बुधवार, 24 अगस्त 2016

रियो ओलंपिक से मिलते सबक


दुनिया का सबसे बड़ा खेल मेला समाप्‍त हो गया और इसी के साथ हमारी वह सभी उम्‍मीदें भी कि एक कास्‍यएक सिल्‍वर पदक के बाद कोई और अब गोल्‍ड भी दिला सकता है समाप्‍त हो गईं। यदि इस खेल मेले की पूरी सूची देखें तो भारत बहुत नीचे कहीं नजर आता हैजिसमें कि हम अपने पड़ौसी मुल्क चीन से तो कोई मुकाबला ही नहीं कर सकते। देखा जाए तो चीन की परिस्थितियां आबादी के लिहाज से कहें या विकास और प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से भारत से ज्‍यादा अच्‍छी होंऐसा बिल्कुल भी नहीं हैलेकिन पदक तालिका में चीन सूची में सबसे आगे तीन देशों में से एक है। ब्रिटेन जैसा छोटी आबादी वाला देश पदक पाने में दूसरे स्थान पर और अमेरिका तो फिर अमेरिका है। ताकत में भी नंबर 1 और खेल के मैदान में भी सबसे आगे अपने को लगातार सिद्ध करता रहा है। रूसजर्मनीजापानफ्रांसद. कोरियायहां तक कि इटली  व ऑस्ट्रेलिया जैसे कम जनसंख्या वाले देश भी इस विश्वखेल मेले में शुरूआती 10 की सूची में अपना स्थान बनाने में कामयाब रहे लेकिन भारत इसमें कहां है भारत का स्थान 67वां रहा।

आत्ममंथन अब यहीं से शुरू होता हैभारत इस बार अपने सबसे बड़े 119 सदस्यीय दल के साथ दुनिया के इस सबसे बड़ी खेल प्रतियोगिता में हिस्सा लेने पहुंचा था। खेलों के इस महासमर में देश के हर नागरिक को यही उम्मीद थी कि भारत ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए इस बार के ओलंपिक में कुछ नया करिश्मा दिखाएगा और पदकों की जो लम्बे समय से बाटजोही की जा रही हैउसका अकाल अब समाप्त होगा। किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। हमेशा पूर्व ओलंपिकों की तरह ही इस बार का रिजल्ट है। स्त्री शक्ति ने जरूर देश की लाज बचा ली, नहीं तो जो 67वां स्थान सूची में कहीं नजर आता हैवह भी दिखाई नहीं देता।

भारत के इस 31 वें ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेने के साथ यह भी पता चलता है कि हमारी लगातार की असफलता को भी इतने ही वर्ष गुजर रहे हैंहालांकि इसके साथ एक सच यह भी है कि भारत के खिलाड़ी बीच-बीच में अपना कुछ सार्थक परिणामकारी प्रदर्शन करते रहे हैं। भारतीय हॉकी टीम 8 बार की ओलंपिक चैंपियन हैलेकिन पता नहीं कई सालों से हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी में कौन सी जंग लगी है कि हम फिर से वह करिश्मा नहीं कर पा रहेजो कभी ध्यानचंद और रूप सिंहसे लेकर समय-समय पर अजित पाल सिंहवी. भास्करनगोविंदाअशोक कुमारमुहम्मद शाहिदजफऱ इक़बालपरगट सिंहमुकेश कुमार और धनराज पिल्ले जैसे खिलाड़ी करते आए हैं।
पदक पाने के आंकड़ों को देखें तो भारत ने एक देश के तौर पर सन् 1900 से आज तक कुल 28 पदक अपने नाम किए हैंजिनमें स्वर्ण पदकों की संख्या 9 है। साथ ही भारत ने 7 सिल्वर और 12 ब्रॉन्ज मेडल जीते हैं। भारत ने लंदन ओलंपिक 2012 में सर्वाधिक छह पदक जीते थेलेकिन उनमें स्वर्ण पदक शामिल नहीं था। खेलों से पहले भारतीय खेल प्राधिकरण (साइ) ने पदकों की संख्या दोहरे अंक में पहुंचने की उम्मीद जताई थीलेकिन वे सब धराशायी हो गईं। इस बार के ओलंपिक में एयर पिस्टल में अपूर्वी चंदेलाअयोनिका पालजीतू रायगुरप्रीत सिंह और लंदन ओलंपिक के कांस्य पदक विजेता गगन नारंग और अपना पांचवां व आखिरी ओलंपिक खेलने गए अभिनव बिंद्रा से सटीक निशाना साधने की उम्मीदें थींलेकिन निराशा ही हाथ लगी। महिला जिमनास्ट दीपा कर्मकार भी खाली हाथ रहीं।

