रविवार, 11 दिसंबर 2016

ध्यप्रदेश में कुपोषण की घटनायें नई नहीं हैं। करीब एक दशक बाद जब प्रदेश में कुपोषण की भयावह स्थिति एक बार फिर सुर्खियाँ बनने लगीं तो विकास के तमाम दावे खोखले साबित होने लगे। जमीनी हालातों ने सरकार के तमाम आंकड़ेबाजी और दावों की पोल खोल कर रख दी। वर्षों बीत जाने के बावजूद मध्यप्रदेश बीमारु प्रदेश के तमगे से बहुत आगे नहीं बढ़ सका हैं। और हालात इतने खराब हो गए कि मध्यप्रदेश सरकार को कुपोषण की स्थिति को लेकर श्वेत पत्र लाने को मजबूर होना पड़ा हैं। 

हाल ही में रजिस्टार जनरल ऑफ इंडिया के सैम्पल रजिस्ट्रेशन सर्वे की सांख्यिकी रिपोर्ट में कुपोषण के मामले में मध्य प्रदेश की शर्मनाक स्थिति सामने आई हैं। रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश देश का वो राज्य है जहां सबसे ज्यादा शिशुओं की मौत होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार शिशु मृत्युदर में मध्य प्रदेश देश में सबसे ऊपर हैं। जबकि 28 दिन के भीतर बच्चों की मौत और पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत के मामले में प्रदेश दूसरे स्थान पर है। करीब एक दशक पहले भी यह मामला बहुत जोर-शोर से उठा था और मध्य प्रदेश को भारत के सबसे कुपोषित राज्य का कलंक मिला था। उस समय भी कुपोषण का आलम यह था कि 2005 से 2009 के बीच राज्य में 1 लाख 30 हजार 2 सौ 33 बच्चे मौत के काल में समा गये थे। वहीं एक अप्रैल 2014 से जनवरी 2016 तक केवल श्योपुर जिले में 1280 बच्चों की मौतें कुपोषण से हुई हैं। मौजूदा साल की ही बात की जाए तो पिछले छह महीनों में ही प्रदेश में कुपोषण से पीडि़त 9 हजार 167 बच्चों की मौतें हुई है। 


सिंधिया ने पत्र लिखकर की निष्पक्ष जांच की मांग


ताजा मामला श्योपुर जिले का है। जहां प्रशासन ने ही 116 बच्चों की मौत कुपोषण से होना माना है। 2006 में भी श्योपूर जिला कुपोषण के कारण ही चर्चा में आया था। ऐसा लगता है कि इतने सालों में सरकार ने कोई सबक नही सीखा हैं और 2016 में फिर वही कहानी दोहरायी जा रही हैं। इस बार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने राज्य सरकार को नोटिस भेजा है और राज्य के मुख्य सचिव से चार सप्ताह के भतीर जवाब मांगा हैं। कुपोषण के मामले पर एक बार फिर घिरने के बाद अब मध्यप्रदेश सरकार कुपोषण पर श्वेतपत्र लाने जा रही हैं। विपक्ष का कहना है कि यह काले कारनामों पर पर्दा डालने का प्रयास हैं’। वहीं गुना से कांग्रेस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी को पत्र लिखकर मध्यप्रदेश में कुपोषण से मौतों की जांच के संबंध में उनके द्वारा किये गए वायदे की याद दिलाई है। अपने पत्र में सिंधिया ने गत 14 सितंबर को एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल के साथ मेनका गांधी से हुई मुलाकात का जिक्र किया है। उन्होंने कहा है कि मैं एमपी के श्योपुर सहित कई जिलों में कुपोषण के कारण कई बच्चों की मौत के सन्दर्भ में आपसे मिला था। मामले की गंभीरता को देखते हुए गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए कहा था कि आप एमपी के मुख्यमंत्री को इस सम्बन्ध में पत्र लिखेंगी। साथ ही केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की तरफ से स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जांच कराके इसके लिए जिम्मेदार दोषियों पर सख्त कार्रवाई भी करवाएंगी। सिंधिया ने कहा है कि जब राज्य सरकार प्रतिमाह करोड़ो रुपया कुपोषण उन्मूलन पर खर्च कर रही है, तो फिर उसके बाद भी उपरोक्त परिस्थितियॉं क्यों निर्मित हो रही है। उन्होंने सरकार से इस सबकी जांच किसी स्वतंत्र निष्पक्ष एजेंसी से कराकर दोषियों के विरूद्ध सख्त से सख्त कारज़्वाई करने की मांग की है। 

