शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

महाराष्ट्र में भाजपा-शि‍वसेना गठबंधन की स्वीकार्यता : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के परिणामों आने के बाद दिन पर दिन गुजरते जा रहे हैं, लेकिन स्पष्ट जनादेश नहीं मिलने से सरकार कैसे और किसकी बने, इसे लेकर लगातार राजनैतिक पार्टियों में माथापच्ची चल रही है। यहां उम्मीद से इतर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह सबसे पहले प्रदेश की सबसे ज्यादा सीटें पाने वाली भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन पहल की पेशकश की और उसके बाद जो राजनैतिक परिदृष्य बदला, उसे देखकर अब लगने लगा है कि राजनीति में कुछ भी संभव है।

भाजपा को आज यह समझना होगा कि महाराष्ट्र में बिना शर्त अपना समर्थन देने के लिए जिस तरह एनसीपी सामने आई है, उसके आगे के आशय क्या हो सकते हैं ? बीजेपी नेताओं ने एनसीपी के करप्ट नेताओं को जेल भेजने का वादा महाराष्ट्र के मतदाताओं से किया है। अब अगर उसी पार्टी के नेताओं के समर्थन से बीजेपी सरकार बनाएगी तो जेल किसे भेजेगी?राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का अभी तक का इतिहास तो यही बताता है कि उसने आजतक अपने निर्माण के बाद से किसी को भी बिना शर्त समर्थन नहीं दिया है। बल्कि, वह जिस पार्टी के साथ गई है उससे पूरी कीमत वसूली है। फिर अचानक भाजपा पर मेहरबान क्यों हो रही है। सच्चाई यही है कि एनसीपी महराष्ट्र में बीजेपी को समर्थन देकर अपने दिग्गज नेताओं अजीत पवार, प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल को बचाना चाहती है।

पूर्व उप-मुख्यमंत्री अजीत पवार और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष व पूर्व सिंचाई मंत्री सुनील तटकरे 70 हजार करोड़ रुपये के सिंचाई घोटाले में फसें हैं, पूर्व पीडब्ल्यूडी मंत्री छगन भुजबल पर नई दिल्ली में महराष्ट्र सदन के जीर्णोद्धार की लागत में इजाफा कर भ्रष्टाचार करने का आरोप है। दरअसल, ऐंटि करप्शन ब्यूरो (एसीबी) ने राज्य सरकार से इन दोनों पूर्व मंत्रियों के खिलाफ जांच का आदेश मांगा है। ब्यूरो की फाइल मंत्रालय में है। पार्टी को डर है कि प्रफुल्ल पटेल के उड्डयन मंत्री रहते एयर इंडिया की दुर्दशा के लिए उनकी गर्दन दबोची जा सकती है। पूर्व महालेखाकार (सीएजी) विनोद राय ने अपनी किताब 'नॉट जस्ट एन अकाउंटेंटः द डायरी ऑफ नेशंस कॉन्शन्स कीपर' में भी एयर इंडिया के लिए खरीदे जानेवाले नए हवाई जहाजों की संख्या 28 से बढ़ाकर 68 किए जाने के पटेल के फैसले पर सवाल उठाया है।

जानकारी तो यहां तक आ रही है कि एनसीपी ने न केवल बाहर से समर्थन देने की बात कही है बल्कि अपने प्रस्ताव में यह तक कह दिया है कि भाजपा जब सदन में अपना बहुमत सिद्ध करेगी वह सदन में उपसि्थत ही नहीं होगी ताकि भाजपा अपना बहुमत सरलता से सिद्ध कर सके। शि‍वसेना का समर्थन लिए बगैर कैसे अल्पमत में भारतीय जनता पार्टी अपनी सरकार महाराष्ट्र में चला सकती है इसका फार्मुला भी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की और से भाजपा के नेताओं को सुझाया गया है। लेकिन यहां प्रश्न यही है कि क्या यह प्रदेश के हित में होगा ? महाराष्ट्र की जनता ने जो भी जैसा भी जनादेश दिया है, क्या यह उसका सम्मान है ?

वस्तुत: भाजपा यहां भले ही आज अपने लिए स्वतंत्र माहौल का विकल्प तलाश रही हो लेकिन सच यही है कि शि‍वसेना और भाजपा गठबंधन ही महाराष्ट्र के लिए स्वभाविक सत्ता एवं राजनीतिक विकल्प हैं। ऐसा मानने और कहने के पीछे कई सार्थक तर्क आज दिए जा सकते हैं अव्वल तो देश तथा राज्य दोनों स्तरों पर ये दोनों पार्टियां ऐसी हैं जो आर्थि‍क, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट, देश में समान आचार सहिंता जैसे तमाम विषयों में एक जैसी सहमति रखती हैं वहीं दोनों ही पार्टियों की छवि हिन्दूवादी है।

महाराष्ट्र में इन दोनों राजनैतिक दलों में यदि एक को बड़ा भाई और दूसरा छोटा भाई है कहा जाए तो गलत ना होगा । 25 वर्षों से राज्य की राजनीति में एक-दूसरे का साथ निभाते आ रहे इन दोनों दलों में मनमुटाव की सि्थति पहली बार बनी हो ऐसा भी नहीं है। 1989 में भाजपा नेता प्रमोद महाजन और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे के प्रयासों से ये गठबंधन जब हुआ था तब 1991 से ऐसी परिि‍स्थतियां बनना शुरू हो गई थीं कि दोनों दल कई विषयों को लेकर विरोधी बयान देते थे। दोनों के बीच विरोध के स्वर तब शुरू हुए थे जब उस समय छगन भुजबल ने शिवसेना छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया था और विधानसभा में शिवसेना के सदस्यों की संख्या भाजपा से कम हो गई थीऐसे में भाजपा ने भी अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन करते हुए तब गोपीनाथ मुंडे ने विधानसभा में विपक्ष के नेता पद का दावा ठोंक दिया जिसे लेकर शिवसेना असहज हो उठी थी।

इसके बाद ऐसे ही हालात साल 2005 में उपजे, जब नारायण राणे ने शिवसेना का दामन छोड़ दिया था। जिस पर शिवसेना ने विपक्ष के नेता के रूप में रामदास कदम को आगे किया लेकिन भाजपा को यह रास नहीं आया, क्यों कि उसका कहना था कि विधानसभा में उसके सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण यह पद उसे मिलना चाहिए।

महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के अलावा लोकसभा चुनाव के वक्त भी इन दोनों पार्टियों के बीच की रार बाहर निकलकर आई थी 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान शिवसेना को राज ठाकरे के नेतृत्व वाले एमएनएस ने घेरना शुरू कर दिया और भाजपा उससे अपने संबंध मजबूत करने मे लगी हुई थी। यह बात शि‍वसेना नहीं पचा पा रही थी। इस कारण दोनों दलों के बीच मनमुटाव बढ़ा।

जब इस बार के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नितिन गडकरी ने राज ठाकरे के घर जाकर उनसे बात की तब तो सभी को लगने लगा था कि अब इस गठबंधन को कोई नहीं बचा सकता। भाजपा के इस क़दम के बाद शिवसेना ने ऐलान कर दिया था कि वह एनडीए से बाहर जाएगी। लेकिन क्या हुआ, सभी ने देखा, केंद्र में दोनों का गठबंधन लाख विरोधाभासों के बाद भी बना हुआ है। मोदी मंत्रिमंडल में अनंत गीते सोलहवीं लोक सभा के सांसद तथा केन्द्रीय मंत्रीमण्डल में भारी उद्योग तथा सार्वजनिक उद्यमिता मंत्री हैं।जब उद्धव ठाकरे ने कहा था कि पीएम मोदी के अमेरिका से लौटने के बाद मंत्रिपद से अनंत गीते उन्हें अपना इस्तीफा सौंपेंगे, वह बात भी सार्वजनिक बयान देकर आगे स्वयं अनंत गीते ने स्पष्ट कर दी थी कि वे मोदी मंत्रीमण्डल में बने रहेंगे, क्यों कि केंद्र में शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन अटूट है।शुरू से अभी तक के दोनों पार्टियों के आपसी संवाद को देखकर भले ही देश और विशेषकर कुछ समय तक के लिए महाराष्ट्र की जनता में यह भ्रम हो जाए कि ये गठबंधन ज्यादा दिन साथ नहीं चलनेवाला लेकिन सच तो यही है कि देखते-देखते दोनों के पच्चीस वर्ष साथ निभाने के गुजर चुके हैं।

हां राज्य में जरूर इन बार के विधानसभा चुनावों के पहले दोनों से विलग होने के कारण जग जाहिर हैं लेकिन इसे भी कोई नकार नहीं सकता कि यदि यह दोनों दल महाराष्ट्र में साथ रहकर चुनाव लड़ते तो आज नज़ारा कुछ और होता। शि‍वसेना का कहना कुछ गलत नहीं है कि कांग्रेस- एनसीपी को 25 सीटें भी लाना भारी पड़ जाता। क्यों कि जिस तरह वोटों का विकेंद्रीकरण हुआ है उससे सबसे ज्यादा नुकसान भी यदि आज किसी को हुआ है तो महाराष्ट्र की ये दोनों राजनैतिक पार्टियां भाजपा और शि‍वसेना ही हैं। भले ही फिर मोदी-शाह की जोड़ी तथा भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व यह स्वीकार न करें लेकिन सच तो सच ही रहेगा।