भारतीय टेनिस स्टार लिएंडर पेस और उनके जोड़ीदार रोहन बोपन्ना पुरुष युगल के पहले दौर में हार कर रियो ओलम्पिक से बाहर हो गए। यही हाल महिला टेनिस खिलाड़ि‍यों का रहासानिया मिर्जाप्रार्थना थोंबारेशरत कमलसौम्यजीत घोषमौउमा दास और मनिका बत्रा कुछ कमाल नहीं कर पाईं। भारतीय महिला भारोत्तोलक सैखोम मीराबाई चानू निराशाजनक प्रदर्शन कर भारोत्तोलन स्पर्धा से बाहर हो गईं। पुरूष मैराथन में भारत के. टी. गोपीखेताराम और तीसरे धावक नीतेंद्र सिंह राव के प्रदर्शन ने भी निराश किया। भारत की लंबी दूरी की महिला धाविका ललिता शिवाजी बाबर रियो ओलंपिक में 10वां स्थान ही हासिल कर सकीं। भारत के अग्रणी पुरुष बैडमिंटन खिलाड़ी किदाम्बी श्रीकांत को हार का सामना करना पड़ा। इसी प्रकार भारत की चक्का फेक एथलीट सीमा पूनिया भी अपना बेस्ट नहीं दे पाईं। मुक्केबाज शिवा थापामनोज कुमार और विकास कृष्ण यादव से जो उम्मीदें की जा रही थीं वे भी उन्हें पूरा नहीं कर सके।

पहलवान रविंदर खत्री तो ग्रीको रोमन कुश्ती स्पर्धा में अपना पहला मुकाबला हारकर ओलंपिक से बाहर हो गए। कुश्ती में पदक लाने की आस नरसिंह यादव से लेकर लंदन ओलंपिक के कांस्य पदक विजेता योगेश्वर दत्त से की जा रही थीजिसमें कि नरसिंह को खेलने का अवसर नहीं मिला और योगेश्वर ओलंपिक के अंतिम दिन मंगोलिया के मन्दाखनारन गैंजोरिग के हाथों पराजय का सामना करते हुए बाहर हो गए। हांमहिला पहलवानों में विनेश और बबीता कुमारी को छोड़ साक्षी मलिक ने जरूर कुश्ति के जरिए देश की लाज रखी और भारत का पदक तालिका में कांस्य पदक प्राप्त कर खाता खोला।

उसके बाद एक कदम ओर आगे बढ़ाते हुए पीवी सिंधू सोने के संघर्ष से चूकींलेकिन उन्होंने देश की झोली में बैडमिंटन के जरिए रजत पदक डाल दिया। जब सिंधू गोल्ड पाने के लिए वल्र्ड नंबर-1 स्पेन की कैरोलिना मारिन से संर्घषरत थीउस समय भारत में जैसे पूरा देश सिंधूमय हो गया थालगा कि क्रिकेट के दीवाने देश में शायद पहली बार ऐसा हो रहा हैजब चौराहों पर क्रिकेट देखने के लिए नहींबैडमिंटन के लिए बड़ी-बड़ी स्क्रीन लगाकर लोग चिडिय़ा का आनंद ले रहे हैं और प्रार्थना कर रहे हैं कि पीवी सिंधू देश के लिए स्वर्ण पदक पा लेसिंधू हार गईंलेकिन फिर भी भारत की चांदी हो गई। किंतु जो खेल प्रेमी हैं और जिन्होंने सिंधू के इस फाइनल के पहले के मैच भी देखें हैं वे जरूर इस बात से सहमत होंगे कि हम स्वर्ण भी ला सकते थेयदि कैरोलिना मारिन की तरह मानसिक रूप से सिंधू भी तैयार होतीं। यहां उनके खेल या कोचिंग पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा रहासिर्फ बताने का प्रयास यह है कि जिस प्रकार मारिन ने दूसरे और तीसरे सेट में अपने हाव-भावों का प्रदर्शन किया और जैसे ही उन पर हारने का दबाव बनतावे कोर्ट से बाहर निकलकर कहीं पानी पीने लगती तो कभी तौलिया रगड़ती नजर आतींइस बीच सिंधु अंदर मैदान में उनका इंतजार कर रही होती। इसी बीच सिंधु का धैर्य कहीं कमतर होता और उसका पूरा लाभ यह स्पेनिश खिलाड़ी उठा लेती।

हमारी आत्ममंथन की प्रक्रिया यहां से और गहरी हो जाती है। सिंधू भले ही ओलंपिक के लिए नई होंलेकिन वे छोटी-मोटी खिलाड़ी बिल्कुल नहीं हैं। 18 की उम्र में वर्ल्‍ड चैंपियनशिप में ब्रॉन्ज और अर्जुन अवॉर्ड20 में पद्मश्री प्राप्त कर चुकी खिलाड़ी हैं। जब वह भी स्वर्ण से चूक सकती हैं तो अन्य भारतीय खिलाड़ि‍यों के मनोबल का तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। इसलिए भारत को यदि अपनी आबादी के लिहाज सेसंसाधनों की बेहतरी से और आगे खेलों में अपनी दावेदारी को सशक्त बनाने के साथ ओलंपिक जैसे बड़े खेल मेलों में पदक तालिका का सुधार करना हैतो जरूर उसे देश की सामान्य मानसिकता से ऊपर उठने के लिए प्रभावी कदमों पर विचार करना होगा।

खिलाड़ी को दोयम दर्जे का मानने की जो आम भारतीय मानसिकता हैजिसे ज्‍यादातर घरों में देखा जा सकता है और अमूमन प्रतिभावान खिलाड़ि‍यों को अपने घरों में आए दिन झेलनी पड़ती है कि खेल से पेट नहीं भरने वालायह शोकियातौर पर ही सही हैसच पूछिए तो इससे उबरने के लिए प्रयत्नों की देश में आज सबसे ज्‍यादा जरूरत है। यदि विज्ञानवाणिज्‍यप्रबंधन और कला जैसे विषय जीवन में अर्थोपार्जन की सुनिश्चितता देने में सक्षम हैं तो कोई भी खेल जिसमें आप महारत हासिल कर लेते हैं आपको जीवन में रोजी-रोटी की कमी नहीं होने देगा। वर्तमान दौर में यह विश्‍वास देश में पैदा किया जाना अत्‍यधिक आवश्‍यक है।

