रण किया जा सके। केंद्र और राज्‍य सरकारें जनसंख्‍या नियंत्रण के लिए कई वर्षों से जनजागरण के प्रयास कर रही हैं। पहले हम दो हमारे तीन से होते हुए, हम दो हमारे दो पर आकर अब बच्‍चा एक ही अच्‍छा के स्‍लोगन पर सरकार का जनसंख्‍या नियंत्रण कैंपेन चल रहा है। सरकार इससे आगे, ‘नहीं चाहिए हम को बच्‍चा’ पर चाहकर भी नहीं जा सकती है।

वस्‍तुत: ऐसे में समाज को ही आगे आकर इस विकराल हो चुकी जनसंख्‍या को काबू में करना होगा। प्रकृति के संसाधन सीमित हैं उन्‍हें असीमित नहीं किया जा सकता जबकि बढ़ती जनसंख्‍या संसाधनों पर भारी बोझ है।
वास्‍तव में बच्‍चे भगवान की देन और अल्‍लाह की नेमत हैं, इस सोच से ऊपर जब भारतीय समुदाय उठेगा तभी भारत में जनसंख्‍या की बड़ती समस्‍या से समाधान की ओर बढ़ा जा सकता है।


शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

राममंदिर ,कट्टरता, और मुस्‍लिम पर्सनल लॉ बोर्ड : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

दो वि‍द्वान, दोनों ही इस्‍लाम के उम्‍दा जानकार । दोनों का एक विषय पर स्‍वर भी एक कि उन्‍हें कभी हिन्‍दुओं से कोई दिक्‍कत नहीं हुई। हिन्‍दुओं ने हमेशा इज्‍जत और प्‍यार दिया है। पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्‍यक्ष मौलाना कल्‍बे सादिक और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सुलह का फार्मूला देने वाले मौलाना सैयद सलमान हुसैनी नदवी आज दोनों ही यह बात सार्वजनिक रूप से स्‍वीकार्य कर रहे हैं। कहने को लोग कह सकते हैं कि ये दोनों न्‍यायालय के बाहर से राममंदिर निर्माण का रास्‍ता सुझाने के लिए अब तक लगातार प्रयास करते हुए अपने मुस्‍लिम भाईयों के बीच इस बात की सहमति बनाने के लिए प्रयास करते रहे हैं कि भगवान राम का भव्‍य मंदिर यदि विवादास्‍पद स्‍थान पर बन जाता है तो उसमें हर्ज ही क्‍या है? लेकिन इस्‍लाम के अपने नियम और कानून है, जिसके ऊपर कोई नहीं।

हमने अभी हाल ही में देखा और समझा भी कि किस तरह से एआईएमआईएम प्रमुख और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य असदुद्दीन ओवैसी ने सीधे शब्‍दों में एक टूक बताया कि अयोध्या मुद्दे पर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है। बाबरी मस्जिद के बारे में, यह स्पष्ट रूप से समझ लिया जाए कि एक बार जब मस्जिद बन जाती है तो अनंतकाल तक यह मस्जिद रहती है। विवादित भूमि पर कोई समझौता नहीं होगा। मस्जिद मुद्दे पर समझौता करने वाले लोग अल्ला के सामने जवाबदेह होंगे। अंतत: ओवैसी जो कहते हैं, उनके इस विचार की जीत भी हुई, इस विवाद का सार्थक हल सुझाने के लिए प्रयासरत थे वे मौलाना सैयद सलमान हुसैनी नदवी को आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बाहर का रास्‍ता दिखा दिया। नदवी एक्जिक्यूटिव मेंबर के पद से बर्खास्त कर दिए गए और बोर्ड ने अपनी 26वीं सालाना बैठक में अपना पुराना रुख दोहराते हुए कहा कि बाबरी मस्जिद हमेशा मस्जिद ही रहेगी। मुसलमान उस मस्जिद के बदले कहीं और जमीन नहीं ले सकते हैं। मस्जिद को न तो गिफ्ट किया जा सकता है, न बेचा जा सकता है और न शिफ्ट किया जा सकता है।

ऐसा तो नहीं है कि कोई मस्‍जिद का ढांचा पहली बार ढहा हो। दुनिया के अंदर कई देश ऐसे हैं जहां मस्‍जिदें विकास के लिए समय-समय पर तोड़ी जाती रही हैं, किंतु वहां तो अब तक कोई इस प्रकार का विवाद देखने को नहीं मिला, जैसा कि भारत में एक बाबरी ढांचे को लेकर बनाए रखा गया है। वस्‍तुत: ओवैसी और उनके साथ इस मत पर विश्‍वास करनेवाले आज कितना सच बोल रहे हैं, वह सऊदी अरब जहां इस्‍लाम का जन्‍म हुआ और दुनियाभर के इस्‍लामिक लोग अपनी धार्मिक यात्रा करने यहां एक बार अवश्‍य पहुँचते और जाने की मंशा रखते हैं कि स्‍थ‍िति से पता चलता है।

