यह प्रश्न इसलिए कि ईद को इस्लाम में अमन चैन का त्यौहार कहा जाता है, ईद भाईचारे का त्यौहार भी है इसके बाद भी कश्मीर से कई स्थानों पर ईद के दिन भी न भाईचारा नजर आया और न ही अमन चैन, जो दिखाई दिया वह पत्थरबाजी थी। इनके निशाने पर हमेशा की तरह वह भारतीय जवान थे जो उन्हें वक्त आने पर सदैव से अपनी जान जोखिम में डालकर बाढ़ के हालातों में, कभी पहाड़ खिसकने या अन्य कोई आपदा आने पर अब तक साक्षात खुदा बनकर उनकी हिफाजत करते आए हैं।
ईद के दिन यहां जो सुरक्षा बल एवं पुलिस से झड़पों की खबरें आई हैं वे कश्मीर के तीन जिलों से हैं, श्रीनगर, अनंतनाग और सोपोर । इस पर भी विशेष यह है कि ये झड़पें ईद की सामूहिक नमाज पढ़े जाने के बाद हुईं। यहां ईदगाह पर नमाज पूरी होने के तुरंत बाद युवकों के एक समूह ने सुरक्षा बलों पर पथराव शुरू कर दिया, जबकि सुरक्षा बल कानून-व्यवस्था की स्थिति बनाए रखने के लिए तैनात किए गए थे। हर बार देखा यही गया है कि ईद की ही नहीं, बल्कि जब-जब यहां नमाज का दायरा प्रति सप्ताह शुक्रवार या अन्य त्यौहार के दिन अधिक होता है, पत्थरबाज उस दिन को अपने लिए अवश्य चुनते हैं और देश की सेवा में रातदिन लगे सैनिकों व पुलिस कर्मियों को अपना निशाना बनाते हैं। अब तक भीड़ के कारण से पुलिस के कई जवान और सैनिक गंभीर रूप से जख्मी हो चुके हैं।
जब यहां पत्थरबाजों से पूछो तो सभी ‘हम क्या चाहते- आज़ादी’ जैसे नारे लगाने लगते हैं।जब यहां की मस्जिद के लाउडस्पीकर चिल्लाते हैं - ‘नारा-ए-तकबीर..’, मस्जिद के बाहर और भीतर मौजूद सभी लोग एक स्वर में कहते हैं ‘अल्लाह हु अकबर’ इसके बाद फिर पुन:मस्जिद के लाउडस्पीकर से कुछ और नारे लगाए जाते हैं - हम क्या चाहते-आज़ादी, बुरहान के सदके आज़ादी, आज़ादी का मतलब क्या, ला इलाहा इल्लल्लाह और पाकिस्तान से रिश्ता क्या, ला इलाहा इल्लल्लाह’ । मस्जिद के भीतर जब ये नारे लग रहे हैं तो बाहर खड़े लड़के अपने चेहरों पर कपड़े बांधना शुरू करते हैं, इसके बाद जो पत्थर फेंकने का दौर शुरू होता है, वह तब तक शांत नहीं होता जब तक कि उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप पुलिस एवं सेना अपना आपा न खो दें और बदले में माहौल को शांत करने के लिए पत्थरबाजों पर आंसू गैस एवं पत्थर के बदले पत्थर बरसाना शुरू न कर दें।
इसके इतिहास में जाएं तो कहने के लिए बहुत कुछ है, किंतु ज्यादातर लोग 90 के दशक का हवाला देते हैं, 1990 के दशक में और वर्तमान हालातों में अंतर सिर्फ इतना आया है कि हाथों में हथियारों की जगह आज पत्थरों ने ले ली है। इस सब के बीच दुखद यह है कि पहले सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान, पाकिस्तानी सेना तथा उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई को यहां के हालातों के लिए दोषी ठहराया जाता था, किंतु आज इनके साथ हीभीतरी ताकतें भी अपने देश का विरोध करने में सबसे अधिक शामिल दिखाई दे रही हैं।
जब 90 के दशक में यहां की हवा में बंदूक की गूंज थी तो कहा जा रहा था कि बेरोजगारी के कारण ऐसा है। लेकिन क्या आज के समय में भी यही बात कही जाए ? जबकि इतने सालों में स्थिति में बहुत कुछ अंतर आ गया है। देश को कोसने, हिन्दू आस्था केंद्रों को निशाना बनाने, चुनचुन कर कश्मीर घाटी से हिन्दुओं एवं सिखों को एक एक कर भगाने से लेकर वह सब कार्य यहां बदस्तूर जारी हैं, जो सीधे देशद्रोह की श्रेणी में आते हैं। क्या आज भी कोई ये कहेगा कि बेरोजगारी के कारण यहां कश्मीरी युवक पत्थर फैकने को मजबूर हैं?जबकि केंद्र और राज्य सरकारों की इस वक्त विकासपरक इतनी अधिक योजनाएं खासकर भारत के सीमावर्ती राज्यों में संचालित हो रही हैं कि यदि स्थानीय निवासी चाहें तो अपनी बेरोजगारी इनसे जुड़कर स्वत: ही समाप्त कर सकते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि पत्थर फैकने का बेरोजगारी से कोई लेना-देना नहीं है।
इतना ही नहीं, बेरोजगारी के विरोध में तो यहां की परिस्थितियों को देखकर यह भी कहा जा सकता है कि भारत में कौन सा राज्य आज ऐसा है, जहां शतप्रतिशत रोजगार मुहैया हो, यानि कि सीधेतौर पर कहा जाए कि बेरोजगारी तो कम ज्यादा सभी जगह मौजूद है,तो क्या सभी स्थानों पर लोग अपने सिस्टम को पत्थर मारने लगें ?