वस्तुत: देश की नीति जब इस बात पर केंद्रित होकर बनाई जाएंगी तो निश्चित मानिए कि भारत कई स्वर्ण पदक लेकर हर खेल मेले से वापस लौटेगा। नहीं तो हम यूं ही एक और दो पदक पाने के लिए तरसते रहेंगे और चीनअमेरिकाजर्मनीरूसब्रिटेनजापानफ्रांसद. कोरियाइटलीऑस्ट्रेलिया को छोड़ दिया जाएतो भी अन्य छोटे देश नीदरलैण्ड, हंगरीब्राजीलस्पेनकैन्याक्रोशियाक्यूबा, कनाडाउजबेकिस्तानकजाकिस्ताकोलंबियाग्रीसडेन्मार्क, युक्रेनइरानसर्बियाटर्कीइंडोनेशियाथाइलैण्डजोर्जियाबेहरिनफिजीसिंगापुरमैक्सिकोमलेशियातजाकिस्तानल्गेरियाआयरलैण्डलिथुनियाबल्गेरिया और वेनिजुएला जैसे तमाम देशों से हम पदक तालिका में पीछे ही बने रहेंगे।

: डॉ. मयंक चतुर्वेदी

सोमवार, 15 अगस्त 2016

जाते-जाते तुम बहुत कुछ दे गए स्‍वामी जी..........


जीवन सतत है और देह क्षणभृंगुर।देह पंचमहाभूतों का सार तत्‍व है और यह देह तभी अपने आकार को प्राप्‍त करती है, जब चेतना इसमें प्रतिष्‍ठ‍ित होती है। मृत्‍यु लोक जीवन के नानाविध रूपों के प्रकटीकरण का आश्रयस्‍थल है। जहां न जाने कितने प्रकार के जीव अपने स्‍वरूपों में स्‍वधर्म के साथ गोचर हो रहे हैं। हर किसी का अपना सत्‍य और यथार्थ है, दूसरी ओर सत्‍य यह भी है कि प्रत्‍येक जीव किसी विशेष उद्देश्‍य की पूर्ति के लिए ही देह धारण कर अपना अस्‍तित्‍व प्रकट कर रहा है। कुछ लोग एक जीवन में या कुछ जीवन प्राप्‍त कर अपने जीवनोद्देश्‍य को प्राप्‍त कर लेते हैं और कुछ को इसे प्राप्‍त करने में कई जन्‍मों की जरूरत होती है। इस सतत चलने वाली श्रंखला में महान वही है जो इस बात को समझकर अपना जीवन व्‍यवहार परस्‍पर करे कि मृत्‍यु लोक में कोई अमर नहीं, काल किस रूप में कब आ जाए और अपने साथ ले जाए कुछ कहा नहीं जा सकता, इसलिए जीवन में परमार्थ के रास्‍ते पर चलना ही श्रेयस्‍कर है। जो यह जानकार कार्य करने में सफल होता है वही इस संसार में महान कहलाता है। दूसरी ओर इस महानता को प्राप्‍त करने का हक सभी को समान रूप से प्रकृति ने दिया है।

हमारे बीच स्वामीनारायण संप्रदाय के प्रमुख स्वामी महाराज शांतिलाल पटेल नहीं रहे। जब तक एक व्‍यक्‍ति के रूप में स्‍वामी जी जीवित रहे, उन्‍होंने अपने जीवन का एक-एक क्षण दूसरों के दुखों को हरने में लगा दिया। मंगल की कामना और उस मंगलमय सुख को प्रत्‍यक्ष कर देना ही मानो, स्‍वामी जी के जीवन का ध्‍येय बन गया हो। लेकिन आज उनके हमारे बीच से हमेशा के लिए चले जाने के बाद यह अहसास हो रहा है कि हमने क्‍या खो दिया है । उनको पास से जानने वाले और दूर से जानने वाले दोनों को अभी तक यह भरोसा ही नहीं हो रहा है कि स्‍वामी महाराज देह रूप से सदा के लिए मुक्‍त हो गए हैं और अब वे हमारे बीच प्रत्‍यक्ष कभी नहीं आएंगे।

स्वामी जी महाराज का जन्म 7 दिसम्बर 1921 को वडोदरा जिले में पादरा तहसील के चाणसद गांव में हुआ था। उन्‍होंने युवावस्था में ही आध्यात्म का मार्ग अंगीकार कर लिया । वे शास्त्री महाराज के शिष्य बने और 10 जनवरी 1940 को नारायणस्वरूपदासजी के रूप में उन्होंने अपना आध्यात्मिक सफर शुरू किया। साल 1950 में मात्र 28 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने बीएपीएस के प्रमुख का पद संभाल लिया था। इस समय बीएपीएस में उनकी उम्र की तुलना में अनेकों बड़े संत थे, लेकिन स्वामी की साधुता, नम्रता, करुणा और सेवाभाव को देखकर-समझकर ही बड़े स्‍वामी ने उन्हें यह पद दिया था।