सऊदी अरब में अब तक विकास के लिए और अपनी योजनाओं को मूर्त रूप देने के लिए कई मस्‍जिदें समय-समय पर ढहाई गई हैं। प्रश्‍न यह है कि क्‍या वह अल्‍ला की जमीन नहीं थी, जब मस्‍जिद को स्‍थान्‍तरित किया ही नहीं जा सकता तो इस्‍लाम के जन्‍म स्‍थान से इन्‍हें क्‍यों अलविदा कहा गया ? मदीना के कई ऐतिहासिक मस्जिदों में जिनमें मस्जिद-ए-सलमान फारसी, मस्जिद-ए-रजत अल समस को ज़मींदोज किया जा चुका है और वह मस्जिद जिसमे मुहम्मद साहेब ने पहली ईद की नमाज पढ़ी वह मस्जिद-ए-ज़मामा भी ध्वस्त होने वाली है। इस संबंध में गल्फ इंस्टिट्यूट का मानना है की गत 25 वर्षों में लगभग 300 से अधिक ऐतिहासिक मस्जिदों को और कब्रों को सऊदी अरब में नेस्तानावुद किया गया है जो पैगम्बर की बीबियों और उनके अन्य परीज़नों की थी। आज वहाँ पांच सितारा और सात सितारा होटल शापिंग माल एवं बाज़ार सहित पार्किग स्थल बन चुके हैं और कुछ पर यह बन रहे हैं।

वस्‍तुत: इसमें जो समझनेवाली बात है, वह यही है कि इस्लाम की धरती पर ही ऐतिहासिक मस्जिदों और पवित्र कब्रों को हटाया गया और निरंतर हटाया जा रहा है, लेकिन अब तक कोई बवाल वहां के आम नागरिकों ने नहीं किया और न ही वहां का मिडिया एवं इस्लामी विद्वान इसके विरोध में खड़े हुए। इसके अलावा न ही कोई इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) जैसा संगठन वहां इसका विरोध करने सामने आया है। जिसके ठीक विपरीत भारत में बोर्ड कह रहा है कि बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण के लिए संघर्ष जारी रहेगा। सुप्रीम कोर्ट में अपील को भी सभी संसाधनों को जुटाकर पूरे जोरशोर से लड़ा जाएगा। यानि की जो अयोध्‍या राम मंदिर-बाबरी ढांचा विवाद है, उच्‍चतम न्‍यायालय की भावनानुसार बोर्ड उसे आपसी सहमति से कभी हल करना ही नहीं चाहता है।

तो क्‍या यह मंदिर-मस्‍जिद विवाद हमेशा भारत में मौजूद रहेगा? यह वह प्रश्‍न है जो आज इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) की हाल ही में हुई बैठक के बाद खड़ा हो गया है। इसका तो अप्रत्‍यक्ष मतलब यह भी है कि जो आवाजें मुसलमानों में से सभी धर्म-पंथ सद्भाव और समन्‍वय की उठेंगी, उसे दबा दिया जाएगा? वस्‍तुत: यहां ध्‍यान देनेवाली बात यह भी है कि ऐसा बार-बार इस्‍लाम के लोगों के बीच क्‍यों होता है कि उनमें जो धारा सभी को साथ लेकर चलने का प्रयास करती है, वह मुख्‍यधारा से तुरंत बाहर कर दी जाती है? जबकि पहले तो खुद ही मुसलमान कहते हैं कि जहां अल्‍लाह की इबादत न की जाए वह स्‍थान मस्‍जिद नहीं रहता, फिर बाबरी मस्‍जिद का इतिहास भी यही बताता है कि वहां ढांचा टूटने से पूर्व ही कई वर्षों तक कोई नमाज नहीं पढ़ी गई थी।

देखाजाए तो इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस मुद्दे को बनाए रखते हुए भारत में इस्‍लामिक राजनीति को ताकतवर बनाना चाहता है। भारत के आम सीधेसाधे मुसलमान को नहीं समझ आता कि सच क्‍या है? उसे यह बोर्ड के लिए बार-बार बताना चाहते हैं कि कैसे उनकी इबादतगाह को हिन्‍दुओं ने तोड़ा और वे किस तरह से आज भी बाबरी मस्‍जिद को नहीं बनने देना चाहते हैं। ऐसे में कल्‍बे सादिक साहब की यह बात समझने लायक है कि अयोध्‍या में मंदिर जरूर बने बल्‍कि विद्यामंदिर बने। मदरसों की शिक्षा से बेहतर मार्डन एजुकेशन है। मुसलमानों की असल दिक्‍कत मार्डन एजुकेशन की है। मुझे मुसलमानों से ही प्रॉब्‍लम आई है, हिन्‍दुओं से कभी कोई प्रॉब्‍लम नहीं आई। हिन्‍दुओं ने हमेशा मुझे इज्‍जत और प्‍यार दिया। वास्‍तव में कल्‍बे सादिक की इन बातों से भी यह समझ आ जाता है कि कमी कहा है। भारत का मुसलमान इतना कट्टर क्‍यों है और सऊदी का मुसलमान विकास के लिए क्‍यों अपने यहां मस्‍जिदें ढहा रहा है।