वास्तव में देखा जाए तो महाराष्ट्र की राजनीति में यह दोनों दल एक-दूसरे के पूरक ही हैं, यह बात सार्वजनिक तौर पर आज दोनों में से कोई न माने लेकिन हकीकत यही है। किसी को शक है तो पिछला रिकार्ड उठाकर देखा जा सकता है जिसमें मराठी मानुस की बात छोड़ दी जाए तो क्या भाजपा और क्या शि‍वसेना दोनों के राष्ट्रीय और राज्यीक मुद्दे समानता के साथ उठाते हुए दिखाई देते हैं। दोनों ही पार्टियां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में अपना बीज तलाशती हैं। आर.एस.एस. की सद्भावना और कृपा दोनों के साथ समान हैंतभी तो सबसे पहले इनको लेकर संघ की प्रतिक्रिया सामने आई, जिसमें सांकेतिक रूप से कहा गया है कि यह गठबंधन कभी टूटना नहीं चाहिए। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी साफतौर पर कह चुके हैं कि भाजपा और शिवसेना का पुराना रिश्ता फिर से बहाल हो जाए तो अच्छा रहेगा। इस रिश्ते को नहीं टूटना चाहिए ।


चुनाव पूर्व शि‍वसेना के मुख्य पत्र सामना ने लिखा था कि
"पिछले 25 साल से कुर्सी के लिए नहीं बल्कि हिंदुत्व के लिए हमारी युति (गठबंधन) है. इस युति धर्म को याद करो और जब प्रचार शुरू होना चाहिए तब हम सीटों को लेकर खींचतान कर रहे हैं, ऐसी कर्मदरिद्रता मत करो "आज ऐसा स्पष्ट लिखने के पीछे के भाव को इन दोनों राजनैतिक पार्टियों के नेताओं को समझना ही होगा। यह पंक्तियां सभी भ्रमों को तोड़ते हुए साफ कर देती हैं कि इस गठबंधन की ताकत का आधार आखि‍र किस बात में निहित है।


वस्तुत: दोनों दल
हिंदुत्व को लेकर समानरूप से सोचते हैं यही उनकी ताकत भी है। अब अच्छी बात यह है कि भाजपा और शि‍वसेना ने संघ के इशारों को समझ लिया है और समझे भी क्यों ना। वास्तव में राजनीति में रहकर बहुत कुछ विषय ऐसे हैं जो सीधे-सीधे समझ में नहीं आते जितने कि बाहर से देखने पर उनकी हकीकत का पता चलता है। आज इसे कोई नहीं नकार सकता कि सार्वजनिक जीवन में रा.स्व.संघ की स्वीकार्यता किसी भी राजनैतिक मंच से ज्यादा है। ऐसे में संघ जैसा घर-घर पैठ रखने वाला संगठन सोचता है कि महाराष्ट्र के विकास के हित में भाजपा-शि‍वसेना गठबंधन का साथ बना रहना जरूरी है तो वह वास्तव में जरूरी है। वस्तुत: इसीलिए इन दोनों पार्टियों को अपने गिले शि‍कवे दूर कर एक दूसरे का साथ निभाने के मुद्दे पर मान जाना चाहिए। वास्तव में यही इन दोनों राज्य की मुख्य दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों और महाराष्ट्र की जनता के हित में होगा। 

महाराष्ट्र-हरियाणा चुनावों में मोदी मंत्र की सफलता : डॉ. मयंक चतुर्वेदी


लोकसभा चुनावों में तो सभी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनीतिक प्रबंधन देखा ही था लेकिन एक राष्ट्रीय राजनैतिक पार्टी की ताकत क्या होती है यह दो राज्यों के विधानसभा चुनावों के आए परिणामों ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है। अपने सफल नेतृत्व के माध्यम से नमो ने सभी को बता दिया कि भले ही विरोधी कुछ भी कहें वे राजनीति के महागुरू हैं। जब नरेंद्र मोदी की अगुवाई में लोकसभा चुनावों में परचम फहराने के कुछ ही महीनों के बाद भारतीय जनता पार्टी को उपचुनावों में बड़ा झटका लगा । जिसमें कि दस राज्यों में लोकसभा की तीन और विधानसभा की 33 सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे चौंकाने वाले रहे। तब सभी विरोधि‍यों ने कहना शुरू कर दिया था‍ कि मोदी का मैजिक खत्म हो गया किंतु उस वक्त नमो अपने सहयोगियों के साथ क्या रणनीति बनाने में लगे थे यह किसी को नहीं पता था।

वस्तुत: महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों के आए परिणामों को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। मोदी यह भलि-भांति समझते हैं कि सरकारों के निर्माण में उपचुनावों का बहुत महत्व नहीं, हां यदि महत्व होता है तो वह प्रतिपक्ष के लिए जरूर है, क्यों कि वहां सदन में संख्याबल बढ़ने से अपनी बात रखने में विपक्ष के नाते मजबूती मिलती है। इसलिए संभतया मोदी का पूरा ध्यान इस बात पर लगा रहा कि कैसे दो राज्यों के होने वाले विधानसभा चुनावों को भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में किया जाए। अब जब महाराष्ट्र और हरियाणा में हुए चुनावी परिणाम सामने हैं तो कहा जा सकता है कि न केवल उनकी पार्टी में बल्कि जनता के बीच भी लोकसभा चुनावों की तरह मोदी मंत्र का प्रबंधन जादू चल गया।

नमो यह अच्छी तरह जान गए हैं कि जीत का सेहरा अपने सिर बांधने के लिए प्रचार का क्या महत्व है। सोशल मीडिया और प्रचार मध्यमों का अपने पक्ष में उपयोग करने के बाद इस बार उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा में जो बेहतर प्रयोग किया, वह है अन्य राज्यों से पार्टी कार्यकर्ताओं को इन दो राज्यों में बुलाकर उनका स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ तालमेल बैठाकर चुनावी प्रचार में बेहतर उपयोग करना । अब इसके बेहतर और पार्टी पक्ष में सकारात्मक नतीजे सभी के सामने हैं। महाराष्ट्र में 288 सीटों के लिए और हरियाणा में 90 विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनावों में भारतीय जनता पार्टी 1 नम्बर की राजनैतिक पार्टी बनकर सामने आई है।

वस्तुत: यहां यह भी देखना लाजमी होगा कि आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनाव शुरू होने से लेकर अब तक के सफर में किस तरह अपनी टीम के खासमखास लोगों को भाजपा एवं अन्य जगह केंद्र बिन्दु बनाया और बनवाया। यह तो सिर्फ एक बानगी है कि पहले वह केंद्र की राजनीति में अपनी जीत मुकर्रर करने के लिए अमित शाह को उत्तर प्रदेश का चुनावी प्रभारी बनवाते हैं, क्यों कि वे यह जानते हैं कि देश में राजनीति की सफलता नब्ज यूपी से होकर गुजरती है। शाह का ही कमाल था कि उप्र में कांग्रेस के सफाए के साथ ही भाजपा ने वहां पर 80 में से 71 सीटें हासिल कीं। शाह की सार्वजनिक स्वीकार्यता करवाकर उन्हें फिर पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष की आसंदी पर पहुंचाना आखि‍र मोदीजी की दूरदिृष्ट ही तो कहलाएगी।

आज उत्तर प्रदेश की जीत के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा की जीत का सेहरा नमो के सहारे अमित शाह के सर बंध गया है जैसा मोदी चाहते थे। इस जीत के पीछे यह भी सही है कि स्वयं मोदी और अमित शाह की सटीक रणनीति, एग्रेसिव स्टाइल और उनकी एक खास टीम की कड़ी मेहनत का भी हाथ है, जो सामने न आकर पर्दे के पीछे से अपना काम करती रहती है।

महाराष्ट्र-हरियाणा चुनावों में मोदी टीम ने सफलता के लिए इस बार जो खास काम किया वह है अपने राष्ट्रीय संगठन की शक्ति का भरपूर उपयोग, जो कि अभी तक भाजपा नहीं कर सकी थी। जुलाई माह से ही मोदी टीम महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनावों की तैयारियों के लिए सक्रिय हो गई। पूरी-पूरी रात पार्टी के राज्य स्तर के नेताओं संग बैठ कर रणनीतियां बनाई गईं। भाजपा की झोली में हर एक वोट आए इसके लिए गहरे मंथन और निष्कर्ष का दौर शुरू हुआ। महाराष्ट्र में बीजेपी-शि‍वसेना गठबंधन टूटने के बाद तो परस्थितियाँ और भी चुनौतिपूर्ण थीं लेकिन नरेंद्र मोदी को अपने राष्ट्रीय संगठन पर भरोसा था। मोदी को लगता था कि यदि इन दोनों राज्यों के विधानसभा चुनावों में बाहरी प्रदेशों के पार्टी कर्यकर्ताओं का सही उपयोग किया जाएगा तो जीत उन्हीं की पार्टी की होगी, वस्तुत: देखा जाए तो हुआ भी यही। यहां आकर यदि बड़ी तादात में भाजपा समर्थक चुनाव प्रचार नहीं करते तो कभी भी चुनावी सर्वे उसके पक्ष में आनेवाले नहीं थे।