स्‍वामी जी की ओजस्‍विता और प्रखरता के दर्शन इस बात से भी होते हैं कि उन्‍होंने अपने एक जीवन में ही देश और विदेश लंदन से लेकर न्यूजर्सी और शिकागो से लेकर दक्षिण अफ्रीका के कई देशों में 11 हजार से अधिक भारतीय वास्‍तु आधारित मंदिरों का निर्माण कराया और भारतीय दर्शन-आध्‍यात्‍म की दृष्‍ट‍ि से वे अंतरराष्ट्रीय नेता के रूप में प्रसिद्ध‍ि प्राप्‍त करने में सफल रहे। उन्‍हीं की प्रेरणा से अमेरिका के न्यूजर्सी में बन रहा एक मंदिर तो दुनिया में हिंदुओं के सबसे बड़े मंदिर के रूप में आकार ले रहा है। यह मंदिर 162 एकड़ में बनाया जा रहा है। जिसका कि निर्माण कार्य 2017 तक पूरा होगा। स्वामी नारायण संप्रदाय की ख्‍याति केवल मंदिर निर्माण के लिए ही नहीं है, इसके अनुयायी अपने गुरू स्‍वामी भगवान के साथ श्रीकृष्ण और श्रीराधा  की अराधना करते हैं। इस संप्रदाय में हुए अभी तक के संतों का अपना योगदान है, लेकिन इन सब के बीच जो कार्य स्वामी महाराज शांतिलाल पटेल कर गए हैं, उन्‍हें स‍दियों गुजरजाने के बाद भी याद रखा जाएगा।

भले ही हिंदूओं के इस स्वामीनारायण संप्रदाय की शुरूआत 1830 में स्वामी सहजानंद ने की हो और उनसे लेकर आगे के गुरुओं की लम्‍बी श्रंखला का जोर धार्मिक सदभावना के साथ समाज सुधार पर रहा हो किंतु हम सभी के बीच से गए स्‍वामी नारायणस्वरूपदासजी का कार्य अविस्‍मरणीय है। उनके द्वारा बनवाया गया गांधी नगर का अक्षरधाम मंदिर हो या नई दिल्ली  में बना स्वामिनारायण अक्षरधाम मन्दिर, वस्‍तुत: यह भारतीय संस्‍कृति की विशालता का दिगदर्शन कराने वाला एक अनोखा सांस्कृतिक तीर्थ स्‍थल है। इसे ज्योतिर्धर भगवान स्वामिनारायण की पुण्य स्मृति में बनवाया गया था। इस परिसर की भव्‍यता इसके 100 एकड़ भूमि के 86 हजार 342 वर्ग फुट परिसर में फैले होने और अब तक के दुनिया के सबसे विशाल हिंदू मन्दिर होने के नाते गिनीज बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिका‌र्ड्स में शामिल होने से भी है।

इस विशाल मंदिर में बने दश द्वार दसों दिशाओं के प्रतीक के रूप में वैदिक शुभकामनाओं को प्रतिबिंबित करते हैं। दूसरी ओर भक्ति द्वार परंपरागत भारतीय शैली का है, जिसमें भक्ति एवं उपासना के 208 स्वरूप मंडित हैं। मंदिर के मयूर द्वार में कलामंडित स्तंभों के साथ जुड़कर 869 मोर नृत्य कर रहे हैं। यह शिल्पकला की अत्योत्तम कृति है। इसी प्रकार मंदिर में श्रीहरि चरणार्विंद, अक्षरधाम मंदिर 356 फुट लंबा 316 फुट चौड़ा तथा 141 फुट ऊंचा बनाया गया है, साथ ही अक्षरधाम महालय, मुख्य मूर्ति इत्‍यादि प्रतिमाएं निर्मित की गई हैं। इन मंदिरों की लम्‍बी श्रंखला निर्माण के अलावा प्रमुख स्‍वामी महाराज को योगदान इस दृष्‍ट‍ि से भी विशेष है कि उन्‍होंने अपने जीवन के रहते 65 वर्ष के कार्यकाल में देश विदेश के 70 हजार से अधिक गांव व शहरों का भ्रमण करते हुए नशामुक्ति एवं संस्‍कार सिंचन के लिए 9 हजार 90 संस्कार केन्द्र खुलवाने के साथ ही 55 हजार ऐसे स्वयंसेवकों का निर्माण किया जो देश में आई किसी भी प्राकृतिक आपदा या अन्‍य प्रकार की समस्‍याओं से निपटने के लिए सदैव तैयार रहते हैं । वे भी अपने पूर्वत गुरुओं की तरह अपने जीतेजी अपना उत्तराधिकारी बना गए हैं। प्रमुख स्वामी ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में स्वामी केशवजीवन दास महाराज को चुना है। उन्‍होंने इन्‍हें वर्ष 2012 में अपना उत्तराधिकारी बना दिया था।

स्‍वामी जी कि विशाल दृष्टि और भव्‍यता के दिग्‍दर्शन उस समय भी हुए जब 24 सितंबर 2002 को गांधीनगर के अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकी हमले के बावजूद आपने सांप्रदायिक सौहार्द की वकालत की। यही कारण था कि पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय एपीजे अब्दुल कलाम जैसे तमाम लोग उन्‍हें जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठकर अपना गुरु मानते रहे। आज भले ही देह रूप में स्‍वामी जी हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनके कार्य, बताया गया रास्‍ता निश्‍चित ही सदियों तक भारत के आध्‍यात्‍म क्षेत्र को प्रेरणा देता रहेगा। भारतीय कला, संस्‍कृति के जो जीवित स्‍मारक उन्‍होंने खड़े किए हैं, वे हजारों वर्ष बीच जाने के बाद भी यही ज्ञान देते रहेंगे कि जब तक जीवन और देह है, नर से नारायण बन जाओ, सुचिता पूर्ण कर्मफल से इस जीव जगत में छा जाओ।