उच्‍चशिक्षा का नैतिक पतन

: डॉ. मयंक चतुर्वेदी 
ह एक सत्‍य तथ्‍य है कि सम्पूर्ण विश्व में शिक्षा किसी भी जीव को मानव बनाने की प्रक्रिया है। इसे वर्तमान तथा भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार रहने के लिए व्यवहारिक ज्ञान, आधुनिकतम तकनीकी दक्षता, भाषा, साहित्य, इतिहास सहित हर आवश्यक विषय की जानकारी प्रदान करने वाला सशक्त माध्यम माना जाता है। इतना ही नहीं तो हमारे लिए शिक्षा कोरा अक्षर ज्ञान नहीं बल्कि विद्या का वह रूप है जो सर्वप्रथम सुसंस्कृत बनाती है। जीवन में शिक्षा का क्‍या महत्‍व है, अब तक इस पर न जाने कितना कहा गया और लिखा गया है। प्राचीन ग्रंथ वेद, उपनिषद से लेकर स्‍वामी विवेकानन्‍द, महर्षि दयानन्‍द से लेकर आधुनिक समय तक भारत ही नहीं समुचे विश्‍व में एक ऐसी चिंतन एवं अध्‍ययन की श्रेष्‍ठ परंपरा रही है जो पीढ़ी दर पीढ़ी आनेवाली भावी संतति को ज्ञान का मार्ग दिखा रही है। किंतु दूसरी ओर इनके बीच से होकर डिग्री लेकर आधुनिक शिक्षा में ज्ञान के प्रसार को लेकर जब कुछ लोग आर्थ‍िक लाभ के लिए गलत कार्य करते हें तो न केवल उन लोगों का सिर झुकता है जो इस शिक्षक परंपरा के अनुगामी है बल्‍कि उनका भी सिर नीचा होता है जो ऐसे लोगों को कभी आगे बढ़ने की प्रेरणा देते औरसमय-समय पर उनकी कुशाग्र बौद्ध‍िक कौशल से प्रेरि‍त होकर या उन्‍हें आगे बढ़ाने की मंशा से सहयोग के लिए आगे आते हैं। 

वस्‍तुत: यह बहुत ही दुखद है कि उच्‍चशिक्षा के क्षेत्र में वर्तमान ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन (एआईएसएचई) की वर्ष 2016-17 की रिपोर्ट यह बता रही है कि देश के विश्वविद्यालयों और कालेजों में 80 हजार ऐसे प्रोफेसर नौकरी कर रहे हैं, जो एक या दो स्‍थानों पर नहीं, बल्कि एक साथ ही चार जगह नौकरियां कर रहे हैं और इन सभी स्‍थानों से यह प्राध्‍यापकगण नियमित वेतन भी ले रहे हैं। 
एआईएसएचई रिपोर्ट से हुए इस खुलासे पर अब क्‍या कहा जाए ? जो प्राध्‍यापक अपने विद्यार्थियों को सत्‍य की राह पर चलने की प्रेरणा देता है, यदि वही लालच के लिए असत्‍य का स्‍वजीवन में आग्रही हो, तो फिर उसे कौन ज्ञान देगा? यह अच्‍छा ही है कि कम से कम देश में सभी कार्यों को आधार कार्ड से लिंक करना अनिवार्य किया गया और इस तरह का अपने आप में अनौखा भ्रष्‍टाचार सामने आ सका है। शायद, देश भर के विश्वविद्यालयों और कालेजों में पढ़ा रहे शिक्षकों के सत्यापन का प्रयास आधार के माध्‍यम से नहीं होता तो यह बात कभी सामने नहीं आती । अब जिसे आधार की हर जगह अनिवार्यता के लिए प्रधानमंत्री मोदी को दोष देना है, वह तो देगा ही, किंतु इससे जो इस तरह की बातें सामने उजागर हो रही हैं, वह कम से कम यह बताने के लिए पर्याप्‍त हैं कि भारतीयों के बीच भ्रष्‍टाचार किस हद तक अपनी जड़े गहरी कर चुका है। 

अब भले ही इस खुलासे के बाद मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इसे गंभीरता से ले और ऐसे शिक्षकों की पहचान करके उनके खिलाफ जल्द कड़ी कार्रवाई करने के निर्देश दे। मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर कहें कि जनता का पैसा है, इसे इस तरीके से लूटने नहीं दिया जाएगा। ऐसे लोगों पर कार्रवाई होगी। किंतु साथ में यह प्रश्‍न भी है कि अभी मौजूदा समय में देशभर के विश्वविद्यालयों और कालेजों में करीब 15 लाख शिक्षक कार्यरत हैं। इनमें करीब 12.50 लाख शिक्षक ऐसे हैं, जो अब तक आधार से जुड़ चुके हैं। यानी करीब 85 फीसद प्राध्यापकों का सत्यापन हो चुका है। आगे अभी बाकी शिक्षकों को भी आधार से लिंक करने की तैयारी चल रही है, पर जब सभी शिक्षकों का इस तरह से आधार लिंक हो जाएगा तो संभावना यही है कि जो संख्‍या भ्रष्‍ट शिक्षकों की अभी 80 हजार निकलकर आई है, वह और अधिक हो जाए? कुलमिलाकर देश की उच्‍चशिक्षा खतरे में है, यह भी कहा जा सकता है। 

इस पर भी कुछ बातें अवश्‍य हैं, जिन पर अवश्‍य देश के शिक्षा नीतिज्ञों को विचार करना चाहिए। प्राचीन भारत की शिक्षा व्‍यवस्‍था का अध्‍ययन करने पर यह साफ पता चलता है कि जो गुरू अपने शिष्‍यों को ज्ञान देता था, उसकी वृत्‍त‍ि संग्रहरण की नहीं होती थी। किंतु वर्तमान परिवेश में शिक्षक की सोच में जो उपनिषयों की शिक्षा तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्, अर्थात् त्याग भाव से भोग करे नर , लोभ नहीं मन में लावे का लोप हुआ है, तभी से सर्पूण समाज में गिरावट का दौर निरंतर है । धन किसका? आज यह वह प्रश्‍न है जिस पर शायद हम सभी को खासकर शिक्षकों को अवश्‍य ही गंभीरता से विचार करने की आवश्‍यकता है। 