महाराष्ट्र के 8.35 करोड़ मतदाताओं में से करीब 64 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल 3 हजार 843 पुरुष और 276 महिला उम्मीदवारों के राजनीतिक भाग्य के लिए किया। हरियाणा में 1.63 करोड़ से अधिक मतदाताओं ने राज्य की 90 सदस्यीय विधानसभा के लिए रिकार्ड 76.54 फीसदी मतदान किया था। 1,351 उम्मीदवार चुनाव मैदान में जिनमें 116 महिला उम्मीदवार भी अपनी किस्मत आजमा रही थीं।
वस्तुत: केडरबैस पार्टी होने से क्या लाभ हैं, आज यह दोनों राज्यों के चुनावी परिणामों ने साफ बता दिया। अकेले भाजपा का चुनाव प्रचार करने महाराष्ट्र पहुंचने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या ढाई लाख से ऊपर थी। भाजपा-शि‍वसेना गठबंधन टूटने के बाद एनसीपी, शि‍वसेना और कांग्रेस के जिन विधानसभा गढ़ों में जहां कभी भाजपा कार्यकर्ता ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते थे इस बार ऐसा बिल्कुल नहीं दिखा । ऐसे सभी क्षेत्रों में बाहरी राज्यों आए भाजपा कार्यकर्ताओं ने इस बार चुनावी मोर्चा बहुत बेहतर तरीके से संभाल रखा था।

हालत यह हो गई थी कि मुंबई में यदि आप गौर करते तो हर चौथा आदमी चुनाव प्रचार में बाहर का नजर आ रहा था। यही हाल अमूमन पूरे प्रदेश का था। भाजपा ने इस बार इन दोनों राज्यों के चुनाव प्रचार के लिए जितने कार्यकर्ताओं से इसमें सहयोग करने का आग्रह किया था उसकी तुलना में कई गुना ज्यादा लोग महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव प्रचार के साक्षी बनने जा पहुंचे थे। जिनमें ज्यादातर लोग अपने खर्चे पर ही पार्टी का काम करते देखे गए ।

यदि इतनी बड़ी संख्या में भाजपा वॉलेंटियर नहीं आते तो कभी भी महाराष्ट्र में शि‍वसेना, कांग्रेस और एनसीपी का आत्मविश्वास कमजोर नहीं किया जा सकता था और ना हरियाणा जैसे जाट बहुल राज्य में भाजपा अकेले दम कांग्रेस और इनेलो को हाशिए पर ला पाती। करीब तीन दशकों में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए भाजपा ने 90 सदस्यीय हरियाणा विधानसभा चुनाव में 47 सीटें हासिल करके अपने बल पर बहुमत हासिल कर लिया। इससे पहले भाजपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1987 में था जब उसने 20 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 16 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इससे बेहतर चुनावी प्रदर्शन भाजपा यहां आज तक नहीं कर सकी थी। हरियाणा में पहली बार भाजपा की सरकार का बनना निश्चित ही मोदी मंत्र की सांगठनिक सफलता मानी जाएगी।

आज भले ही चुनाव से आए परिणाम महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार का सच बता रहे हों लेकिन यह भी उतना ही सच है कि भाजपा हरियाणा जैसे राज्य मे पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने जा रही है और महाराष्ट्र में वह कुल 288 सीटों में से 122 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है।

यहां हमें यह याद रखना होगा कि महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी इसके पहले राष्ट्रीय दल होने के बाद भी कभी यह हिम्मत नहीं कर पाई थी कि अपने दम पर अकेले चुनाव लड़े, उसे क्षेत्रीय दल का सहारा चाहिए ही था लेकिन यह प्रयोग मोदी ही पहली बार कर पाए और सभी को बता पाए कि सांगठनिक शक्ति के लिए अपने पैरों पर चलना ही भला होता है। तभी अपनी शक्ति का सही परिक्षण होता है तथा बाद में स्वयं पर सफलता का मान होता है।

वस्तुत: महाराष्ट्र-हरियाणा चुनावों को लेक‍र आज बार-बार यही कहा जाएगा कि यह अकेली भारतीय जनता पार्टी की सफलता नहीं मोदी के संगठनात्मक तंत्र के सही उपयोग के मंत्र की सफलता है।

सोमवार, 9 जून 2014

मध्यप्रदेश की तस्वीर बदलने में कामयाब शिवराज सिंह चौहान


भारतीय जनता पार्टी ने मध्यप्रदेश राज्य में पिछले अपने शासन के दौरान जो उपलब्धियाँ हासिल की हैं वह निश्चित ही उसे जनता की नजर में श्रेष्ठतम साबित करती हैं। प्रशासन, सत्ता संगठन का समन्वय जितना इन पिछले वषो में देखने को मिला वह अन्य राज्यों के लिए भी अनुकरणीय माना जा सकता है। कांग्रेस के शासनकाल में बीमारू राज्य की जो नकारात्मक पहचान देशभर में मध्यप्रदेश की बनी थी उस छवि से मुक्त करने का श्रेय आज भाजपा शासन को ही दिया जाएगा।


भाजपा नेताओं स्व. विजयाराजे सिंधिया, कुशाभाऊ ठाकरे, प्यारेलाल खंडेलवाल आदि के त्याग और समपर्ण के कारण इस सूबे में भाजपा की पहचान पार्टी विथ द डिफरेंस के लिए देशभर में बनी थी, लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के कुशल प्रशासन ने मप्र की तस्वीर को आज और बदलकर रख दिया है। वे मध्यप्रदेश में गैर कांग्रेस पार्टी के ऐसे पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में पाँच साल पूरे किए हैं। इन पाँच सालों में उन्होंने जो निर्णय लिए और कार्य करवाए उनसे आज प्रदेश का स्वरूप और तकदीर दोनों ही बदल चुकी हैं। मध्यप्रदेश अब बीमारू राज्य नहीं रहावह स्वर्णिम प्रदेश बनने की ओर अग्रसर है।

सामान्य कार्यकता की तरह बहुत छोटे स्तर से अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत करने वाले शिवराज सिंह एक तरफ वनवासियों की चिंता करने वाले मुख्यमंत्री हैं तो वहीं दूसरी तरफ किसानों और गरीबों की चिंता करने वाले भाजपा के आम कार्यकतार हैं। दारिद्र से मुक्त विकासयुक्त प्रदेश की कल्पना को साकार रूप देना ही मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह का संकल्प बना हुआ है। विकास उनका मिशन, समाज के पीडित, शोषित हर व्यक्ति की निरंतर सेवा उनका लक्ष्य है।

कभी यह प्रदेश विकास के स्तर पर देश के अग्रणीय दस राज्यों की सूची से बाहर हुआ करता था, लेकिन आज
मप्र की तस्वीर को बदलने का नतीजा है कि वह देश के पहले पाँच राज्यों में शुमार है, जिस गति से प्रदेश प्रगति कर रहा है उसको देखत्ो हुए भविष्य के मध्यप्रदेश का अंदाजा लगाया जाए तो यही कहना होगा कि यह प्रदेश शीघ्र ही देश का अग्रणी राज्य बनेगा।

मध्यप्रदेश को विकसित करने की चाहत तथा वंचितों और बेहसहारों को सहारा देने और उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोडने का जुनून ही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को सबसे अलग बनाता है। इसी श्रेष्ठ उद्देश्य के कारण उन्होंने बत्तौर मुख्यमंत्री प्रदेश की झोली में ऐसी ऐतिहासिक उपलब्धियाँ डाली, जिसके बारे में पहले शायद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा । मध्यप्रदेश जैसे बडे राज्य की जनता ने लगातार दूसरी बार श्री चौहान को मुख्यमंत्री बनाकर उनके प्रति अपने विश्वास को पुष्ट किया है। 

