मध्यप्रदेश पुलिस की
छवि वैसे तो सहयोगात्मक है, यदि अन्य राज्यों की पुलिस के साथ मध्यप्रदेश
पुलिस की तुलना की जाए तो भी राज्य की पुलिस का ओहदा खासकर जनता जनार्दन को
दिए जाने वाले अपने सहयोग के मामले में अव्वल ही प्रतीत होता है। किंतु
जिस तरह से पिछले कुछ महीनों से यहां पुलिस और जनता के बीच घटनाएँ घट रही
हैं, उनको देख और सुनकर लगता है कि अब यह बीते दिनों की बात होने वाली है।
देश में जैसे उत्तरप्रदेश, बिहार राज्यों की पुलिस अपने कार्यों को लेकर
बदनाम है, वैसे ही प्रदेश में घट रहीं हालिया घटनाओं से मध्यप्रदेश पुलिस
पर भी उसी प्रकार बदनामी के आरोप लग रहे हैं। इसे और क्या कहा जाए कि
राजधानी जहां स्वयं मुख्यमंत्री, गृहमंत्री से लेकर तमाम अफसरशाही निवास
करती है, वहाँ इस तरह की घटनाएं हों। पुलिस देर रात अपने घर जा रहे
पत्रकारों का नाम सिमी जैसे आतंकी संगठन के साथ जोडकऱ उनके साथ दुरव्यवहार
करे।
पत्रकार विजय प्रभात शुक्ला और कृष्णमोहन तिवारी को पुलिस
द्वारा पूरी रात थाने में ले जाकर पीटा गया, उनसे कहा गया कि तुम दोनों
सिमी के आतंकी हो, एटीएम उखाडऩे आए थे। करीब ढ़ाई घंटे तीन पुलिसकर्मियों
ने दोनों को लात-घूंसों और डंडों से इतना मारा कि पीडि़तों को जेपी अस्पताल
में भर्ती करवाना पड़ा। यह भी अच्छा हुआ कि घटना की ऑडियो रिकॉडिंग मौजूद
है, क्योंकि जब यह घटना हो रही थी, तभी किसी तरह कृष्णमोहन तिवारी ने अपने
मोबाइल की रिकॉडिंग चालू कर ली थी। जिसमें साफ सुनाई दे रहा है कि
पुलिसकर्मियों ने किस तरह बर्बरता की है। नहीं तो हो सकता है कि पुलिस
कर्मचारी अपने साथियों को बचाने के लिए पत्रकारों पर मड़े आरोपों को सही
ठहराने के लिए जुट जाती।
अब भले ही बात जब मीडिया तक पहुँची तो उन पुलिस कर्मियों पर कार्रवाही की गई है, लेकिन प्रश्र यह है कि ऐसी परिस्थितियाँ बनी ही क्यों? क्या पुलिसवालों को यह समझ में नहीं आता कि कौन गुण्डा है और कौन शरीफ ? जब वे अपना परिचय पत्र दिखा रहे थे तो क्यों नहीं भरोसा किया गया। चलो, मान लेते हैं कि परिचय पत्र झूठे हो सकते हैं, तो क्या उनके ऑफिस के फोन नम्बर पर या उनके सम्पादक का नाम और मोबाइल नंबर लेकर इन पुलिसवालों को नहीं पूछना चाहिए था कि हकीकत क्या है? ये सही में तो सही नहीं बोल रहे। लेकिन पुलिस की ओर से ऐसा कुछ नहीं किया गया। क्यों कि शराब में जो धुत थे ये पुलिस कर्मी।
सोचने वाली बात यह है कि जब टीव्ही में पुलिस के प्रयासों का अपराधियों को पकडऩे से संबंधित फिल्मांकन दिखाया जाता है, तब उसे देखकर यही लगता है कि पुलिस जनता की सही मायनों में हमदर्द है। पीडि़त के लिए पुलिस वाले भी किसी चिकित्सक की तरह भगवान से कम नहीं हैं। अपने अथक प्रयत्नों से पीडि़त पक्ष को इंसाफ दिलाते ही हैं, किंतु इस तरह की घटनाएँ वास्तव में आम जनता के विश्वास को तोडऩे का कार्य करती हैं। जनता कम से कम पुलिस से तो यह उम्मीद कतई नहीं करती कि रक्षक ही उसके लिए भक्षक बन जाएं।