शिक्षा में जब तक देशप्रेम, संस्कृति और नैतिक मूल्यों का स्थान सुनिश्चित नहीं किया जाता है और जापान एवं जर्मनी की तरह से प्रत्‍येक भारतीय बच्चे में ‘सबसे पहले देश’ के संस्कार प्रबल हों, इसकी व्‍यवस्‍था नहीं खड़ी की जाएगी, हो सकता है कि आगे भी इस तरह के भ्रष्‍टाचार के लिए अन्‍य कोई रास्‍ता खोज लिया जाएगा। इसके साथ यह भी सुझाव है कि स्नातक स्तर तक साहित्य का पठन-पाठन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। एकता को बढ़ावा देने के लिए साहित्य का भारतीय भाषाओं में अनुवाद कर उन्हें प्रकाशित करने का उपक्रम समुचे देश में चले। वस्‍तुत: जब तक देश में संवेदना के स्‍तर पर विद्यार्थ‍ियों को जगाने का प्रयत्‍न नहीं होगा, भौतिकता की दग्‍ध अग्‍नि हर किसी को अपने तापमात्र से जलाने में सक्षम रहेगी, कल का विद्यार्थी आज का शिक्षक और अन्‍य कोई समाज का विशेष वर्ग, नागरिक बनेगा, वह अपने जीवन में वही करेगा, जिसका कि उसे बचपन से अभ्‍यास है, अब यह हमें सोचना होगा कि हम अपना कैसा समाज बनाना चाहते हैं, भ्रष्‍टाचार युक्‍त या भ्रष्‍टाचार मुक्‍त, सदाचरण युक्‍त ? 


गुरुवार, 25 जनवरी 2018

अल्‍पसंख्‍यकों के ल‍िए मोदी सरकार ये क्‍या कर रही है : डॉ. मयंक चतुर्वेदी


केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आने और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से शायद ही कोई दिन ऐसा गया हो, जब उनका नाम लेकर देश के अल्‍पसंख्‍यकों को खासकर मुसलमानों के बीच यह भ्रांति न फैलाई गई हो कि यह सरकार अब तक की सबसे बुरी सरकार है और इसके राज में सबसे अधिक नुकसान यदि किसी का हुआ है तो वह देश का अल्‍पसंख्‍यक मुस्‍लिम समुदाय है। किंतु क्‍या वास्‍तविकता में ऐसा है? वस्‍तुत: ऐसा बिल्‍कुल नहीं है, तथ्‍य कुछ ओर ही कहते हैं।  

इस संदर्भ में जो आंकड़े केंद्र सरकार के साथ अल्‍पसंख्‍यक कार्य मंत्रालय के हैं वह आज साक्ष्‍यों के साथ बता रहे हैं कि किस तरह से पिछले तीन वर्षों में मोदी राज में अल्‍पसंख्‍यकों का आर्थ‍िक एवं शिक्षा के स्‍तर पर बौद्ध‍िक विकास हुआ है और कैसे वह सतत जारी है। वस्‍तुत: वर्तमान में जीएसटी सुविधा केन्द्र और स्वच्छता पर्यवेक्षक जैसे लघु अवधि के पाठ्यक्रम अल्पसंख्यक समुदायों के युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए नए स्‍वरूप में आगे आए  हैं। यह लघु अवधि के पाठ्यक्रम छोटे, मध्यम उद्यमों और बड़े व्यवसाय समूहों की भी मदद कर रहे हैं। इसी प्रकार से आज स्वच्छता पर्यवेक्षकों की स्‍थ‍िति है, जिसमें कि पूरे देश में अलग-अलग स्वच्छता परियोजनाओं में अल्‍पसंख्‍यक युवाओं को केंद्र सरकार नौकरी प्रदान कर रही है।

वस्‍तुत: यह बताने की आवश्‍यकता नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान ने देश में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आरंभ किया है। इसके अंतर्गत अब तक लाखों शौचालयों, स्वच्छता केंद्रों, स्वास्थ्य केंद्रों का निर्माण किया जा चुका है और यह आगे भी तेजी से चल रहा है। इसमें ये अल्‍पसंख्‍यक स्वच्छता पर्यवेक्षक युवा आज स्वच्छता अभियान को बहुत व्‍यापक स्‍तर पर अपनी मजबूती प्रदान कर रहे हैं।

अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय की यथास्‍थ‍िति और उसके आर्थ‍िक कार्यकलापों पर भी यदि ध्‍यान दिया जाए तो यह सीधे तौर पर स्‍पष्‍ट हो जाता है कि मोदी सरकार की मंशा अल्‍पसंख्‍यकों विशेषकर मुसलमानों को लेकर आखिर क्‍या है। वस्‍तुत: वर्तमान में अल्‍पसंख्‍यक कार्य मंत्रालय अपने कुल बजट का 65 प्रतिशत से भी अधिक अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं के शैक्षिक सशक्तिकरण और कौशल विकास के लिए व्यय कर रहा है। जिसमें कि बहुत बड़ा इसका भाग वह है जोकि आज उनके बीच उन प्रतिभावान विद्यार्थ‍ियों एवं अभ्‍यार्थ‍ियों पर खर्च किया जा रहा है जोकि प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होकर देशसेवा करना चाहते हैं।