किसान पुत्र शिवराज सिंह चौहान ने अपने सरल स्वभाव, निश्चल व्यवहार, कृतित्व और व्यक्तित्व का विकास कुशाभाऊ ठाकरे के नेतृत्व में किया। संगठन णें जो काम उन्हें सौंपा उसका पूरी तत्परता से निर्वाह किया। आज उनकी पहचान जनोन्मुखी, विकास कार्यक्रमों के प्रणेता के साथ ही गरीबोन्मुखी, किसान हितौषी, मेहनतकशों के चहेतो, युवकों के मार्गदशक के रूप में है। लोकतंत्र में लोक की चिंता करत् हुए जनता के हित में लिए गये निर्णय शिवराज सिंह को एक अलग पहचान दिलात् हैं। सुरसा की तरह मुह फैलाती महंगाई डाइन से बचाने की सोच रखत् हुए गरीबों को तीन रुपए किलो की दर से गेहूँ और चार रुपए की दर से चावल उपलब्ध कराने जैसे निर्णय हों या ग्रामीणों तथा गरीबों के जीवन स्तर में सुधार के लिए मुख्यमंत्री आवास योजना, गाँवगाँव तक सडकों का जाल बिछाने के लिए मुख्यमंत्री सडक योजना, गरीबों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार की बात हो । वास्तव में मुख्यमंत्री के रूप में लिये गये शिवराज सिंह के निर्णय और कार्य उन्हें आम आदमी से जोडत् हैं। इसीलिए कोई उन्हें भैया कहता है तो कोई मामा।

बत्तौर  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली इस प्रदेश सरकार की उपलब्धियों पर एक नजर डालें तो उन्होंने मुख्यमंत्री बनत्ो ही न केवल सूबे को स्वर्णिम प्रदेश बनाने का स्वप्न देखा, बल्कि उसे यथार्थ में उतारने के लिए एक के बाद एक अनेक योजनाएँ लागू कीं। जैसे विकास दर में अन्य राज्यों से आगे निकलने के लिए किये गए प्रयास, जिसके परिणाम स्वरूप प्रदेश की जीडीपी 8.60 प्रतिशत हुई।

आज प्रदेश में प्रतिव्यक्ति आय 11870 रुपए से बढ़कर 15929 रुपए हो गयी है। स्वयं के संसाधनों की बदौलत आमदनी में तीनगुना और बजट में ढाई गुना वृदि्ध, प्रदेश की आमदनी 6 हजार करोड से बढ़कर 18 हजार करोड रुपए , उद्योग की अनुकूल परिस्थितियाँ और सुह संरचना का विकास, ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट के माध्यम से देशविदेश के उद्योगपतियों का ध्यान आकर्षण, प्रदेश में 2 लाख 35 हजार करोड रुपए से ज्यादा के औद्योगिक निवेश का आना, आमखास की समस्याओं से रूबरू होती समाधान ऑनलाइन, प्रदेशवासियों को समय सीमा के अंदर सेवा देने वाला मप्र लोक सेवा गारंटी प्रदाय कानून लागू करना, तकनीकी शिक्षा के मुख्य केंद्र के रूप में तोजी से प्रदेश का हब बनने की दिशा में आगे बना, महिलाओं को घरेलू हिंसा से निजात दिलाने के लिए कानून का प्रभावी क्रियान्वयन, स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण, लाडली लक्ष्मी, कन्यादान योजना, निशुल्क गणवेश व साइकिल वितरण योजना, बालिका शिक्षा, आंगनबाडी केंद्रों में किशोरी बालिका दिवस, गांँव की बेटी योजना, बालिका भ्रूण हत्या रोकने के कानून का कडाई से पालन, आंगनबाडी कार्यकतार्ओं और सहायिकाओं की बडी संख्या में भतीर्, किसानों को एक प्रतिशत पर ब्याज की उपलब्धता, पं. दीनदयाल उपचार योजना, स्कूल चलें जैसे तमाम कार्यक्रम, शहरी क्षेत्र की गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले परिवार की बालिकाओं की उच्चशिक्षा के लिए प्रतिभा किरण योजनाआदि ऐसी अनेक योजनाएँ इन पिछले पाँच सालों में बनीं हैं जिन्होंने सही अथोर्ं में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद को साकार रूप दिया है।

एक मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह चौहान ने सहीं अथोर्ं में जनता को भय और भूख से मुक्ति दिलाई है। वास्तव में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की भारतीय जनता पार्टी के लक्ष्य राष्टन्वाद की स्थापना के लिए पीठ थपथपाना चाहिए। वस्तुतः भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने उनपर भरोसा कर सुशासन और विकास के लिए उन्हें जो जिम्मेदारी सौंपी, उस पर वे खरे उतरे हैं। इतना तो तय है कि भारतीय जनता पार्टी अन्य राजनैतिक पार्टियों की तरह नहीं जहाँ नेतृत्व कार्यकतार्ओं के बीच से न होकर ऊपर से थोप दिया जाता है। भाजपा में आम कार्यकतार सिर्फ राज्यों का मुख्य कतार्धतार मुख्यमंत्री, प्रदेशाध्यक्ष ही नहीं बन सकता बल्कि देश के प्रधानमंत्री और अध्यक्ष के रूप में भी लीडरशिप संभाल सकता है।

नक्सली हिंसा, उभरते प्रश्न ?


आंध्र, छत्तीसगढ, झारखण्ड, बिहार, पश्चिमबंगाल, महाराष्टन् आदि राज्यों में माओवादी नक्सलियों का हिंसात्मक ताण्डव रूक-रूककर जिस तरह चल रहा है, उसने हमारे लोकतंत्रात्मक देश के सामने अनेक प्रश्न खडे कर दिये हैं। भारत के संविधान में स्पष्ट उल्लेख है कि यह गणराज्य जनता के लिए जनता द्वारा शासित है, जिसमें भारतीय जनता सर्वोपरि है। फिर किसी भी लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में उस राज्य की शक्तियाँ लोक (जन) में निहित होती हैं, निश्चित ही भारत भी इससे अछूता नहीं। यहाँ लोकतंत्र की शक्तिशाली जन आधारित राज्य व्यवस्था में जनता जिसे अपने सिर-माथे बैठाती है, जरूरत पडने पर उसे धूल चटाने में भी देरी नहीं करती।

आपातकाल के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी की हार, चहुँ ओर से कांग्रेस का सफाया लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में जनशक्ति का एक सबसे बडा उदाहरण माना जा सकता है, किंतु इतनी सहज और सर्वसुलभ व्यवस्था के प्रति आक्रोश के नाम पर देश के अनेक राज्यों में निरीह और निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार देने वाली नक्सली वारदातें आज भारत जैसे देश में सफल लोकतंत्र के लिए चुनौती बनकर उभरी हैं। केन्द्र सरकार की इनके स्थायी दमन की नीति के अभाव में माओवादी इन नक्सलियों के प्रभाव क्षेत्र में निरंतर विस्तार हो रहा है।

मार्क्स लेनिन माओत्सेतुंग को अपना आदर्श मानने वाले यह नक्सली सख्त कानून और सजा के अभाव में आज देश के 14 राज्यों के 200 से अधिक जिलों में अपना सघन विस्तार कर चुके हैं। दु:ख इस बात का है कि स्वयं को समाजवाद और गरीब, पिछडों का हमदर्द बताने वाले तथाकथित बौध्दिाक वर्ग का सहयोग इन्हें यह कहकर प्राप्त होता रहा है कि भारत में नक्सली अपने हक की लडाई लड रहे हैं, किन्तु सच्चाई इसके विपरीत है। एक अनुमान के अनुसार देश के 30 प्रतिशत हिस्से पर इनका कब्जा है। पिछले 40 वर्षों में यह माओवादी नक्सली एक लाख से अधिक बेगुनाह लोगों की हत्या कर चुके हैं और देश के 16 लाख लोग इनकी हिंसात्मक गतिविधियों के शिकार हुए हैं। 

जिस समाजवाद की स्थापना का यह स्वप्न देखते हैं और आगामी 50 वर्षों में भारत की सत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं तो इनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि यदि यह समाजवाद इतना ही अच्छा है तो इस विचार के जनक कार्ल हाइनरिख माक्र्स और उसके देश जर्मनी में यह क्यों नहीं आज तक पनप सका ? आखिर चीन क्यों आज, अमेरिका के पूंजीवादी रास्ते पर चल रहा है ? और फिर रूस इस साम्यवादी मॉडल को अपनाकर छिन्न-भिन्न क्यों हो गया ? यह नेपाल में क्यों नहीं अपनी सत्ता बना कर रख पाये ? आखिर क्यों भारत में भी पश्चिम बंगाल जनता ने सत्ता से इनका सफाया कर दिया। ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनके जबाव शायद ही कोई माक्र्स लेकिन और माओ जैसे समाजवादी प्रेमियों के पास हों।

भारत में यह माओवादी समाजवाद की कोरी स्थापना का जो स्वप्न दिखाते हैं, वस्तुत: उसका यथार्थ यह है कि इस स्वर्ग की सबसे पहले स्थापना कम्बोडिया, सोवियत संघ और चीन में की गई। इस कोरे स्वप्न को सकार करने के उद्देश्य से समाजवाद का घोर शत्रु मानकर अकेले सोवियत संघ में स्टालीन ने 30 करोड लोगों को मौत दे दी थी । यही काम माओत्सेतुंग ने चीन में किया उसने भी अपने विरोधियों तथा स्वतंत्र मत रखने वालों को राज्य विरोधी बताया और 4 करोड से अधिक चीनियों को मौत के घाट उतार दिया था। कम्बोडिया की स्थिति चीन तथा रूस से कम खराब नहीं थी। इस समाजवाद के तूफान ने वहाँ कि 30 प्रतिशत आबादी का लहू सडकों पर बहा दिया।