कुपोषण के प्रति नहीं दिखी सरकार की गंभीरता

करीब पांच साल पहले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कुपोषण को मध्यप्रदेश के लिए कलंक बताते हुए इससे निजात पाने की बात राज्य विधानसभा में कही थी। प्रदेश के मुखिया की इस चिंता के बाद भी हालात बदले के बजाय और बद्तर हो गए। हाल में जारी एनुअल हेल्थ सर्वे 2014 के अनुसार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में मध्यप्रदेश पूरे देश में पहले स्थान पर है जहाँ 1000 नवजातों में से 52 अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते हैं, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर आधा यानी 26 ही हैं। प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति ओर चिंताजनक है जहाँ शिशु मृत्यु दर 57 हैं। मध्यप्रदेश में 5 साल से कम उम्र के 58 प्रतिशत लडक़ों और 43 प्रतिशत लड़कियों की लम्बाई औसत से कम है, इसी तरह से 49.2 फीसदी लडक़ों और 30 प्रतिशत लड़कियों का वजन भी औसत से कम हैं। ऐसा लगता हैं जैसे कुपोषण या सर्वसुलभ स्वास्थ्य सेवाएं कभी सरकार की प्राथमिकता नहीं रहीं थी। सरकार की प्राथमिकता तो प्रदेश में औद्योगिक निवेश, खनिज,आबकारी जैसे मुद्दों पर ज्यादा रहा जिससे वो खुद पोषित हो सकें। 

कुपोषण से सर्वाधिक मौतें राजधानी में 

कुपोषण को लेकर सरकार कितनी गंभीर हैं इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता हैं कि पिछली छिमाही में कुपोषण से मरने वाले बच्चों में सर्वाधिक मौत राजधानी भोपाल में हुई हैं। यदि राजधानी का हाल ऐसा हैं तो अन्य जिलों के हालात क्या होंगे इसकी कल्पना की जा सकती हैं। प्रदेश के 51 जिलों में 1 जनवरी से 30 जून तक सर्वाधिक 587 मौत भोपाल जिले में हुई। वहीं बालाघाट में 268, बड़वानी में 537, बैतूल में 332, छतरपुर में 219, धार में 223, गुना में 260, जबलपुर में 276, झाबुआ में 251, कटनी में 212, मुरैना में 228, सतना में 346, सीहोर में 238, सिवनी में 256, शिवपुरी में 211, उज्जैन में 301 तथा विदिशा में 341 बच्चों की मौतें हुई हैं। सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चों की संख्या अलीराजपुर में 40 हजार 107, बड़वानी में 58 हजार 781 तथा धार में 78 हजार 773 है। भोपाल जैसे शहर में शून्य से छह वर्ष की आयु के कुपोषित बच्चों की संख्या 26 हजार से ज्यादा पाई गई है। 

संपूर्ण शारीरिक विकास पर कुपोषण का असर

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (एनएफएचएस-2015-16) के अनुसार मध्यप्रदेश कुपोषण के मामले में बिहार के बाद दूसरे स्थान पर हैं। यहाँ अभी भी 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, कुपोषण के सबसे ज्यादा शिकार आदिवासी समुदाय के लोग हैं। सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में श्योपूर (55प्रतिशत),बड़वानी (55 प्रतिशत), मुरैना (52.2प्रतिशत) और गुना में (51.2प्रतिशत) शामिल हैं। रिर्पोट के अनुसार सूबे में 5 साल से कम उम्र के हर 100 बच्चों में से लगभग 40 बच्चों का विकास ठीक से नही हो पाता हैं। इसी तरह से 5 साल से कम उम्र के लगभग 60 प्रतिशत बच्चे खून की कमी के शिकार हैं और केवल 55 प्रतिशत बच्चों का ही सम्पूर्ण टीकाकरण हो पाता हैं। प्रदेश में कुपोषण के कारण बच्चे सिर्फ दुर्बल और कमजोर नहीं हो रहे, बल्कि उनका शारीरिक विकास भी नहीं हो रहा है। कुपोषण के चलते राज्य के 42 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन का शिकार हो रहे हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, आमतौर पर कुपोषण को बच्चों के दुबलेपन के रूप में ही लिया जाता है, लेकिन बच्चों का कद न बढऩा और उनका ठिगना रह जाना भी कुपोषण का ही दुष्परिणाम है। ऐसे बच्चे आगे चलकर हीन भावना का शिकार हो जाते हैं और इस तरह कुपोषणजनित ठिगनापन प्रदेश की विकास दर को भी प्रभावित कर रहा है।