इस विषय में केंद्र की हाल ही संचालित हुईं विभिन्न छात्रवृत्ति योजनाओं को देखा जा सकता है, जिसमें कि "बेगम हजरत महल कन्या छात्रवृत्ति योजना" अल्पसंख्यक समुदाय के बीच महिला सशक्‍तिकरण एवं शैक्षिक सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुई है। आंकड़े देखें तो पिछले 3 वर्षों में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने भिन्न-भिन्न छात्रवृत्ति योजनाओं में 1 करोड़ 5 लाख से भी ज्यादा विद्यार्थ‍ियों को लाभ पहुंचाने में सफलतम कार्य किया है ।

अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के आंकड़े यह भी कहते हैं कि पिछले 3 वर्षों में बहु-क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम के अंतर्गत कई सुविधाएं जैसे 4 हजार 377 स्वास्थ्य केन्द्र, 37 हजार 68 आंगनवाड़ी केन्द्र, 10 हजार 649 पीने के पानी की सुविधा स्‍थल, 32 हजार से अधिक अतिरिक्त कक्षा स्‍थान, 1 हजार 817 स्कूल भवनों, 15 स्नातक महाविद्यालयों, 169 आईटीआई, 48 पोलिटेकनिक महाविद्यालयों का आरंभ, 248 बहुउद्देशीय समुदायिक केंद्रों सद्भाव मंडप, 1 हजार 64 छात्रावासों और 27 आवासीय स्कूलों का निर्माण अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में भारत सरकार के इस मंत्रालय ने कराया है।

इतना ही नहीं तो आजल 100 "गरीब नवाज कौशल विकास केन्द्र" समुचे देश में स्थापित किए जा रहे हैं। "हुनर हाट" एवं अन्य कौशल विकास कार्यक्रमों को जरिए करीब 5 लाख अल्पसंख्यक युवाओं को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये जा रहे हैं। इतना सभी कुछ विकास एवं अल्‍पसंख्‍यकों को आगे बढ़ाने के लिए किए जा रहे मोदी सरकार के कार्यों एवं प्रयत्‍नों के बाद भी यदि कोई उनकी नेक नीयत पर शक करे तो अब ऐसे लोगों का कुछ नहीं किया जा सकता है।

अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के आंकड़े

अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के आंकड़े यह भी कहते हैं कि पिछले 3 वर्षों में बहु-क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम के अंतर्गत कई सुविधाएं जैसे 4 हजार 377 स्वास्थ्य केन्द्र, 37 हजार 68 आंगनवाड़ी केन्द्र, 10 हजार 649 पीने के पानी की सुविधा स्‍थल, 32 हजार से अधिक अतिरिक्त कक्षा स्‍थान, 1 हजार 817 स्कूल भवनों, 15 स्नातक महाविद्यालयों, 169 आईटीआई, 48 पोलिटेकनिक महाविद्यालयों का आरंभ, 248 बहुउद्देशीय समुदायिक केंद्रों सद्भाव मंडप, 1 हजार 64 छात्रावासों और 27 आवासीय स्कूलों का निर्माण अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में भारत सरकार के इस मंत्रालय ने कराया है।

मध्‍यप्रदेश में महिला सुरक्षा से जुड़े प्रश्‍न : डॉ मयंक चतुर्वेदी

ध्‍यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सुरक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त बनाने के लिये जीलाधीशों एवं पुलिस अधीक्षकों को निर्देश देते हुए कहा है कि महिलाओं एवं बालिकाओं की सुरक्षा राज्य सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता हैइसमें किसी भी तरह की कोताही बर्दाश्त नहीं की जायेगी। महिलाओं एवं बालिकाओं के प्रति अपराध की शिकायतों का तत्काल संज्ञान लिया जायेतुरंत परीक्षण कराकर एफआईआर दर्ज की जाये और जरूरी होने पर समय पर मेडिकल परीक्षण भी कराया जाये। महिला अपराधों में दोषी पाये गये अपराधी के ड्राईविंग लायसेंस भी निरस्त करने की कार्रवाई की जानी चाहिए। मुख्‍यमंत्री इतना कहकर ही नहीं रुके उन्‍होंने आगे कहासुरक्षा के उपायों के प्रति समाज के सभी वर्गों में जागरूकता बढ़ाई जाये। स्कूलकॉलेजछात्रावासकोचिंग सेंटर एवं बाल सम्प्रेषण गृहों आदि क्षेत्रों का भ्रमण कर सुरक्षा के उपाय सुनिश्चित किये जायें। कलेक्टर कम से कम माह में एक बार पुलिस अधीक्षकमहिला बाल विकासस्वास्थ्य एवं नगरीय निकायों के अधिकारियों के साथ इस संबंध में बैठक करें। यह तो हुई एक प्रदेश के मुख्‍यमंत्री की प्रशासन को दी गई नसीहत और निर्देर्शों की बातकिंतु क्‍या इतनेभर से मध्‍यप्रदेश से महिलाओं के प्रति दिनप्रतिदिन होनेवाली दुर्घटनाओं में कमी आ जाएगी ?