प्रदेश पर यदि पिछले कुछ माह और साल पर नजर डाली जाए तो यह बखूबी स्पष्ट हो जाता है कि पुलिस कर्मियो और आम जनता के बीच इस तरह के मामलों में बढ़ोत्तरी हुई है। पिछले माह इंदौर में पुलिस ने आरएसएस की शाखा में जाने वाले दो बच्चों की बुरी तरह पिटाई कर दी थी। बाद में इससे गुस्साए संघ कार्यकर्ताओं ने हीरा नगर थाने का घेराव कर दिया था। पुलिसवालों पर आरोप था कि शाखा में शामिल होने वाले बच्चे मुकुल व आकाश को थाने पर पदस्थ दो पुलिसकर्मियों ने रोककर पीटा।
ऐसा ही एक मामला गोहद पुलिस से जुड़ा है, जहां मंत्री को खुद हस्तक्षेप करना पड़ा था। यहां वार्ड 3 घनश्याम पुरा में एक पिता ने पुलिस पर बेटे के साथ मारपीट करने का आरोप लगाते हुए राज्यमंत्री लालसिंह आर्य से शिकायत की थी। पीडि़त परिवार राज्यमंत्री श्री आर्य से शिकायत करने पहुंचा तो श्री आर्य ने अपनी गाड़ी में घायल युवक को बिठाकर तुरंत अस्पताल में एडमिट कराया। पिता ने बताया था कि उनका बेटा घर के बाहर नीम के पेड़ के नीचे बैठा था तभी पुलिस ने उसके साथ बेरहमी के साथ मारपीट कर दी, बिना यह जाने कि उसने कोई अपराध किया भी है या नहीं।
भोपाल में घटी यह घटना भी लोगों के जहन से अभी नहीं निकली है, जिसमें कि गोविंदपुरा इलाके में नशे में धुत एक पुलिसकर्मी ने एक अंधे बुजुर्ग को बेरहमी से पीटा था। कसूर बस इतना था कि उसका धक्का पुलिसकर्मी को लग गया था। पुलिस वाले ने बुजुर्ग को जमीन पर पटककर लात-घूसों और छड़ी से बुरी तरह मारा था। बुजुर्ग को पिटता देख आसपास के लोग जमा हो गए और एंबुलेंस को सूचना दी। एंबुलेंस घायल को जेपी अस्पताल ले गई थी। इसके बाद भी थाना पुलिस ने मामला दबाने के लिए बुजुर्ग पर दबाव तक बनाया।
वर्ष 2014 में ऐसा ही मीडिया कर्मी से जुड़ा मामला भोपाल में सामने आया था जिसमें कि टीटी नगर पुलिस थाने में कवरेज के दौरान एक मीडियाकर्मी से पुलिसकर्मियों ने मारपीट शुरू कर दी थी। घटना के वक्त एक महिला सुनवाई नहीं होने से परेशान होकर आत्मदाह का प्रयास कर रही थी और इसी दौरान मीडियाकर्मी अजय वर्मा वहां कवरेज कर रहे थे। अजय को पुलिस कर्मी घसीटते हुए थाने के अंदर ले गए, जहां उनसे मारपीट की गई। इसके कारण अजय की हालत इतनी बिगड़ी कि जेपी अस्पताल में उन्हें आईसीयू तक में भर्ती किया गया। इसी वर्ष शिवपुरी में पुलिस की बर्बरता सामने आई जब महिला की जमकर पिटाई कर दी गई। मामला यह था कि प्रदेश के करेरा कस्बे के पास खैराकोटिया गांव की महिलाएं सडक़ जामकर एक व्यक्ति की हत्या का मामला दर्ज कराने के लिए प्रदर्शन कर रही थीं। तभी एक पुलिस अधिकारी ने अपना आपा खो दिया और एक महिला की जमकर पिटाई कर डाली। यह पूरा वाकया कैमरे पर कैद हो गया। जिसे बाद में पूरे प्रदेश ने देखा।