करोड़ों खर्च फिर भी स्थिति जस की तस

प्रदेश में कुपोषण खत्म करने के नाम पर प्रतिवर्ष करीब सवा दो हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं। प्रदेश में पिछले 12 सालों में 7800 करोड़ का पोषण आहार बंंटा हैं। पानी की तरह पैसा खर्च करने के बावजूद स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया हैं और लगातार 11 साल से प्रदेश शिशु मृत्यु दर के मामले में पूरे देश पहले नंबर पर बना हुआ हैं। ऐसे में कुपोषण के लिए सरकार की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगना लाजिमी हैं। सबसे ज्यादा सवाल पोषण आहार सिस्टम पर खड़े हो रहे हैं। हालांकि इस व्यवस्था से भ्रष्टाचार बेनकाब होने के बाद सूबे के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बीते 6 सितंबर को सिस्टम को बदलने की घोषणा की और पोषण आहार का काम कम्पनियों के बजाय स्वंय सहायता समूहों को दिये जाने का एलान किया। लेकिन लालफीताशाही ने इसे भी त्वरित रूप से लागू नहीं होने दिया और नियम कानून के नाम पर इसे उलझा दिया। 8 अक्टूबर को हुई एक बैठक में इस पर गंभीरता से निर्णय लेते हुए जल्द लागू करने का निर्देश दिया गया। अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो 1 अप्रैल 2017 से पोषण आहार की नई विकेंद्रीकृत व्यवस्था लागू हो जायेगी। लेकिन यहां बड़ा सवाल यह हैं कि व्यवस्था को बदलने के साथ इसके लिए दोषी अफसरों और कम्पनियों पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं की गई।  जानकार इसे एक तरह से पुुरानी गड़बडिय़ों पर परदा डालने की कवायद मान रहे हैं। 

कार्ययोजना की कमी से बिगड़े हालात

कोई भी काम असंभव नहीं होता। यदि कुपोषण को जड़ से समाप्त करना हैं तो हमें गंभीरता से इसे निपटने का प्रयास करना होगा हैं। प्रदेश सरकार द्वारा कुपोषण से निपटने के लिए अनेक स्थानों पर एनआरसी केंद्र स्थाापित किए गए हैं। यहां गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों के साथ ही उनकी माताओं को भी ठहराने का प्रावधान हैं, ताकि वे अपने बच्चों के खान-पान का ख्याल रख सकें। बताया जाता है कि अनेक एनआरसी केंद्रों में समुचित संसाधन नहीं होने से कुपोषित बच्चों का सामान्य उपचार कर उन्हें चलता किया जाता हैं। इस कार्यप्रणाली में परिवर्तन लाना होगा। सरकार को बुनियादी और व्यवस्थागत समस्या के लिए मौजूद सीमित उपाय को बढ़ाना होगा। साथ ही ऐसे गंभीर मामलों में भी भ्रष्टाचार,धांधली और अव्यवस्था के लिए दोषी लोगों पर कठोर कार्रवाई करनी होगी ताकि इन पर अंकुश लगाया जा सकें। कुपोषण.. एक ऐसा दंश जो भारत के कई राज्यों के मासूमों को अपनी चपेट में लिया हुआ हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों के तमाम प्रयासों के बाद भी कुपोषण की रोकथाम पर कामयाबी नहीं मिल पा रही हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह हैं कि देश के भविष्य को बचाने के लिए वर्तमान में ऐसे कौन से कदम उठाए जाने जरूरी हैं जिससे भारत से कुपोषण को जड़ से समाप्त किया जा सकें। 

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