वास्तव में यहीं है इस माओवादी विचारधारा का असली चेहरा, जो अपने शत्रुओं को तो बहुत दूर की बात है अपनी तथ्य परक आलोचना करने वालों को भी बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। इस व्यवस्था में आलोचना एवं विरोध प्रदर्शन करने का अधिकार किसी को नहीं, जिसने ऐसा किया भी तो उसे बदले में सिर्फ मौत मिली है। यही है इस विचार का सच ! जिसे कोई नहीं नकार सकता है।

वस्तुत: इन माओवादी नक्सलियों के शिकार आज वह राज्य हो रहे हैं जो विकास में कहीं पिछडे हैं, जहाँ अधिकांश आबादी आदिवासी है। भारत में इनके निशाने पर जो राज्य हैं वह आदिवासी बहुल्य ही हैं। एक तरफ यह भोले आदिवासियों और ग्रामवासियों को राज्य सरकारों पर यह आरोप लगा कर भडकाते हैं कि राज्य को तुम्हारे विकास की चिंता नहीं, वहीं दूसरी ओर सडक, स्कूल, व्यापारिक केन्द्रों के निर्माण जैसे राज्य सरकारों द्वारा कराए जाने वाले विकास का विरोध करते हैं। राज्य यदि आज इनके कब्जे वाले क्षेत्रों में विकास योजनायें लेकर जाता है तो यह बारूदी सुरंग बिछाकर उसे उडा देते हैं। राज्य की जनकल्याणकारी योजनायें इनसे प्रभावित जिलों में आज इसलिए असफल हो रही हैं क्योंकि माओवादी यह नक्सली नहीं चाहते कि यहाँ अन्य जिलों की तरह विकास हो और आम आदमी सीधा राज्य से जुडे। इन्होंने आंध्र-उडीसा, छत्तीसगढ, महाराष्टन्, झारखण्ड, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश राज्यों के जंगलों में अपना कब्जा जमाया है वहाँ प्राकृतिक संपदा की भरकार है, सोना-चाँदी, अयस्क, हीरे, जवाहरात की बेश कीमती खदाने मौजूद हैं। देश की नेपाल सीमा तक खूनी खेल खेल रहे यह नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र से प्रतिवर्ष 25 से 30 अरब रूपये वसूल रहे हैं, जिससे न केवल इनकी असामाजिक गतिविधियाँ चलती है। बल्कि देशी-विदेशी हथियार खरीदने के साथ बुध्दिा जीवियों में यह धन का अत्यधिक उपयोग करते हुए अपनी पैठ जमाने में भी सफल हो जाते हैं।

प्रश्न सीधा सा है यदि यह नक्सलवादी अपनी जारी इस शासन विरोधी लडाई को सही मानते हैं और इसके पीछे तर्क देते हैं कि यह आदिवासियों तथा गरीबों के हक में लड रहे हैं तो यह कैसी लडाई और हक है। जिसमें यह नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्र में विकास के विरोधी हैं। यह जो इनके द्वारा करोडों-अरबों रूपए की वसूली अधिकरियों, कर्मचारियों, व्यापारियों तथा ठेकेदारों से की जा रही है यह वसूली किसके लिए और क्यों ? क्योंकि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में तो कोई गरीबों का भला होते इस वसूली के धन से अब तक देखा नहीं गयाहै । वास्तव में नक्सलियों को गरीबों से कोई लेनादेना नहीं, गरीबों का तो केवल नाम है, जिनके नाम का इस्तेमाल कर यह स्यापा करते हैं और मीडिया की सुर्खियाँ बटोरते हैं। माओवादी इन नक्सलियों का उद्देश्य भारत को टुकडों-टुकडों में बांट देना है, इनका मुख्य कार्य केवल इतना ही है कि तत्कालीन शासन व्यवस्था के विरोध में आमजन में जहर भरा जाए ताकि वह हथियार थामकर सत्ता प्राप्ति के उनके स्वप्न को साकार करने में मददगार साबित हो सके।

आज देश में नक्सलियों की संख्या हजारों में है, जिनके लिए मानवता की कोई कीमत नहीं, अब यह कुछ राज्यों तक ही सीमित नहीं रहना चाहते इनके संगठन पीपुल्सवार और एमसीसीआई आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, महाराष्टन्, उडीसा, झारखण्ड और पश्चिमबंगाल से निकलकर उत्तरप्रदेश , कर्नाटक और केरल में भी अपने कार्य के विस्तार में लगे हुए हैं।

वस्तव में आज देश को घोर अशान्ति की ओर ले जाने वाले इस साम्यवाद विचार पोषित नक्सलवाद की नकेल शीघ्र कसे जाने की जरूरत है। यदि नक्सलवाद को अभी ठोस कदम उठाकर नहीं रोका गया तो वह दिन दूर नहीं जब भारत भी सोवियत रूस की तरह अनेक भागों में विभक्त हो जाए।


आज जरूरत इस चुनौती से राज्य और केंद्र सरकार को एकजुट होकर लडने की है न कि एक दूसरे पर संसाधनों की कमी का रोना रोने और आरोप-प्रत्यारोप की। नक्सलवाद के खात्मे के लिए जिस संघीय व्यवस्था के निर्माण की बात वर्षों से केवल कागजों में चल रही है जरूरत अब उसे शीघ्र व्यवहार में लाने की है। इसके लिए सभी नक्सल प्रभावित राज्यों में जितनी जल्द सहमति बने उतना ही एक सम्प्रभू लोकतंत्रात्मक गणराज्य भारत के हित में होगा।


सैन्य नीति में बदलाव की जरूरत : डॉ. प्रणव पंड्या

                                                       
                                                           
                                              डॉ. प्रणव पंड्या से डॉ. मयंक चतुर्वेदी की बातचीत

भारत को आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं आत्मविश्वास से परिपूर्ण करने के उद्देश्य को लेकर देश के सभी ६२६ जिलों में कार्य करने वाली संस्था गायत्री परिवार पिछले ८५ वर्षों से लोक जागृति के कार्य में जुटी हुई है। पंडित श्रीराम आचार्य एवं भगवती देवी शर्मा के संयुक्त प्रयासों से १९२६ से शुरू हुए इस गायत्री परिवार की शाखाएं आज देश के कौने-कौने में हैं । वहीं विश्व के ७० देशों में १० करोड़ से ज्यादा की संख्या में लोग गायत्री मिशन से जुड़े हुए हैं। इस समय गायत्री परिवार के प्रमुख डॉ. प्रणव पंड्या हैं। जिन्होंने ‘हन्दुस्थान समाचार’ मध्यप्रदेश के ब्यूरो प्रमुख डॉ. मयंक चतुर्वेदी से बातचीत के दौरान खुलकर अपने मिशन के उद्देश्यों और कार्यों पर प्रकाश डाला।

प्रश्र- गायत्री परिवार भारतीय धर्म, संस्कृति के प्रचार-प्रसार के अलावा समाज सेवा से जुड़े अन्य कौन से सेवा कार्यों का संचालन कर रहा है?
उत्तर- समाज सेवा से जुड़े अनेक सेवा कार्य यथा नशा उन्मूलन, आदर्श विवाह, वृक्षारोपण, स्मृति उपवनों का निर्माण, शिक्षा और विद्या का सार्थक समन्वय, आदर्श ग्रामों का निर्माण जैसे कार्य सारे भारत में संचालित किये जाते हैं।

प्रश्र- धर्म और विज्ञान का समन्वय, इस पर प्रारंभ से ही गायत्री परिवार का जोर रहा है, पिछले वर्षों में इसे लेकर हुए अनुसंधानों के बारे में बताएं ?
उत्तर- धर्म और विज्ञान को लेकर जो अनुसंधान हुए हैं, उनकी उपलब्धियाँ बड़ी आश्चर्यजनक हैं। संस्कार, जीवन मूल्यों में परिवर्तन, यज्ञ और साधना के जो प्रभाव जीवन पर पड़ते हैं, उस पर हमने समय-समय पर अखंड ज्योति पत्रिका में विस्तार से प्रकाशित किया है। रिसर्च जनरल भी प्रकाशित हुए हैं।

प्रश्र- देश के सामने आप कौन-कौन सी समस्याओं को प्रमुख चुनौतियों के रूप में देखते हैं और क्या इनका समाधान संभव है?
उत्तर- देश के सामने जो आज सबसे बड़ी चुनौती है, वह है नैतिक मूल्यों का ह्रास, विचारों का प्रदूषण और जीवन में कृत्रिमता का समावेश। इनका समाधान एक ही है कि हम लोगों के विचारों को बदलें। चाहे वह भ्रष्टाचार हो या मुनाफाखोरी, परिवर्तन विचार क्रान्ति द्वारा ही संभव है।