श्रद्धेय स्‍वामी जी को शत-शत नमन् ।

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

  

रविवार, 14 अगस्त 2016


काश, भारत को भी गांधी के शरीर में लिंकन मिल जाते

ये काश आज भारत की उस त्रासदी से जुड़ा है, जो भारत विभाजन की विभीषिका का स्याह पन्ना  है। भारत का विभाजन हुआ यह सभी ने देखा, कहा जाता है कि नीयति ही उस दिन की ऐसी थी, पहले से सब कुछ तय था । पटकथा लिखी जा चुकी थी, परिवर्तन की संभावना शुन्य  थी। लेकिन इतिहास तो ऐसे कई उदाहरणों से भरा पड़ा है, जब पूर्ण बेग विपरीत दिशा में था उसके बाद भी परिवर्तन संभव हो सके, जो कहीं वर्तमान में दिखाई नहीं देते थे।

भारत विभाजन का एक सच यह भी है, यदि उस समय देश को महात्मा गांधी के रूप में अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रतपति अब्राहम लिंकन मिले होते तो शायद यह देश खण्डा-खण्ड  होने से बच जाता । दुनिया जानती है कि अमेरिका में गृहयु्द्ध किस चरम पर रहा है, किंतु लिंकन ने परिस्‍थ‍ियों को सतत प्रयास करते हुए राष्ट्राहित में अपने कब्जे  में कर लिया था। वहीं दूसरी ओर इन परिस्‍थ‍ितियों से दो-चार होता कांग्रेस का भारतीय नेतृत्व  था, जिसने देश का विभाजन इस भय से कि कलकत्ता के डारेक्ट  एक्शन की तरह कहीं और ऐसा न हो विभाजन स्वीकार कर लिया,  लेकिन परिणाम क्या  हुआ ? वही जिस भय से यह विभाजन स्वीकार्य किया गया था। देश का विभाजन भी हो गया और लाखों लोगों को सम्‍पत्‍त‍ि , घर-द्वार यहां तक कि जानें तक गवांनी पड़ीं। 

द्वि‍तीय विश्वह युद्ध के बाद अंग्रेजों का भारत छोड़कर जाना अपरिहार्य हो गया था, किंतु भारत विभाजन बिल्कुल अपरिहार्य नहीं था। यह तथ्य आज सभी को जानना चाहिए कि कराची में प्रवेश करते समय जिन्ना  ने अपने ए.डी.सी. से क्या कहा। उसने कहा कि ‘मैंने कल्पंना तक नहीं की थी कि ऐसा होगा। मुझे आशा नहीं थी कि जीते जी पाकिस्ता‍न देख सकूंगा’ 

जब भारत पर पहला आक्रमण करने वाला सिकंदर 3 साल में विश्व विजय का अपना स्वप्न त्यागकर भारत से हार मानते हुए पलायन करने को विवश हो गया। जब उसके बाद कुषाण, बर्बर शक और हूण आए तो वे सभी हमेशा-हमेशा के लिए भारत के होकर यहां की संस्कृति के साथ आत्मसात हो सकते हैं तब बाद में आया इस्लाम जिससे कि लगातार 800 वर्षों से भारतीय मेधा और पौरुष संघर्ष कर रहा था, उसे क्यों  नहीं यह भारतीय संस्कृति-धर्मध्वजा आत्मसात कर सकती थी। यदि इसका कोई उत्तर होगा तो वह यही होगा कि समय के साथ अवश्यं ही भारतीय संस्कृति में इस्लाम स्वयं को आत्मसात पाता, क्यों  कि यही भारतीय धरा की खासीयत है। लेकिन अफसोस कि ऐसा हुआ नहीं। 

इस्लाम का जहाजी बेड़ा सात समुद्रों को तो बेरोकटोक पार कर गया और अजेय रहा, पर जब वह हिन्दुस्तान पहुंचा तो गंगा के पानी में डूब गया था, किंतु उसे बाहर निकालने का कार्य जितना अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति पर अमल करके किया, उससे ज्यादा कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं के बयानों, उनके निर्णयों और कई बार अनिर्णय की स्‍थ‍िति में बने रहने के कारण, यह जहाज गंगा में डूबने के बाद भी बाहर निकल आया। 
हिन्दू और मुस्लिम दो अलग संस्कृतियां हैं  ये कभी एक साथ नहीं रह सकती इसलिए दो धर्म, दो देश,  दो निशान के आधार पर देश का बंटवारा होकर रहेगा, यह कहना और इस सिद्धांत के सामने नतमस्तक हो जाना तत्कालीन नेतृत्व  की कौन सी समझदारी थी, यह बात पिछले 69 सालों में आज तक समझ नहीं आई है। कत्ल और विद्रोह के भय से यदि यह निर्णय लिया गया है तब तो यह  निश्‍चित ही बहुत दुखान्त  है। इसलिए यहां कहा जा रहा है कि इस देश को गांधी के रूप में लिंकन का नैतृत्व मिलना चाहिए था, जिसने कि गृहयुद्ध में अपने देश की अखण्डता बनाए रखने के लिए हजारो जीवन कुर्बान कर दिए लेकिन अमेरिका को खण्ड-खण्ड नहीं होने दिया। 