देखाजाए तो प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार को 14 वर्ष निरंतर कार्य करते हुए हो गए हैंइसके पहले कांग्रेस दिग्‍व‍िजय सिंह की सरकार के 10 वर्षों तक का शासनकाल रहा। कुल मिलाकर बीते 24 सालों में 7 दिसंबर 1993 दिग्‍विजय सिंह से शिवराज सिंह चौहान तक 4 मुख्‍यमंत्री रहे और अनगिनत गृहमंत्री बनते रहेलेकिन हर बार प्रत्‍येक मुख्‍यमंत्री और सभी गृहमंत्री अपने प्रशासन को यही निर्देश देते रहे हैंकिंतु महिलाओं को लेकर स्‍थ‍ितियां हैं की बदलने का नाम नहीं ले रहीं।  प्रदेश में दिनप्रतिदिन अपराध का ग्राफ बढ़ रहा हैमहिलाएं छोड़ि‍ए अबोध बालिकाएं इनके निशाने पर हैं। हर बार कांगेस के सत्‍ता पर रहने पर भाजपा कानून व्‍यवस्‍था को मुद्दा बनाती है तो इन दिनों कांग्रेस ने भाजपा सरकार के विरुद्ध प्रदेश में खराब कानून व्‍यवस्‍था को मुद्दा बना रखा हैपर दोनों ही स्‍थ‍ितियों में परिस्‍थ‍ितियां भयंकर ही हैं।

इस सब के बीच यदि कुछ तथ्‍यों पर प्रकाश डाला जाए तो वर्तमान में यह पूरी तरह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि प्रदेश में महिलाओं से जुड़े अपराधों में निरंतर इजाफा हुआ है। आज यह राज्‍य बच्चों के विरुद्ध होने वाले अपराध के मामले में देश में दूसरे नंबर पर पहुंच गया है। महिलाओं के खिलाफ अपराधों की घटनाओं के मामलों में मध्य-प्रदेश की राजधानी भोपाल’ शीर्ष पर है। इस वर्ष 1 जनवरी से 31 मई तक राजधानी भोपाल’ में महिलाओं के खिलाफ अपराध से जुड़े 8 हजार 838 मामले दर्ज किए गए थेयह स्‍वीकारोक्‍ति मध्‍यप्रदेश के गृहमंत्री की है । भोपाल के बाद महिला पर हुए अपराधों के जबलपुर में 7 हजार 557इंदौर में 6 हजार 827उज्जैन में 5 हजार 236 और ग्वालियर में 5 हजार 76 मामले दर्ज हुए थे।

इसके पूर्व जब राज्‍य के गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह से विधानसभा में रामविलास रावत द्वारा इस संबंध में पूछा गया था तब उन्‍होंने बताया था कि मध्य प्रदेश में 13 महिलाओं को बलात्कार के बाद जान से मार दिया गया। जबकि14 ने खुदकुशी कर ली।  रेप पीड़ित महिलाओं में अनुसूचित जातिअनुसूचित जनजातिअन्य पिछड़ा वर्ग के अलावा सामान्‍य वर्ग की महिलाओं की संख्‍या भी बहुत ज्‍यादा पाई गई है। मई माह के बाद बीते छह माह में यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह संख्‍या निश्‍चित तौर पर इस आंकड़े के दौगुने को पार कर चुकी होगी।

मध्‍यप्रदेश में आज नहीं दो वर्ष पहले तक की स्‍थ‍िति भी देखें तो वह बच्‍चों के मामले में खासकर महिलाओं को लेकर एकदम प्रतिकूल ही दिखाई देती है। वर्ष-2015 के दौरान अपहरण के 5 हजार 306ज्यादती के 1 हजार 568 और हत्या के 124 मामले दर्ज किए गए गए थे। दुष्कृत्य की 391 घटनाएं हुईं। इनमें 35.7 प्रतिशत दुष्कृत्य की घटनाएं बच्चों के साथ हुईं। अभी हाल ही में मध्‍यप्रदेश की राजधानी भोपाल में एक माह के भीतर तीन बच्चियों से गैंगरेप जैसे अपराध सामने आ चुके हैंबलात्‍कार को लेकर जो आंकड़े आ रहे हैं वह मध्‍यप्रदेश में प्रतिदिन औसत 12 तक पहुंच चुका है। आखिर इसके क्‍या मायने लगाए जाएं ? राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की एक गत वर्ष आई रिपोर्ट 2015-16 के अनुसार यहां लड़कियों का विवाह 18 साल से कम उम्र में हुआ है उसका प्रतिशत इतना अधिक है कि यह राज्‍य बाल विवाह के मामले में देश के पहले 8 राज्यों में पहुंच गया है। सबसे अधिक ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रतिशत 31.5 फीसदी है। स्‍त्री सशक्‍तिकरण को लेकर मध्‍यप्रदेश की वर्तमान स्‍थ‍ितियां किस प्रकार की हैंइसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि महिला सुरक्षा के लिए स्‍थापित गौरवी वन स्‍टॉप क्राइसिस रेसेल्युशन सेंटर द्वारा बीते कुछ सालों में 29 नाबालिग किशोरियों का प्रसव करवाया गया है।