प्रश्र- क्या देश के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के अनुसार २०२० में भारत वैश्विक शक्ति बनकर उभरेगा ?
उत्तर- पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने जो घोषणा की है कि २०२० में भारत वैश्विक शक्ति बनकर उभरेगा वह पूर्णतरूप सही है। अभी से उसके प्रमाण दिखाई देने लगे हैं। भारत के पास ज्ञान का बल है। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण हो गया तो नैतिकता के आधार पर भारत पूरे विश्व का मार्गदर्शन कर सकता है।

प्रश्र- यह माना जाए कि अमेरिका की तरह भारत ताकतवर होगा, जो आज विकास के उच्च धरातल पर पहुँचते ही आर्थिक संकट का बार-बार सामना कर रहा है।
उत्तर- भारत वैश्विक शक्ति बनेगा लेकिन अमेरिका की तरह नहीं। यह जगतगुरु स्तर की स्थिति होगी। आर्थिक समता का युग होगा, एकता का जमाना होगा और शुचिता का समावेश होगा।

प्रश्र- सुनने में आया है कि अमेरिकन राष्ट्रपति ओबामा अपने देश की समृद्घि को बनाए रखने और खुशहाली के लिए वैदिक मंत्रों का सहारा लेंगे। वह व्हाइट हाऊस में आपके मार्गदर्शन में शीघ्र ही यज्ञ करवाने वाले हैं, कितनी सच है, यह बात ? यह यज्ञ कब और किस माह में संपन्न होगा?
उत्तर- जो आपने सुना है वह सही है। यह प्रस्ताव आया है कि व्हाइट हाऊस में एक गायत्री यज्ञ हो। माह नवम्बर के अंत में यह संभव हो सकता है। इससे पूरे अमेरिका में वैदिक ज्ञान-विज्ञान का प्रचार होगा। हमें आशा करना चाहिए कि यह प्रस्ताव क्रियान्वित हो।

प्रश्र- अभी भारत सहित दुनिया में गायत्री परिवार के सदस्य कितने हैं, तथा कितने देशों में आपके द्वारा भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रभाव बढ़ाने के साथ सेवा कार्य किये जा रहे हैं?
उत्तर- अभी भारत सहित दुनिया भर में गायत्री परिवार से जुड़े एवं इसके प्रति शुभेच्छा रखने वाले परिजनों की संख्या १० करोड़ है। लगभग ७० देशों में भारतीय संस्कृति का प्रभाव बढ़ाने के साथ सेवा कार्य किये जा रहे हैं। लगभग तीस लाख से ज्यादा प्रवासी भारतीय एवं विदेशी गायत्री परिवार से, इसकी विचारधारा से प्रभावित हैं।

प्रश्र- चीन की दादागिरी, बांग्लादेश की चार करोड़ से ज्यादा संख्या में भारतीय घुसपैठ, पाकिस्तान की हिन्दुस्तान को कमजोर करने की कूटनीति, नेपाल में भारत के प्रति कम होती श्रद्घा, श्रीलंका के तटों पर तैनात चीन, भूटान, वर्मा में चीन के बढ़ते हस्तक्षेप तथा अफगानिस्तान में भारत विरोध, अरुणाचल प्रदेश पर चीन के दावे को आप किस रूप में देखते हैं और आखिर क्या कूटनीति, विदेशनीति एवं योजना � ��नाई जानी चाहिए, जिससे कि भारत को अपने पड़ोसी देशों का सहयोग और समर्थन मिले।
उत्तर- पड़ौसी देशों की भारत के प्रति विषम दृष्टि को देखते हुए हमारी सैन्य नीति ऐसी होना चाहिए जिससे कि हम अपने भू-भाग की पूरी तरह रक्षा करते हुए उनके दावों को निरस्त कर सकें और उनको यह सोचने पर मजबूर कर दें कि बिना भारत के समर्थन के उनका अस्तित्व संभव नहीं है।

प्रश्र- अन्ना हजारे, के बाद भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे को क्या कभी गायत्री परिवार आपके नेतृत्व में खुलकर समर्थन देगा?
उत्तर- अन्ना हजारे के बाद गायत्री परिवार हमारे नेतृत्व में भ्रष्टाचार ही नहीं बल्कि कई मुद्दों पर समर्थन देने को तैयार है। अभी साधनात्मक पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। अगले दिनों हम लोग इस क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्य करेंगे।

प्रश्र- आज भारत की जो भी समस्याएँ हैं, उनका समाधान आखिर क्या है?
उत्तर- भारत की मुख्य समस्या एक ही है कि हमने अपनी सांस्कृतिक विरासत को भुला दिया है और मूल्यों की उपेक्षा करते हुए वैश्वीकरण को स्वीकार कर लिया है। समाधान एक ही है भारतीय संस्कृति का विश्वव्यापी विस्तार हो और उसे जन-जन में प्रचारित किया जाये।

प्रश्र- शक्तिशाली भारत निर्माण में गायत्री परिवार की भूमिका व संभावनाओं पर प्रकाश डालें।
उत्तर- शक्तिशाली भारत निर्माण में वर्तमान और भविष्य में गायत्री परिवार की भूमिका बड़ी विशेष होने जा रही है। हमारे पास वे सभी सूत्र हैं जिनके द्वारा हम नव निर्माण की योजनाओं को गति दे सकते हैं। हमारी गुरुसत्ता ने लगभग सभी समस्याओं के समाधान हर परिप्रेक्ष्य में दिये हैं। संभावनायें अनेक हैं और विभिन्न समूहों में हमारे कार्यकर्ता आने वाले दिनों में सक्रिय होंगे। और २०२० तक सत युग की वापसी का एक स्वरूप प्रस्तुत करेंगेे।

प्रश्र- बहुराष्ट्रीय कंपनियों, विश्वविद्यालयों तथा तकनीक को आप इस देश में किस रूप में स्वीकार करेंगे, क्या भारत जैसे विकासशील देश में इन से हो रही प्रतिस्पर्धा इस देश के हित में है?
उत्तर- बहुराष्ट्रीय कंपनियों, विश्वविद्यालयों तथा तकनीक को हमें उतना ही स्वीकार करना चाहिए जितना कि उनका विधेयात्मक प्रभाव है, जिनका रचनात्मक उपयोग कर सारे देशों के साथ हम कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो सकते हैं। भारत कई मामलों में इनसे प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता, पर वह हमारे लिए सही भी नहीं है। हमें बेस्ट ऑफ ईस्ट और बेस्ट ऑफ वेस्ट का समन्वय करना होगा। भारत विकासशील देश है और तकनीक में भी हम बहुत आगे हैं किन्तु बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसके लिए खतरा हैं। हमारे देश का विकास ग्राम स्वराज के आधार पर ही चलना चाहिए, जो गांधी जी का सपना था।

नवजागरण काल में लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रतिष्ठा और हिन्दी पत्रकारिता


                                        डा. मयंक चतुर्वेदी

व जागरण से तात्पर्य है भारत में आधुनिकता का प्रवेश, वैज्ञानिक दृषिटकोण का विकसित होना और किसी भी घटना के परिप्रेक्ष्य में तार्किक मीमांसा के लिए तैयार हो जाना अर्थात तर्क-विर्तक की खुली परम्परा का प्रारंभ। भारतीय सन्दर्भ में इस नवजागरण काल का श्रेय हम अंग्रेजों को दे सकते है, क्योंकि प्राचीन भारत विदेशी आक्रांताओं और अपनी प्रजा की आपसी कलह-टुकडों तथा जातीय अहंकार के बीच यह निश्चित ही नहीं कर पा रहा था कि उसका अपना कोर्इ स्वतंत्र असितत्व है। 


अंग्रेजों का भारत में निरंकुश शासन आने तथा उनकी फूट-डालों शासन करो” कि नीति के कारण ही इस देश की जनता राजा-रजबाडे एक जुट होना शुरू हुए, उनमें भारतीयता एक राष्ट्र होने का एहसास जागा। इस नवजागरण के फलस्वरूप भारतीय जनता स्वाधीन होने के लिए उठ खडी हुर्इ, जिसका सुखद परिणाम 15 अगस्त, 1947 को पूर्ण स्वराज्य प्रापित के रूप में भारतवासियों को मिला।

नवजागरण का पहला अनुभव बंगाल ने किया, बंगाल से होती हुर्इ आधुनिकता की धारा सारे देश में पहुँची। राजा राममोहन राय समुचे देश के लिए मनस्वी बनकर उभरे, अपने विराट व्यकितत्व से उन्होंने भारतीय नवजागरण को एक दिशा दी और आधुनिक भारत निर्माण के सन्दर्भ में लोकतांत्रिकमूल्यों की प्रतिष्ठा सबसे पहले की। उनके बारे में मोनियर विलियम्स ने कहा कि सम्भवत: वे पहले-पहले दृढ मनोवृत्ति के अन्वेषी थे” वास्तव में राजा राममोहन राय एक ऐसी परम्परा की नींव रख रहे थे, जिसने प्रकारान्तर में आधुनिक भारत के निर्माण की नींव रखने करने के साथ सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप की मानव जाति का उपक्रत किया। 