यह बात इसलिए भी तर्कसंगत है, क्योंकि लाहौर में हुए 1929-30 के कांग्रेसी अधिवेशन में 31 दिसम्बर को रावी के तट पर जवाहरलाल नेहरू से अपनी अध्यक्षता में सभी कांग्रेस नेताओं के जरिए देश वासियों को पूर्ण स्वाधीनता की प्रतिज्ञा दिलाई थी। किंतु खेद का विषय है कि जिस रावी के तट पर यह प्रतिज्ञा ली गई, आजाद भारत में वह रावी नदी कहीं नहीं है। उस प्रतिज्ञा के कर्णधार महात्माह गांधी और पं. नेहरू यहां तक कि अन्य  दिग्गज कांग्रेसी भी 14 अगस्त 1947 को ली गई अपनी ही पूर्व प्रतिज्ञा भूल गए। 

1940 में जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान संबंधी प्रस्ताव स्वीकार्य किया था। इस मांग पर महात्मा गांधी ने हरिजन समाचार पत्र में कुछ इस तरह समय-समय पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। दो राष्ट्रों  का सिद्धांत बेतुका है...जिन्हें  ईश्वर ने एक बनाया है, उन्हें मनुष्य क्या कभी बांट सकेगा ? 

इसी में अन्य एक जगह लिखा... बंटवारे का अर्थ है सच्चाई से मुंह मोड़ना । मेरी समुची आत्मा इस विचार से विद्रोह कर रही है। मेरे विचार से ऐसे सिद्धांतों को स्वीकार करना ईश्वर को नकारना है । मैं हर अहिंसात्मक  उपाय से इसे रोकूंगा, क्योंकि इसका अर्थ है एक राष्ट्र के रूप में साथ-साथ रहने के लिए अनगिनत हिन्दू और मुसलमानों ने सदियों तक जो परिश्रम किया है, उस पर पानी फेर देना। 

इससे इतर महात्मा गांधी का ही एक और उदाहरण लें, वे हरिजन में लिखते हैं और कई जगह अपने भाषणों में भी कोड करते हैं कि .....भारत का दो भागों में बंटवारा तो अराजकता से भी भयंकर है। इस अंग-भंग को सहन नहीं किया जा सकता। भारत के टुकड़े करने से पहले मेरे टुकड़े कर डालो।.......

कांग्रेस के एक अन्य लीडर डॉ.राजेन्द्र  प्रसाद ने तत्कालीन समय 1945 में अपने कारावास के दौरान ‘इण्डिया डिवाइडेड’ नाम से पुस्तक लिखी थी, उन्होंने बड़े ही तार्किक ढंग से जिसमें कि भौगोलिक, आर्थि‍क, रक्षात्मक, सामाजिक, ऐतिहासिक सभी दृष्‍ट‍िकोण एवं विश्लेषण समाहित थे के माध्‍यम से यह बताया था कि किस तरह पाकिस्तान की मांग अव्यवहारिक है। लेकिन हुआ क्या वे दो साल बाद ही खंडित आजादी प्राप्त भारत के पहले राष्ट्रपति बने। 

आज भारत के विभाजन के लिए किसे दोषी माना जाए ? तत्कालीन नेतृत्व  को या अकेले  महात्मा गांधी को जिनमें कि समुचा भारत अपनी पूर्ण निष्ठा‍ रखता था और जिनके अड़े रहने पर कभी देश विभाजि‍न होना संभव नहीं होता, भले ही आजादी 1 या 2 साल आगे मिलती। 

जिन्ना और उस जमाने के मुस्लिम लीग के नेता सही कहते थे कि वे खुद नहीं समझ पा रहे हैं कि पाकिस्ता‍न हकीकत बन चुका है। हमारे लिए तो यह केवल सत्ता में अधिक हक पाने से ज्यादा कुछ नहीं था। काश, भारत का नेतृत्व  सही निर्णय लेता ? 

फिर भी आशा बलवती है। यदि हजारों वर्ष बाद भी दुनियाभर में फेले यहूदी अपना देश इजराइल पा सकते हैं और कई पीढ़ियों के गुजरजाने के पश्चात येरुशलम में मिल सकते हैं तो जरूर हम भारतीयों को अपनी आशा बनाए रखनी होगी। आज नहीं तो कल रावी का तट हमारा होगा। लव-कुश का लाहौर और हिन्दुएकुश पर्वत भी वृहद भारत होगा। अखण्ड भारत दिवास्वप्न  नहीं, भविष्य के गर्त में छिपा हमारा संकल्प है, जो आज नहीं तो कल साकार रूप अवश्य लेगा, क्योंकि यदि भारत का विभाजन एक त्रासद नीयति थी तो उसका समापन एक सुखद भविष्य है। यही है हमारी पीढ़ि‍यों की जि‍जीविषा का सत्य, परम सत्य‍, सुखद अनुभूति से पूर्ण सत्य । 

