कभी देश में अन्न कम पैदा हुआ करता था तब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्रीजी ने जय जवान के साथ जय किसान का नारा देते हुए हर भारतीय को एक दिन का उपवास सप्ताह में करने का आग्रह किया था। देश ने उसे माना और हर भारतीय गर्व से सीमा पर देश की सुरक्षा के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर देनेवाले सैनिक के समान ही उत्साह और सम्मान के साथ प्रत्येक किसान को देश का गौरव मानकर उसके कर्म को लेकर नमन करने लगे थे, उसके बाद अपने समय में प्रधानमंत्री रहे अटलबिहारी वाजपेयी ने इस जयजवान-जयकिसान के नारे में जय विज्ञान को भी जोड़कर किसानों के जीवन में विज्ञान के महत्व का प्रतिपादन किया था लेकिन आज जो किसान देशभर में कर रहे हैं, उसे देखकर लगता है कि किसानों की इस मतलब परस्ती पर क्यों नहीं उन्हें धिक्कारा जाय ?
ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि जिस देश में सभी बच्चों को पीने के लिए आवश्यक पौष्टिक आहार उपलब्ध नहीं, दूध सभी बच्चों के लिए सुलभ नहीं है, देश में अब भी 60 सालों तक राज करनेवाली कांग्रेस कुपोषण को दूर नहीं कर सकी और पिछले 4 साल की मोदी सरकार से वह अपेक्षा कर रही है कि 60 सालों का जहर वह 4 साल में उतार दे और सब कुछ हरा-हरा हो जाए? आज दुर्भाग्यपूर्ण है कि उस कांग्रेस की पहल तथा उसकी विकृत नीयत में आकर के देश के आम किसानों को बरगलाकर वह सब किया जा रहा है जोकि यह देश कभी देखना नहीं चाहता है ।
सयुंक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुपोषित लोगों की संख्या 19.07 करोड़ है। यह आंकड़ा दुनिया में सर्वाधिक है। देश में 15 से 49 वर्ष की 51.4 फीसदी महिलाओं में खून की कमी है। पांच वर्ष से कम उम्र के 38.4 फीसदी बच्चे अपनी आयु के मुताबिक कम लंबाई है। इक्कीस फीसदी का वजन अत्यधिक कम है। भोजन की कमी से हुई बीमारियों से देश में सालाना तीन हजार बच्चे दम तोड़ देते हैं। वैश्विक भूख सूचकांक में 118 देशों में भारत को 97वां स्थान मिला था। देश में बहुत से लोग भुखमरी के कगार पर रहते है। इसके बाद भी किसान आन्दोलन को लेकर देशभर से खबर यही आ रही हैं कि किसान कई हजार लीटर दूध सड़कों पर व्यर्थ बहा रहे हैं। दूध बहाने के इस कृत्य पर वे सभी तथाकथित महान आत्माएं चुप हैं जो शिवजी पर दूध चढ़ाने को पाखण्ड मानकर उसकी खिल्ली उड़ाती हैं किंतु यहां जो हो रहा है उसके लिए वह यह कहती नजर आती हैं कि यह तो किसानों की मांगें नहीं मानने पर उनका आक्रोश है।
यह कैसा आक्रोश है? अपने देश वासियों को भूखा रख, उनके बच्चों के पेट का दूध सड़कों पर उढेलकर वह मोदी सरकार से मांग कर रहे हैं कि उनकी मांगे पूरी की जाएं? स्वामीनाथन की रिपोर्ट क्या हलुआ है जो चम्मच में भरा और गप कर गए? देश के हर बजट में किसान आज तक सबसे आगे रहता आया है, पहले कि सरकारें किसानों के हक को उन तक नहीं पहुंचाने में सफल रही होगी, ठीक है मान लिया । लेकिन अब की सरकार पर यह कैसे आरोप हैं? अगर इतना ही था तो किसानों की पिछली 60 सालों की कांग्रेस सरकारों के वक्त यह चुप्पी क्यों रही? आज राष्ट्रीय किसान महासंघ ने 130 संगठनों के साथ विरोध प्रदर्शन और हड़ताल का जो हंगामा देशभर के कई राज्यों में फैला रखा है, वह कहां तक जायज है? इस आन्दोलन की आड़ में आगरा में अपने वाहनों की फ्री आवाजाही कराने के लिए किसानों ने जिस तरह से टोल पर कब्जा किया और जमकर की तोड़फोड़ की, क्या उसे देखकर किसी को किसानों का सम्मान करना चाहिए?