सरकार के लाख जनजागरण अभियान के बाद भी अवांछित बेटियों को मारने का नया तरीका ढूंढ़ लिया गया है और वह है कोख में न मारते हुए उन्‍हें किसी झाड़ीतालाबनदीसुनसान क्षेत्र या कचरे के ढ़ेर में फेंक देनाफिर लावारिस पड़ी नवजात बच्‍चियों का भगवान ही मालिक हैकिसी भले की समय रहते नजर पड़ गई तो जीवन सुरक्षित हो गयानहीं तो अधिकांश में मौत के बाद शरीर का जानवरों द्वारा नोचे जाने के भीवत्‍स दृष्‍य उपस्‍थ‍ित हो उठता है । वस्‍तुत: ऐसे मामलों में जन्‍म के पहले से आरंभ हुआ यह संकट जिंदगी के लिए सबसे महत्‍वपूर्ण जन्‍म के बाद के  एक हजार घंटों तक चुनौती बना रहता है। कह सकते हैं कि हालात इतने बेकार हैं कि इसमें तुरंत व्‍यापक पैमाने पर सुधार की आवश्‍यकता है।

सरकार की अपनी जवाबदेही हैकिंतु सरकार के भरोसे समाज नहीं चलता । इन घटनाओं के बढ़ने के पीछे जो सबसे बड़ा कारण आज नजर आता हैवह है समाज की संवेदनशीलता में कमी आनालापरवाही और परंपरा में आनेवाली पुरुष पीढ़ी को महिलाओं के प्रति सम्‍मान की भावना का जाग्ररण कर पाने के भाव का तिरोहित होते जाना। वस्‍तुत: मध्‍यप्रदेश के वर्तमान मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने लाख प्रयत्‍न कर लें और अपने प्रशासन को इस दिशा में निरंतर,बार बार निर्देश देते रहेंसुधार तब तक असंभावी है जब तक कि स्‍त्रियों के प्रति असम्‍मान की मूल जड़ पर चोट न की जाए या उसके डीएनए में सुधार के प्रयत्‍न न हों। मध्‍यप्रदेश के हर चौराहेनामी मंदिरमस्‍जिद और मकबरे के बाहर भीख मांगता बचपनजवानी और बुढ़ापे को हम नजर अंदाज करते रहेंगे,रेलवे एवं अन्‍य स्‍टेशनोंघरों में काम करते नाबालिग बच्‍चों को हम सहज स्‍वीकारें नहीं तथा परिवार में जब तक परस्‍पर मान-सम्‍मान का भाव पैदा नहीं किया जाएगा मध्‍यप्रेदश में महिलाओं की स्‍थ‍िति में बिल्‍कुल भी सुधार आनेवाला नहीं हैफिर सत्‍ता के सूत्र किसी के भी हाथ में होंक्‍या फर्क पड़ता है ।   

लेखक न्‍यूज एजेंसी हिन्‍दुस्‍थान समाचार के मध्‍यप्रदेश ब्‍यूरो प्रमुख एवं केंद्रीय फिल्‍म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्‍य हैं।

शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

भारत में कृषि और महिलाएं : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारत अपने अस्तित्वकाल से ही कृषि प्रधान देश रहा है। यहां जिस तरह से पुरुष और महिलाओं के बीच श्रम का विकेंद्रीकरण किया गया है, उसमें महिलाओं के जिम्मे जो कार्य है, वह तुलनात्मक रूप में समग्रता के साथ पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों के पास अधिक है। इसमें शहरों की तुलना में ग्रामीण महिलाओं के पास कार्य की अधिकता है, इसके विपरीत औरतों की स्थिति दयनीय है। सबसे अधिक कार्य का बोझ होने के बावजूद श्रमशक्ति में पुरुषों से कम पारिश्रमिक उनकी दयनीय स्थिति को दर्शाता है।

शहरों में तो व्यावसायिक एवं मासिक वेतन कर्मचारी व्यवस्था में अधिकतर महिलाएं कार्यरत हैं, किंतु यह स्थिति गांवों में नहीं है। वहां महिलाएं कृषि क्षेत्र में पुरुषों के साथ बराबरी से तो कहीं उनसे भी अधिक भागीदारी कर वे अपनी बहुआयामी भूमिकाएं निभा रही हैं। बुवाई से लेकर रोपण, निकाई, सिंचाई, उर्वरक डालना, पौध संरक्षण, कटाई, निराई, भंडारण और कृषि से जुड़े अन्य कार्य जैसे कि मवेशी प्रबंधन, चारे का संग्रह, दुग्ध संग्रहण, मधुमक्खी पालन, मशरुम उत्पादन, सूकर पालन, बकरी पालन, मुर्गी पालन इत्यादि में ग्रामीण महिलाएं पूरी तरह सक्रिय हैं। इसके साथ ही कृषि क्षेत्र के भीतर, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और क्षेत्रीय कारकों के आधार पर काम करने वाले वैतनिक मजदूरों, अपनी स्वयं की जमीन पर श्रम कर रहीं जोतकार और कटाई पश्चात अभियानों में श्रम पर्यवेक्षण और सहभागिता के जरिए कृषि उत्पादन के विभिन्न पहलुओं के प्रबंधन में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है ही, लेकिन क्या इतना अधिक योगदान होने के बाद भी हम अपनी मातृशक्ति की श्रमपूंजी के साथ न्याय कर पा रहे हैं?

विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के आंकड़े बता रहे हैं कि भारत के 48 प्रतिशत कृषि संबंधित रोजगार में औरतें हैं, जबकि करीब 7.5 करोड़ महिलाएं दुग्ध उत्पादन तथा पशुधन व्यवसाय जैसी गतिविधियों में सार्थक भूमिका निभाती हैं। कृषि क्षेत्र में कुल श्रम की 60 से 80 फीसदी तक हिस्सेदारी महिलाओं की है। पहाड़ी तथा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र तथा केरल राज्य में महिलाओं का योगदान कृषि तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पुरुषों से कहीं ज्यादा है, इसमें सबसे अधिक पहाड़ी क्षेत्रों में है। इसी संदर्भ में फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के एक अध्ययन से पता चला है कि हिमालय क्षेत्र में प्रति हैक्टेयर प्रति वर्ष एक पुरुष औसतन 1 हजार 212 घंटे और एक महिला औसतन 3 हजार 485 घंटे कार्य करती है। इस आंकड़े के माध्यम से ही कृषि में महिलाओं के अहम योगदान को आंका जा सकता है। 

समूचे भारत वर्ष में उसके भूगोल और जनसंख्या के अनुपात से कृषि में महिलाओं के योगदान का आंकलन करें, तो यह करीब 32 प्रतिशत है। इस बीच यदि हम भा.कृ.अनु.प. के डीआरडब्ल्यूए की ओर से नौ राज्यों में किए गए एक पूर्व शोध अध्ययन को देखें तो प्रमुख फसलों के उत्पादन में महिलाओं की 75 फीसदी भागीदारी, बागवानी में 79 फीसदी और कटाई उपरांत कार्यों में 51 फीसदी की हिस्सेदारी है। पशु पालन में महिलाएं 58 फीसदी और मछली उत्पादन में 95 फीसदी भागीदारी निभाती हैं।

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के आंकड़ों के मुताबिक 23 राज्यों में कृषि, वानिकी और मछली पालन में कुल श्रम शक्ति का 50 फीसदी हिस्सा महिलाओं का है। छत्तीसगढ़, बिहार और मध्य प्रदेश में 70 फीसदी से ज्यादा महिलाएं कृषि क्षेत्र पर आधारित हैं, जबकि पंजाब, पश्चिमी बंगाल, तमिलनाडु और केरल में यह संख्या 50 फीसदी है। मिजोरम, आसाम, छत्तीसगढ़, अरूणाचल प्रदेश और नागालैंड में कृषि क्षेत्र में 10 फीसदी महिला श्रमशक्ति है। देखने में निश्चित तौर पर यह आंकड़े काफी उत्साहजनक हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या महिलाओं को कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए उचित अवसर दिए जा रहे हैं?

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री राधा मोहन सिंह भले ही आज कह रहे हों कि सरकार की विभिन्न नीतियों जैसे जैविक खेती, स्वरोजगार योजना, भारतीय कौशल विकास योजना, इत्यादि में महिलाओं को प्राथमिकता दी जा रही है। कृषि और संबद्ध क्षेत्रों में महिलाओं को और अधिक सशक्त बनाने के लिए तथा उनकी जमीन, ऋण और अन्य सुविधाओं तक पहुंच बढ़ाने के लिए कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने किसानों के लिए बनी राष्ट्रीय कृषि नीति में उन्हें घरेलू और कृषि भूमि दोनों पर संयुक्त पट्टे देने जैसे नीतिगत प्रावधान किए हैं। इसके साथ कृषि नीति में उन्हें किसान क्रेडिट कार्ड जारी करवाने के साथ ही इसके लिए कई प्रकार की पहल की जा चुकी हैं।

यहां केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री की कही बातों को जरा भी गंभीरता से लिया जाए और सरकार के इस संदर्भ में किए जा रहे प्रयासों यथा, जिनमें कि कृषि में महिलाओं की अहम भागीदारी को ध्यान में रखते हुए कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा स्थापित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अंतर्गत केंद्रीय कृषिरत महिला संस्थान की स्थापना तथा इस संस्थान के माध्यम से महिलाओं से जुड़े विभिन्न आयामों पर 100 से अधिक संस्थानों द्वारा नई तकनीक के सृजन के लिए किए गए कार्य या अन्य प्रयास जिससे कि देश में 680 कृषि विज्ञान केंद्र स्थापित हैं। मोदी सरकार ने विभिन्न प्रमुख योजनाओं व कार्यक्रमों और विकास संबंधी गतिविधियों के अंतर्गत महिलाओं के लिए कम से कम 30 प्रतिशत धनराशि का आबंटन सुनिश्चित किया है 

इत्‍यादि कार्यों पर प्रमुखता से गौर करें तो इस पर भी कहना यही होगा कि आज भी सरकारी आंकड़ों में जितना अधिक महिलाओं के कृषि क्षेत्र में विकास की बातें कर उनका उत्साहवर्धन किया जा रहा है, जमीनी स्तर पर वह कहीं नजर नहीं आता है। जबकि यदि महिलाओं को अच्छे अवसर तथा सुविधाएं मिलें तो वे देश की कृषि को द्वितीय हरित क्रांति की तरफ ले जाने के साथ देश के विकास का परिदृष्य तक बदलने की कुव्वत रखती हैं। इसीलिए आज यह जरूरी होगा कि भारतीय कृषि में महिलाओं को दयनीय परिस्थितियों से बाहर निकालने के लिए मोदी सरकार को शासकीय आंकड़ों से इतर भी कुछ सर्वे करवा लेना चाहिए, ताकि इस क्षेत्र में भी विमुद्रिकरण की तरह ही पूरे देश में कुछ चमत्कार नजर आ सकें।