इस परम्परा को आगे बढाने का कार्य किया ईश्वरदास विधासागर, केशव सेन, दयानन्द सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा श्री अरविन्द आदि ने। इन्होंने वर्तमान लोकतांत्रिकमूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए अपने समय के काल में उन सभी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक विसंगतियों पर प्रहार किये जो मानव समानता-बंधुत्व और आपसी प्रेम की शत्रु हैं। इन सभी भारतीय जन को सांप्रदायिक और जातीय चेतना से उभारकर राष्ट्रीय, आध्यातिमक व मानवीय भावों में रूपायित किया। जिसके परिणाम स्वरूप कश्मीर से कन्या कुमारी तक सारा भारत एक सूत्र में बंध सका।


आज इसके एतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं कि अंग्रेजों द्वारा भारत को उपनिवेश बनाये जाने के बाद उनका उददेश्य भारतीयों का हित नहीं बलिक इस भू-खण्ड से अधिक से अधिक लाभ कमाना रहा। उनके मन में भारतीयों के प्रति कोर्इ आत्मीयता का भाव नहीं था। अंग्रेज भारत को लूट रहे थे, जिसके परिणाम स्वरूप यह देश दिनो-दिन गरीब होता चला गया और अंग्रेज समृद्ध। इस लूट के कारण भारत में नये ढंग से आर्थिक शोषण प्रारम्भ हुआ। अंग्रेजी माल की बिक्री के लिए भारतीय बाजार बंद कर अनेक कठोर नियम लागू कर दिए गये। ऐसी विषम परिसिथति में सर्वप्रथम राजा राममोहन राय ने हिन्दी पत्रकारिताको अभिव्यकित का सशक्त माध्यम माना, उन्होंने इसका उपयोग कर लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा की।


आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रतिष्ठा से हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को इस कथन से समझा जा सकता है कि पत्रकार राष्ट्र के शिक्षक होते हैं। चार विरोधी पत्र चार हजार संगीनों से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं। राजा राममोहन राय की पत्रकारिताऔर उनके समाचार पत्र-पत्रिकाओं विशेषकर संवाद कौमूदी, बंगदूत, ब्रम्होनिकल मैगजीन, मिरातउल अखबार ने समकालीन समय की विसंगतियों को निर्भीकता से उठाया। जिसके कारण क्रोधित अंग्रेजों ने इन सभी पत्र-पत्रिकाओं को अपनी दमन नीति का शिकार बनाया। किन्तु इसके बावजूद लोकतांत्रिकमूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए न केवल बंगाल बलिक विभिन्न प्रदेशों से 1857 के पूर्व अनेक पत्र प्रकाशित हुए। इन सभी पत्रिकाओं में भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और आधुनिक लोकतंत्रात्मक मूल्यों के अनेक ऐतिहासिक तथ्य मौजूद हैं।


लोकतंत्रात्मक मूल्यों के संरक्षण उनकी स्थापना तथा प्रखरता के लिए उत्तरप्रदेश से गोविन्द नारायण थत्ते के सम्पादन में 1845 में बनारस अखबार” निकला। 1846 में इन्दौर, मध्यप्रदेश से मालवा अखबार” श्री प्रेमनारायण द्वारा शुरू हुआ। कलकत्ता बंगाल से 1826 में निकाले गये उदन्त-मार्तण्ड” को अंग्रेजों द्वारा दमन का शिकार होने के बाद 185ñ के जुगल किशोर शुक्ल ने सामन्त मार्तण्ड” प्रारंभ किया। 185ñ में बनारस से महत्वपूर्ण समाचार पत्रसुधाकर” निकला। मुंशी सदासुख ने आगरा से 1852 में बुदिा प्रकाश” प्रारम्भ किया। इसी दौरान ग्वालियर से ग्वालियर गजट”, आगरा से प्रजा हितैषी” आदि पत्र निकलना शुरू हुए। हिन्दी का नित्य निकलने वाला सुधावर्षण” समाचार पत्र1854 कलकत्ता से श्याम सुन्दर सेन के नेतृत्व में निकाला गया। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के वर्ष में ही तत्कालीन नेता अजीमुला खाँ ने पयामे आजादी” नामक पत्रप्रकाशित किया। इस पत्रने दिल्ली की जनता में स्वतन्त्रताकी आग फूंक दी। वास्तव में लोकतंत्र की सही परिभाषा और अभिव्यकित का माध्यम था पयामे आजादी”। यह सभी तात्कालीन समय में निकले हिन्दी पत्र हैं जिन्होंने नवजागरण काल में हिन्दी पत्रकारिताके माध्यम से लोकतांत्रिकमूल्यों की सशक्त प्रतिष्ठा की है।

इसी समय 1867 में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का पत्रकारके रूप में उभरता एक ऐतिहासिक घटना है, उन्होंने निडर भाव से राजनैतिक लेख लिखकर, जनता-जर्नादन को झकझोरा। इनकी मित्र मण्डली ने परतंत्रभारत में अपनी हिन्दी पत्रकारिताके माध्यम से लोकतंत्रात्मक मूल्यों की प्रतिष्ठा की।


वस्तुत: नवजागरण काल में अनेक अंग्रेजी दवाबों के बीच जिस तरह हिन्दी पत्रकारिताने जनमूल्यों की स्थापना के लिए कार्य किया और आने वाली पीढ़ी के हित में जमीन तैयार की वास्तव में आज आधुनिक युग के चरम विकास के फलस्वरूप उन्हें कोर्इ नकार नहीं सकता है। हमारा वर्तमान इन्हीं मनीषियों, त्यागी-तपसिवयों और समर्पित हिन्दी पत्रकारिताउदीयमान के संघर्ष का ही सुखद परिणाम है। जिस पर हम जैसे हिन्दी साहित्य के विधार्थियों को अत्याधिक गौरव है।

नयी सरकार से उद्योग जगत को सफलता की आस : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

पिछले कई सालों से सरकार की नीतियों से मुरझाया और कुमलाहट से भरा उद्योग जगत आम चुनाव के बाद देश में बनने वाली नयी सरकार से बड़ीउम्मीदें लगाए बैठा है, 

वास्‍तव में इस भरोसे का कारण कांग्रेस की व्‍यापार जगत को लेकर लिए गए वो निर्णय रहे हैं जिनके कारण पिछले एक दशक में भारत का अर्थ व्‍यवस्‍था और उद्योग जगत पर बुरा असर पड़ा है। यही कारण है कि नई सरकार को लेकर किसी सरकार से आस की उम्मीद लगाने के मामले में यह उद्योग जगत दो दशक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है।
उद्योग जगत यह सोचकर कि सरकार परिवर्तित हो रही है, खुशी की स्थिति में आ गया है, ज‍िसके परिणामस्‍वरूप आर्थिक हालात में निरंतर सुधार होता द‍िख रहा है। भारत में इसे शेयर बाजार में आए जर्बदस्त उछाल के रूप में भी देखा जा सकता है। विदेशी संस्थागत निवेशकों-एफआईआई के द्वारा इसमें बढ़-चढ़कर रूचि लेना दर्शाता है कि आने वाली नई सरकार से क्‍या भारतीय बल्कि विदेशी उद्योग जगत बड़ी उम्‍मीद लगाए बैठा है। सेंसेक्स के लगातार 25 हजार का सूंचकांक पार करे रहने को आज हम इस संकेत के तहत महसूस कर रहे हैं।
नई सरकार के विकास में क्‍या मायने हैं यह विभिन्‍न्‍ा सर्वे रपटों से भी देखा जा सकता है, रेटिंग एजेंसी क्रिसिल रिसर्च का जो सर्वे है वह भी बता रहा है कि भारतीय कंपनियों (वित्तीय सेवाएं एवं तेल कंपनियों को छोड़कर) की आय में वृद्धि सालाना आधार पर वित्त वर्ष 2014-15 में 11 से 12 प्रतिशत रह सकती है। अटकी पड़ी परियोजनाओं के क्रियान्वयन, घरेलू और निर्यात मांग में वृद्धि से औद्योगिक उत्पादन में सुधार की उम्मीद जताई जा रही है। जबकि पिछली वृद्धि देखें तो यह 7 से 9 प्रतिशत रही है।

इस बार एक विशेष बात यह भी देखने को मिल रही है कि भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ, फिक्की और भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने आर्थिक मसलों से जुड़े सुझावों का एक प्रस्ताव देश की सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों को भेजा था और सभी ने इसे गंभीरता से लिया।
प्रस्ताव में उद्योग संगठनों ने कहा था कि राजनितिक पार्टियों को समावेशी विकास को ध्यान में रखते हुए अपना घोषणा पत्र तैयार करना चाहिए। साथ ही उद्योग और सेवा क्षेत्र के विकास को बढ़ावा देने आने वाली सरकार की प्राथमिकता तय होनी चाहिए। राजनितिक दलों को सौपें गए अपने आर्थिक एजेंडे में फिक्की और सीआईआई ने सबसे ज्यादा जोर विनिर्माण क्षेत्र में सुधार और रोजगार के बेहतर मौकों पर दिया था। उन्होंने कहा था कि देश में सालाना 1.5 करोड़ नई नौकरियां पैदा की जानी चाहिए। साथ ही स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में एफडीआई की छूट की भी व्यवस्था होनी चाहिए। देखा जाए तो देश की सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने इन सभी बातों को इस बार के अपने चुनावी घोषणा पत्र में शामिल किया !
 भाजपा  ने घोषणा पत्र के माध्‍यम से जनता और उद्योग जगत दोनों को यह संदेश देने की कोशिश की कि वे अब देश के सामने विकास का मॉडल रखना खहते हैं। यही कारण है कि नई सरकार से व्‍यापार जगत को सफलता की आस बंध गई है।

इस भ्रष्टाचार के लिए किसे कोसेगी भाजपा ?