इस साल की एक घटना का यहां जिक्र करना और उचित होगा। इंदौर में पुलिस का ऐसा बर्बर चेहरा उजागर हुआ, जिस पर सामान्यत: कोई भरोसा नहीं करता लेकिन इन पुलिसवालों की करतूत घर में लगे सीसीटीवी में कैद हो गयी थी। घर के अंदर लगे सीसीटीवी में दो पुलिस वाले घर में घुसकर एक युवक को बेरहमी से पीटते दिखाई दिए। घटना अन्नपूर्णा थाना इलाके के वैशाली नगर की है। जहां दोपहर में विनोद दूबे अपने परिचित के घर मातम में शामिल होने पहुंचे थे। वह कार पार्क कर उनके मकान में घुस ही रहे थे कि तभी राजेन्द्र नगर थाने में पदस्थ आरक्षक संजीव यादव और यशवंत गहलोत वहां पहुंचे। दोनों ने विनोद के साथ गाली गलौच करते हुए मारपीट शुरू कर दी। दोनों सिपाहियों ने उस पर इस तरह से हमला किया जैसे वह कोई बड़ा अपराधी हो या किसी संगीन जुर्म को अंजाम देकर फरार हो गया हो। देर रात पुलिस ने थाने से उसे मुचलके पर छोड़ा। इसमें जानना चाहिए कि विनोद का कसूर क्या था?
विनोद ने बताया कि वैशाली नगर जाते हुए रास्ते में उसकी कार से एक बाइक को हल्की सी कट लग गई थी, लेकिन न तो बाइक का कुछ नुकसान हुआ था और न किसी को चोट लगी थी। इसी बात पर बिनोद को बेरहमी से पीटा गया। हालांकि हकीकत सामने आने के बाद दोनों पुलिसवालों को सस्पेंड कर दिया गया। लेकिन प्रश्न यही है कि ऐसी स्थितियाँ बनती हीं क्यों हैं? पुलिस क्यों आम नागरिकों को अपने निशाने पर लेती है।
इसका मतलब यह नहीं कि पुलिस को उसकी तहकीकात से कोई रोकना चाहता है। पुलिस अपना काम करे, जरूर करे, अपनी ओर से संदेह होने पर जांच-पड़ताल में कोई कसर न छोड़े, किंतु अपनी तहकीकात करते समय यह भी देख ले कि जिसे वह सजा देने जा रही है या संदेह जता रही है, सही मायनों में वह अपराधी है भी कि नहीं।
मुख्यमंत्रीजी, समय रहते पुलिस की इस कार्यप्रणाली को सुधारिए, कहीं ऐसा न हो कि बिहार में नीतीश सरकार के जंगलराज की तरह मध्यप्रदेश में भी कुछ दिनों में असामाजिकता, विशेषकर पुलिस महकमें में हावी हो जाए, और इस प्रकार निर्दोशों के साथ किया जाने वाला पुलीसिया आचरण आपके लोकप्रशासन पर प्रश्र चिह्न खड़ा करता रहे।
अब भले ही बात जब मीडिया तक पहुँची तो उन पुलिस कर्मियों पर कार्रवाही की गई है, लेकिन प्रश्र यह है कि ऐसी परिस्थितियाँ बनी ही क्यों? क्या पुलिसवालों को यह समझ में नहीं आता कि कौन गुण्डा है और कौन शरीफ ? जब वे अपना परिचय पत्र दिखा रहे थे तो क्यों नहीं भरोसा किया गया। चलो, मान लेते हैं कि परिचय पत्र झूठे हो सकते हैं, तो क्या उनके ऑफिस के फोन नम्बर पर या उनके सम्पादक का नाम और मोबाइल नंबर लेकर इन पुलिसवालों को नहीं पूछना चाहिए था कि हकीकत क्या है? ये सही में तो सही नहीं बोल रहे। लेकिन पुलिस की ओर से ऐसा कुछ नहीं किया गया। क्यों कि शराब में जो धुत थे ये पुलिस कर्मी।