इति शुभम् 
डॉ. मयंक चतुर्वेदी 

लोकेन्‍द्र पाराशर का भाजपा प्रदेश मीडिया प्रमुख बनना

दैनिक स्‍वदेश ग्‍वालियर से पत्रकारिता करते हुए अपनी प्रदेश व्‍यापी और देश व्‍यापी पहचान बनाने वाले पत्रकार लोकेन्‍द्र पाराशर भारतीय जनता पार्टी मध्‍यप्रदेश संगठन में प्रदेश मीडिया प्रमुख बने हैं। यह समाचार जैसे ही मिला, ह्दय को आनंद की अनुुभूति कई स्‍तरों पर हुई । यह आनंद इसलिए भ्‍ाी है कि कभी ग्‍वालियर से निकलकर प्रभात जी ने भी अपनी पहचान इसी प्रकार प्रदेश व्‍यापी फिर राष्‍ट्रव्‍यापी बनाई है । वे भी ग्‍वालियर की धरती से पत्रकारिता शुरू करते हुए भाजपा के संवाद प्रमुख बने । स्‍वदेश उनकी भी कर्मस्‍थली था और उससे उन्‍हें इतना नाम मिला कि भाजपा को अपने लिए वे श्रेयस्‍कर महसूस हुए। आज उसी ग्‍वालियर की धरती से एक पत्रकार के रूप में अपना अभी तक का जीवन दे चुके लोकेंद्र जी का चयन भाजपा ने अपने लिए प्रदेश संवाद प्रमुख के रूप में किया है। 

वास्‍तव में यहां इतिहास और वर्तमान की तुलना यूं ही नहीं हो रही। श्री प्रभात जी जैसे इस पद से जुड़े श्रेष्‍ठ इतिहास हैं तो लोकेंद्र जी वर्तमान । दोनों में समानताएं अपार हैं, खासकर संघर्ष के स्‍तर पर । एक छोटे से ग्राम से आकर ग्‍वालियर में अपना जीवन आगे ले जाते हुए पत्रकारिता में महारत हासिल कर भाजपा जैैसी राष्‍ट्रव्‍यापी पार्टी जिसकी कि केंद्र में और देश के कई राज्‍यों में सत्‍ता है, प्रदेश मीडिया प्रभारी हो जाना कम छोटी बात तो बिल्‍कुल नहीं है। लोकेंद्र जी उस संघर्ष का जीता जागता उदाहरण हैं।

इसी प्रकार श्री प्रभात जी को जो नजदीक से जानते हैंं, वे बता सकते हैं कि उनका जीवन भी कितना कंंटकाकीर्ण रहा है लेकिन उनकी यह खासीयत कि अपने से जुड़े एक-एक व्‍यक्‍ति की चिंता ठीक उसी प्रकार करों जैसे कि तुम अपने परिवार से जुड़े सदस्‍यों की करते हो ने उन्‍हें भाजपा में लगातार आगे बढ़ाया है। वे अब इस स्‍तर पर पहुंंच गए हैंं कि जहां पद और पतिष्‍ठा भी बौनी है, जहां अब भाव का और श्रद्धा का बोलबाला है। कार्यकर्ता या वह व्‍यक्‍ति जो उनसे एक बार मिला और जुड़ा प्रभात जी ने हमेशा के लिए उसे अपना बना लिया । यदि यही बात लोकेन्‍द्र जी के लिए कही जाए तो कहना होगा कि संवाद बनाने और उसे लगातार स्‍थ‍िर रखने में उनकी भी कोई सानी नहीं है। 

लोकेंद्र जी का भाजपा में प्रदेश मीडिया प्रमुख बनना यह भी बताता है कि संघर्ष कभी व्‍यर्थ नहीं जाता। आप जब अपने विचार संगठन में कार्य कर रहे हैं तो हो सकता है कि कई कठिनाईयां आएं, जब कठिनाइयां आती हैं तो लगता है कि कहीं मेरा निर्णय तो गलत नहीं था जो मैं यहां आ गया । लेेकिन जो होता है, वह अच्‍छे के लिए होता है । कई बार हमारे साथ तत्‍काल में घटने वाली घटनाओं के पीछे और उसमें निहित भविष्‍य को हम नहीं देख पाते । यह तो समय के साथ तय होता है।

इस मौके पर मुझे स्‍वामी नारायण संप्रदाय के प्रमुख जो कल ही हमारे बीच से देह त्‍याग करके ईश्‍वर तत्‍व में विलीन हुए हैं से जुड़ा एक संस्‍मरण ध्‍यान आ रहा है, जब भारत के पूर्व राष्‍ट्रपति एपीजे अब्‍दुल कलाम निराशा के क्षणों में मिले थे, तब उन्‍होंने यही संदेश  कलाम सहाब को दिया था कि तुम्‍हारी बनाई मिसाइल फैल नहीं हुई है असल में तुम्‍हें अभी इससे भी बड़ा कार्य करना है, इसलिए यह प्रकृति तुम्‍हें उस बड़े कार्य के लिए असफलता का स्‍वाद चखा कर सतत संघर्ष और प्रयत्‍नशील रहने के लिए तैयार कर रही है, और इसके बाद की कहानी तो हम सभ्‍ाी को पता है । श्री कलाम जी देश के मिलाइल मेन भी बने और  राष्‍ट्रपति भी । 