वस्तुत: कश्मीर की आज जो समस्या है, वह बेरोजगारी से ज्यादा पांथिक अधिक है। पांथिक इसलिए कि ईदगाह या दरगाह में आते तो यहां के लोग अल्लाह की इबादत के लिए हैं लेकिन जब उससे बाहर निकलते हैं तो वे प्रेम के आनन्द में डूबने के स्थान पर अपने अन्य देशवासियों के प्रति क्रोध से भर जाते हैं। उन्हें भारतीय सेना शत्रु के समान नजर आती है। आज ऐसे सभी लोगों के लिए नसीहत इतनी ही कि क्यों वे एक प्रेम सौहार्द्र, भाईचारे के पंथ ईस्लाम को ईद के दिन भी पत्थर फैंककर बदनाम करने में लगे हुए थे? पत्थर फैंकू कश्मीरियों को मानवीयता का ध्यान नहीं रखना है तो कम से कम अपनी धार्मिक मान्यताओं एवं मान बिन्दुओं का ही ध्यान कर लें।
इस्लाम को लेकर उसके मानने वालों की ओर से तर्क यही दिए जाते हैं कि अगर एक इंसान भूखा है और दूसरे के पास खाने को एक रोटी भी मौजूद है तो वह उस इंसान से अपनी रोटी को बाँट के खायेगा । इस्लाम आपस में मोहब्बत करना सिखाता हैं । यह लोगों को इंसानियत सिखाता हैं । इस्लाम सुफिसम को बढ़ावा देता हैं, जो सुफिसम कहता है की आप अपनी ज़ात से किसी को भी दुःख न दो, किसी को नुकसान न पहुँचाओ। भूखे को रोटी खिलाओ, पियासो को पानी पिलाओ । जिसके पास रहने के लिए सही ठिकाना न हो उसको रहने के लिए आसरा दो।
कहनेवाले तो इस्लाम के समर्थन में यहां तक कहते हैं कि कोई भी पैगम्बर हो, चाहे वह मूसा अलेह अस्सलाम हो, ईसा अलेह अस्सलाम हो, या इस्लाम धर्म के आखिरी पैगम्बर मोहम्मद सल्लाहो अलेह वस्सल्लम हो, सब ख़ुदा के मैसेज को ख़ुदा के बन्दों तक पहुंचाते थे। सब एक ही ख़ुदा को मानते हैं, सभी पैगमबर के फॉलो करने वाले एक ही ख़ुदा का कलमा पढ़ते हैं और सभी इंसानीयत के लिए जीते हैं। इस्लाम धर्म में दहशतगर्दी के लिए कोई स्थान नहीं है। हमारे पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब ने सभी को आपसी भाईचारे के साथ रहने एवं नेकनीयती के साथ जीवनयापन करने का फरमान सुनाया था। मुल्क की सलामती एवं तरक्की में भागीदार होना हर मुसलमान का फर्ज है। मुल्क से गद्दारी करने वालों को खुदा कभी माफ नहीं करता है। किेंतु क्या यह पूर्ण सच है ? यदि यह सच है तो फिर यह नफरत कौन फैला रहा है? कश्मीर में अल्लाह के घर से ये अजान की जगह पत्थर फैंकने का हुक्म क्यों ? ये कौन सी इस्लामियत है तो ईद के दिन भी मानवीयता को शर्मशार कर रही है? देशभक्ति की जगह यह देशद्रोह किसलिए ? निश्चित ही इस विषय पर हम सभी के गंभीर चिंंतन एवं गंभीर विमर्श की आज आवश्यकता है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (04-09-2017) को "आदमी की औकात" (चर्चा अंक 2717) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'