सोचने वाली बात यह है कि जब टीव्ही में पुलिस के प्रयासों का अपराधियों को पकडऩे से संबंधित फिल्मांकन दिखाया जाता है, तब उसे देखकर यही लगता है कि पुलिस जनता की सही मायनों में हमदर्द है। पीडि़त के लिए पुलिस वाले भी किसी चिकित्सक की तरह भगवान से कम नहीं हैं। अपने अथक प्रयत्नों से पीडि़त पक्ष को इंसाफ दिलाते ही हैं, किंतु इस तरह की घटनाएँ वास्तव में आम जनता के विश्वास को तोडऩे का कार्य करती हैं। जनता कम से कम पुलिस से तो यह उम्मीद कतई नहीं करती कि रक्षक ही उसके लिए भक्षक बन जाएं।
प्रदेश पर यदि पिछले कुछ माह और साल पर नजर डाली जाए तो यह बखूबी स्पष्ट हो जाता है कि पुलिस कर्मियो और आम जनता के बीच इस तरह के मामलों में बढ़ोत्तरी हुई है। पिछले माह इंदौर में पुलिस ने आरएसएस की शाखा में जाने वाले दो बच्चों की बुरी तरह पिटाई कर दी थी। बाद में इससे गुस्साए संघ कार्यकर्ताओं ने हीरा नगर थाने का घेराव कर दिया था। पुलिसवालों पर आरोप था कि शाखा में शामिल होने वाले बच्चे मुकुल व आकाश को थाने पर पदस्थ दो पुलिसकर्मियों ने रोककर पीटा।
ऐसा ही एक मामला गोहद पुलिस से जुड़ा है, जहां मंत्री को खुद हस्तक्षेप करना पड़ा था। यहां वार्ड 3 घनश्याम पुरा में एक पिता ने पुलिस पर बेटे के साथ मारपीट करने का आरोप लगाते हुए राज्यमंत्री लालसिंह आर्य से शिकायत की थी। पीडि़त परिवार राज्यमंत्री श्री आर्य से शिकायत करने पहुंचा तो श्री आर्य ने अपनी गाड़ी में घायल युवक को बिठाकर तुरंत अस्पताल में एडमिट कराया। पिता ने बताया था कि उनका बेटा घर के बाहर नीम के पेड़ के नीचे बैठा था तभी पुलिस ने उसके साथ बेरहमी के साथ मारपीट कर दी, बिना यह जाने कि उसने कोई अपराध किया भी है या नहीं।
भोपाल में घटी यह घटना भी लोगों के जहन से अभी नहीं निकली है, जिसमें कि गोविंदपुरा इलाके में नशे में धुत एक पुलिसकर्मी ने एक अंधे बुजुर्ग को बेरहमी से पीटा था। कसूर बस इतना था कि उसका धक्का पुलिसकर्मी को लग गया था। पुलिस वाले ने बुजुर्ग को जमीन पर पटककर लात-घूसों और छड़ी से बुरी तरह मारा था। बुजुर्ग को पिटता देख आसपास के लोग जमा हो गए और एंबुलेंस को सूचना दी। एंबुलेंस घायल को जेपी अस्पताल ले गई थी। इसके बाद भी थाना पुलिस ने मामला दबाने के लिए बुजुर्ग पर दबाव तक बनाया।