भारतीय जनता पार्टी के बारे में कहा जाता है कि वह वैचारिक प्रतिबद्धता से पूर्ण सुचिता के संकल्प को लेकर राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करनेवाली पार्टी है। भाजपा के अस्तित्व में आने को लेकर विचार किया जाए तो यह किसी सत्ता केन्द्रित कार्यों पर प्रतिवेदन तैयार करने और कांग्रेस की तरह ह्यूम कल्पना से निकलकर साकार नहीं हुई। इसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रचारक श्रृंखला के तप के साथ कई नेताओं के बलिदान की शक्ति का बल जुड़ा हुआ है।


ऐसे में आश्चर्य तब होता है जब यह पार्टी भी कांग्रेस की राह पर चलती हुई दिखाई देती है। देश में अभीतक के कांग्रेस शासन में भ्रष्टाचार की पूरी सीरीज देखी जा सकती है। आजादी के बाद सिर्फ लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री काल को छोड़ दिया जाए तो सभी कांग्रेसी नेताओं के शासनकाल में भ्रष्टाचार की बेल-फलती-फूलती ही रही है। भाजपा के बारे में अभी तक ऐसा नहीं कहा जाता था, लेकिन पिछले कुछ समय में जो घटनाएं अपने प्रभाव के साथ उजागर हो रही हैं उनसे यह संदेश जरूर जाने लगा है कि भाजपा भी अब कहीं कांग्रेस की राह पर तो नहीं चल पड़ी है।

एनडीए के शासन में देश के प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रीमंडल के गलत निर्णय के अब एक के बाद एक जिन्न बोतल से बाहर निकल रहे हैं, जो यह बताने या संदेश देने के लिए पर्याप्त हैं कि भाजपा की करनी और कथनी में अंतर जरूर है। इसे लेकर हाल ही प्रकाश में आया प्रकरण राजस्थान के जोधपुर हैरिटेज लक्ष्मी विलास होटल डील का देखा जा सकता है। एनडीए सरकार के मंत्री रहे अरुण शौरी यहां हिंदुस्तान जिंक की डील के बाद हैरिटेज लक्ष्मी विलास होटल में फंसते नजर आ रहे हैं।

बात अरुण शौरी के व्यक्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने की नहीं है। शौरी जी उन नेताओं-पत्रकारों और समाजिक सरोकारों से जुड़े व्यक्तियों में शुमार माने जाते हैं जिनके शोध परक कार्यों पर ही आज कई शोधार्थी कार्य कर रहे हैं। बावजूद इसके उनके द्वारा लिए गए निर्णय आज कहीं न कहीं उन पर सीधे प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं। राजनीति में एक मुहावरा प्रचलित है कि यह पता नहीं लोगों से क्या-क्या करा लेगी, लेकिन यह बात उन पर सही नहीं बैठती जो राजनीति का मोहरा नहीं बनने का संकल्प लेकर यहां आते हैं। अदम्य निर्भीकता वाले पत्रकार, बुद्धिजीवी, प्रसिद्ध लेखक और राजनेता शौरी के बारे में कहा जाता है कि वे राजनीति में दशा और दिशा ठीक करने की मंशा से आए थे, आखिर फिर वे क्या करण रहे जो उनके शासन में केंद्रीय मंत्री रहते हुए उनसे यह भूले हो गईं।

सारा मामला जो अब प्रमुखता से प्रकाश में आ रहा है वह यह है कि भारतीय जनता पार्टी नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन..राजग..के शासनकाल में विनिवेश मंत्री रहे शौरी ने निजी वैल्यूअर व सरकार की एडवाइजरी कंपनी के कहने पर हैरिटेज लक्ष्मी विलास होटल महज 7 करोड़ 52 लाख रुपए में भारत होटल के मालिक ललित सूरी को बेच दिया था। उस समय ही इस होटल से जुड़ी 29 एकड़ जमीन की डीएलसी रेट से ही कीमत 151 करोड़ रुपए आंकी जा रही थी। इसके अलावा होटल में 54 आलीशान कमरे थे, निजी वैल्यूअर कर्ताओं ने जिनकी कीमत केवल 13 लाख आंकी।


सीबीआई की पड़ताल में पता चला है कि सरकार ने विनिवेश से पहले कांति करम नामक निजी कंपनी से इसकी वेल्युशन कराई। इस कंपनी ने जमीन की कीमत सिर्फ 4 करोड़ और 54 कमरों की कीमत महज 13 लाख ही आंकी। इसे सरकार की एडवाइजरी कंपनी लेजार्ड इंडिया लि. ने सही बताया और सरकार ने होटल बेच दिया। जबकि सिंगल बिड पर होटल नहीं बेचा जाना चाहिए था, यदि कम कीमत मिल रही थी तो सरकार ने क्यों दुबारा टेंडर नहीं किए। यहां पुरातत्व महत्व के होटल को बेचने के लिए राज्य सरकार से क्यों नहीं पूछा गया। उदयपुर की तीन झीलों के घाट पर फैली होटल की कीमत बेशकीमती है, यह जानते हुए भी जगह की कीमत का सही आंकलन राजद सरकार द्वारा नहीं कराया गया।


यहां सहज प्रश्न यह उठ रहा है कि एनडीए सरकार के कार्यकाल में करोड़ों की डील कौडिय़ों में कैसे संभव हो गई? क्यों कि सीबीआई की पड़ताल में यह तथ्य साफ उभरकर आए हैं कि होटल में बने 54 कमरों की कीमत 2 करोड़ से ज्यादा थी और 29 एकड़ जमीन की कीमत डीएलसी रेट से ही 151 करोड़ रुपए होती थी। जबकि बाजार में इसकी कीमत 300 करोड़ से ज्यादा आंकी जा रही थी। इसलिए सीबीआई ने मामले की छानबीन कर शुरुआती जांच (पीई) भी दर्ज कर ली है। जिसमें पूर्व मंत्री शौरी के साथ भारत होटल की सीएमडी डॉ. ज्योत्सना सूरी जो फिक्की की वरिष्ठ उपाध्यक्ष भी है, की भूमिका की जांच की जा रही है। इसके लिए सीबीआई ने विनिवेश मंत्रालय, पर्यटन मंत्रालय, लक्ष्मी विलास होटल के जीएम व आईटीडीसी के चेयरमैन को नोटिस देकर रिकॉर्ड अपने पास मंगवाया है।

यहा यह भी प्रश्न उठ रहा है कि आखिर वह कौन से कारण रहे, जिसके कारण एनडीए सरकार को 2002 में करीब बीस होटलों का विनिवेश करना पड़ा, जिसमें उदयपुर की लक्ष्मी विलास होटल भी शामिल है। इस होटल को लाभ दलिाने के लिए क्यों ऐसे नियम बनाए गए जिनमें इस होटल के विनिवेश के लिए केवल भारत होटल की ओर से ही बोली लगाई जा सकती थी और दूसरी कंपनी फिट नहीं बैठती थी। इस पूरे खुलासे में अभी यह जानकारी भी निकलकर आ रही है कि भारत होटल ने जो हैरिटेज होटल महज 7.52 करोड़ में खरीदा, उसमें भी भुगतान 6.75 करोड़ का ही किया है।


प्रश्न यह एक होटल या इस प्रकार के अन्य होटलों में हुए भ्रष्टाचार का नहीं है, बात इससे भी ऊपर जाकर नीयत की है। भाजपा को उसकी साफ नीयत के रूप में ही जनता जानती है, यदि इस प्रकार के खुलासे होते रहे तो इतना तय है कि भाजपा को कांग्रेस बनने में देर नहीं लगेगी। वैसे तो देश के जिन राज्यों में भाजपा की सरकार हैं और जहां पहले रही हैं, वहां समय-समय पर भ्रष्टाचार के मुद्दे उठते रहे हैं, लेकिन साबित कुछ नहीं हो सका है, किंतु इस मामले में सीधेतौर पर एनडीए सरकार की गलती नजर आ रही है। अब सोचना भाजपा के खेबनहारों को होगा कि क्या इसी सुचिता के लिए देश में कांग्रेस के विकल्प के रूप में भारतीय जनता पार्टी का उदय हुआ था ।