बर्नाला और संगरूर समेत पंजाब में कई जगह किसानों ने विरोध प्रदर्शन करते हुए सब्जियों और डेयरी प्रोडक्ट्स को बाहर सप्लाई करने से इनकार किया हुआ है? क्या यह उनका सीमा पर देशहित में एक जवान का अपने वतन के लिए सर्वस्व बलिदान कर देने की ललक की तरह लिया गया देशहित में किया फैसला है? पंजाब के फरीदकोट में किसानों का विरोध प्रदर्शन हो रहा है, यहां किसान सड़कों पर सब्जियां फेंक कर विरोध जता रहे हैं। इसी तरह से मंदसौर में भी देखा जा रहा है। भारतीय किसान यूनियन की किसानों से की गई अपील जिसमें कहा गया है कि हड़ताल के दौरान फल, फूल, सब्जी और अनाज को अपने घरों से बाहर न ले जाएं, और न ही वे शहरों से खरीदी करें और न गांवों में बिक्री करें, इसे आज कौन सही ठहरा सकता है?
हम यह नहीं कहते कि लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार को किसानों की मांगों पर गौर नहीं करना चाहिए। उसे स्वामीनाथन कमीशन द्वारा की गई अनुशंसाओं को लागू करने और कर्ज माफ करने समेत सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का भुगतान के वादे को पूरा करने की मांग को नहीं स्वीकारना चाहिए। लेकिन क्या इसी लोकतंत्र में उन्हें यह हक दिया जा सकता है कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति का आन्दोलन के नाम पर नुकसान करें? किसी की वैयक्तिक सम्पत्ति में आग लगा दें? वास्तव में इस आन्दोलन के आगे बढ़ने के साथ जो सबसे बड़ा डर बना हुआ है वह यही है कि किसानों को राजनीतिक रोटियां सेंकनेवाले इतना न भड़का दें कि वे पिछले साल की तरह इस वर्ष फिर चलती बसों, सवारी वाहनों, पुलिस गाडि़यों और सार्वजनिक सम्पत्ति को इस आन्दोलन के नाम की भीड़ के सहारे आग के हवाले करने में कामयाब हो जाएं?
फिर से मंदसौर गोलीकांड की तरह 6 लोग बेकार में मारे जाएं और सरकार को फिर जो हिंसा का शिकार हो उसके परिवार को सांत्वना देने के लिए नौकरी के साथ एक-एक करोड़ रुपए देने का एलान न कर देना पड़े? कुल मिलाकर किसान अन्नदाता है, मां-पिता और गुरु के बाद नहीं बल्कि पहले वह पेट की भूख को शांत करनेवाला एक मसीहा है, उसके बाद भी यह आन्दोलन के नाम पर उसका विकृत स्वरूप कहीं न कहीं हमारे विश्वास को तोड़ रहा है, जो किसी भी सूरत मे देश की सेहत के लिए उचित नहीं माना जा सकता है।, अब विचार आगे आपको करना है?
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (03-06-2018) को "दो जून की रोटी" (चर्चा अंक-2990) (चर्चा अंक-2969) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बछुवन भूखन देख के गौ मा करे पुकार |
जवाब देंहटाएंमानस मोरे अमृत के करो नहि तिरस्कार || १२ ||