वर्ष 2014 में ऐसा ही मीडिया कर्मी से जुड़ा मामला भोपाल में सामने आया था जिसमें कि टीटी नगर पुलिस थाने में कवरेज के दौरान एक मीडियाकर्मी से पुलिसकर्मियों ने मारपीट शुरू कर दी थी। घटना के वक्त एक महिला सुनवाई नहीं होने से परेशान होकर आत्मदाह का प्रयास कर रही थी और इसी दौरान मीडियाकर्मी अजय वर्मा वहां कवरेज कर रहे थे। अजय को पुलिस कर्मी घसीटते हुए थाने के अंदर ले गए, जहां उनसे मारपीट की गई। इसके कारण अजय की हालत इतनी बिगड़ी कि जेपी अस्पताल में उन्हें आईसीयू तक में भर्ती किया गया। इसी वर्ष शिवपुरी में पुलिस की बर्बरता सामने आई जब महिला की जमकर पिटाई कर दी गई। मामला यह था कि प्रदेश के करेरा कस्बे के पास खैराकोटिया गांव की महिलाएं सडक़ जामकर एक व्यक्ति की हत्या का मामला दर्ज कराने के लिए प्रदर्शन कर रही थीं। तभी एक पुलिस अधिकारी ने अपना आपा खो दिया और एक महिला की जमकर पिटाई कर डाली। यह पूरा वाकया कैमरे पर कैद हो गया। जिसे बाद में पूरे प्रदेश ने देखा।
इस साल की एक घटना का यहां जिक्र करना और उचित होगा। इंदौर में पुलिस का ऐसा बर्बर चेहरा उजागर हुआ, जिस पर सामान्यत: कोई भरोसा नहीं करता लेकिन इन पुलिसवालों की करतूत घर में लगे सीसीटीवी में कैद हो गयी थी। घर के अंदर लगे सीसीटीवी में दो पुलिस वाले घर में घुसकर एक युवक को बेरहमी से पीटते दिखाई दिए। घटना अन्नपूर्णा थाना इलाके के वैशाली नगर की है। जहां दोपहर में विनोद दूबे अपने परिचित के घर मातम में शामिल होने पहुंचे थे। वह कार पार्क कर उनके मकान में घुस ही रहे थे कि तभी राजेन्द्र नगर थाने में पदस्थ आरक्षक संजीव यादव और यशवंत गहलोत वहां पहुंचे। दोनों ने विनोद के साथ गाली गलौच करते हुए मारपीट शुरू कर दी। दोनों सिपाहियों ने उस पर इस तरह से हमला किया जैसे वह कोई बड़ा अपराधी हो या किसी संगीन जुर्म को अंजाम देकर फरार हो गया हो। देर रात पुलिस ने थाने से उसे मुचलके पर छोड़ा। इसमें जानना चाहिए कि विनोद का कसूर क्या था?
विनोद ने बताया कि वैशाली नगर जाते हुए रास्ते में उसकी कार से एक बाइक को हल्की सी कट लग गई थी, लेकिन न तो बाइक का कुछ नुकसान हुआ था और न किसी को चोट लगी थी। इसी बात पर बिनोद को बेरहमी से पीटा गया। हालांकि हकीकत सामने आने के बाद दोनों पुलिसवालों को सस्पेंड कर दिया गया। लेकिन प्रश्न यही है कि ऐसी स्थितियाँ बनती हीं क्यों हैं? पुलिस क्यों आम नागरिकों को अपने निशाने पर लेती है।
इसका मतलब यह नहीं कि पुलिस को उसकी तहकीकात से कोई रोकना चाहता है। पुलिस अपना काम करे, जरूर करे, अपनी ओर से संदेह होने पर जांच-पड़ताल में कोई कसर न छोड़े, किंतु अपनी तहकीकात करते समय यह भी देख ले कि जिसे वह सजा देने जा रही है या संदेह जता रही है, सही मायनों में वह अपराधी है भी कि नहीं।
मुख्यमंत्रीजी, समय रहते पुलिस की इस कार्यप्रणाली को सुधारिए, कहीं ऐसा न हो कि बिहार में नीतीश सरकार के जंगलराज की तरह मध्यप्रदेश में भी कुछ दिनों में असामाजिकता, विशेषकर पुलिस महकमें में हावी हो जाए, और इस प्रकार निर्दोशों के साथ किया जाने वाला पुलीसिया आचरण आपके लोकप्रशासन पर प्रश्र चिह्न खड़ा करता रहे।
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