श्री प्रभात जी और लोकेन्‍द्र जी कम से कम मुझ जैसे को लिए तो प्रेरणा पुंज हैं। संगठन का गुण विशेषकर पत्रकारिता करते हुुए सभी को साथ लेकर चलने की कला यह मुझे अप्रत्‍यक्ष रूप से अब तक सिखाते आए हैं। हर बार मिलने पर ऊर्जा से भर देने वाला उनका आत्‍मिक स्‍पर्श निश्‍चित ही श्रेयस्‍कर और अपनत्‍व से भर देनेे वाला है। 

आदणीय भाईसाहब, लोकेंद्र जी को मेरी ओर से इस पद के लिए कोटि-कोटि शुभकामनाएं हैं । 

इति शुभम् 

डॉ. मयंक चतुर्वेदी 

रविवार, 7 अगस्त 2016

प्रधानमंत्री की आहत होती भावनाएंं

देश में इन दिनों जिस तरह एक के बाद एक वैमन्‍य फैलाने वाली घटनाएं घट रही हैं, उन्‍होंने देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किस तरह से आहत किया है, यह उनके हैदराबाद में भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच संवेदनात्‍मक चिंता व्‍यक्‍त करते हुए भावनात्‍मक रूप से कही गई बातों से स्‍पष्‍ट होता है।

वास्‍तव में सर्व पंथ सद्भाव की संस्‍कृति को पोषित और पल्‍लवित करने वाले देश भारत में इस तरह की घटनाओं का लगातार बढ़ना निश्‍चित ही निराशाजनक और चिंता का विषय है। आखिर वह कौन सी ताकते हैं जो इस तरह की घटनाओं को हवा देकर देश के शांतिमय माहौल को बिगाड़ने पर तुली हुई हैं ?  प्रधानमंत्री मोदी ने सही कहा है कि केंद्र की सरकार के जो प्रयास पिछले दिनों सर्व जन हिताय और सर्व जन सुखाय की मंश से किए गए हैं, उनसे सभी के विकास का रास्‍ता प्रशस्‍त हुआ है, लेकिन दूसरी ओर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो इन प्रयासों से खुश हैं। वस्‍तुत: राजनीतिक स्‍तर पर इस प्रकार के लोग केंद्र की भाजपा सरकार को सदैव किसी न किसी मुद्दे पर कटघरे में रखना चाहते हैं।

सभी ने देखा भी है कि जब विहार के चुनाव हुए तो किस तरह मोदी विरोधी और भाजपा विरोधियों ने स्‍यापा किया था और बढ़ा-चढ़ाकर यह दर्शाने का प्रयत्‍न किया था कि देश में साम्‍प्रदायिक सौहार्द एवं सामाजिक तानाबाना इन दिनों खतरे में है। सभी जानते हैं कि बिहार चुनाव से पहले हैदराबाद में हुई रोहित वेमुला की खुदकशी की घटना को खूब तूल दिया गया था। इसके बाद दूसरी बार यह असम चुनावों के वक्‍त देखने को मिला था, हांलाकि इस बार मोदी विरोधी अपने मंसूबों में सफल नहीं हो सके, लेकिन उन्‍होंने केंद्र सरकार के विरुद्ध माहौल बनाने का तो भरसक प्रयत्‍न किया ही था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दलितों के ऊपर हो रहे हमलों को लेकर जो कहा, वस्‍तुत: उसे देश के हर उस भारतीय को समझना होगा जो अपने देश से उतना ही प्रेम करते हैं जितना कि मर्यादा पुरुषोत्‍तम श्रीराम ने यह कहकर स्‍पष्‍ट किया था कि "अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥"   संस्‍कृत के इस श्‍लोक को अर्थ के साथ समझें तो लंका पर विजय हासिल करने के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मन से कहा, यह सोने की लंका मुझे किसी तरह से प्रभावित नहीं कर रही है। माँ और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर हैं। वास्‍तव में जो लोग दलितों को वोट बैंक के रूप में देखते है, उन्‍हें श्रीराम की कही यह बात आज ज्‍यादा समझने की जरूरत है।

प्रधानमंत्री मोदी ने सही कहते हैं कि भाजपा सरकार द्वारा दलितों के लिए उठाए गए कदमों से उनके विरोधि‍यों में घबराहट है। वे दलितों को प्रभावित करने के लिए ऐसे मुद्दे उठाते रहते हैं। मोदी यहीं नहीं रूके, वे भावनात्‍मक होकर इतना तक कह गए कि  "ऐसे तमाम लोगों से मैं कहना चाहता हूं कि यदि तुम्हें हमला ही करना है, तो मुझे निशाना बनाओ। यदि तुम्हें गोली मारनी है, तो मुझे मार दो। लेकिन मेरे दलित भाइयों पर हमले मत करो।"  

संवेदना से भरे इन वाक्‍यों से समझा जा सकता है कि देश का प्रधानसेवक इन घटनाओं से किस हद तक आहत हुआ है। मोदी आज कुछ गलत नहीं कह रहे हैं कि जो लोग इन मुद्दों को तूल देना चाहते हैं, उन्हें राजनीति छोड़ देनी चाहिए। विभाजनकारी राजनीति से किसी तरह देश का भला नहीं हो सकता। जहां तक गाय की सुरक्षा की बात है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सभी से यही अपील की है कि वे ऐसे फर्जी गोरक्षकों से सावधान रहें, जिन्‍हें गायों की सुरक्षा से कोई लेना-देना नहीं,  गोरक्षा के नाम पर ये लोग शांति और सद्भाव का माहौल बिगाड़ना चाहते हैं।

डॉ. मयंंक चतुर्वेदी