भारतीय अर्थ व्यवस्था ग्राम्य प्रधान है और यहां आरंभ से ही छोटे उद्योग अर्थव्यवस्था में प्रमुख स्थान रखते आ रहे हैं। इसीलिए ऋग्वेदकालीन समाज-व्यवस्था से लेकर भारत के वर्तमान तक इस इकाई का अपना एक श्रेष्ठ स्थान बना हुआ है। राजशाही के बाद लोकतंत्र शासन व्यवस्था में सरकारें आती रहीं किन्तु किसी ने भी छोटे व मध्यम श्रेणी के उद्योगों को लेकर वह नीति नहीं बनाई, जिससे कि उसका नाश हो जाए। अंग्रेजों ने अवश्य यह प्रयास किया था किंतु तब भारतीयों ने जिस समवेत स्वर में विदेशी सामान की होली जलाकर, धरना प्रदर्शन एवं अन्य आन्दोलनों के माध्यम से विरोध किया तो मजबूरन ब्रिटिश सरकार भी आगे उद्योग नीति में बहुत बड़े बदलाव लेकर आई थी, जिन्हें इतिहास में आज भी कर सुधार एवं उद्योग संवर्द्धन नीति के नाम से जाना जाता है।
स्वतंत्र भारत में भी जब कांग्रेस या अन्य सरकारों ने छोटे उद्योगों के विरोध में जाकर यदि नीति बनाने का प्रयास किया तब भनक लगते ही कई ट्रेड यूनियनें, लघु उद्योग भारती एवं मजदूर संघ जैसे संगठन खुलकर सरकार के विरोध में सड़कों पर उतर आए, परिणामस्वरूप नीतियां भले ही बनती रहीं, किंतु बिना छोटे एवं मध्यम उद्योग समूह तथा संगठन के विचार के वे कभी भी व्यवहार में नहीं लाई गईं। इस सब के बीच वस्तुत: आज परिदृश्य बदला हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के सर्वमान्य नेता होने के साथ ही एक वैश्विक नेता हैं। उनकी चिंताएं भी भारतीयता के साथ वैश्विक हैं। स्वाभाविक है कि जब ऐसा कोई नेता अपने देश के विकास की योजनाएं बनाए तब वह भारतीय पक्ष को ध्यान में रखने के बाद भी अनजाने में भूल कर सकता है।
वस्तुत: छोटे उद्योगों के संदर्भ में यही बात आज उभरकर आ रही है कि मोदी सरकार इन्हें लेकर गंभीर चिंतन नहीं कर रही। जबकि एनडीए के अटलबिहारी वाजपेयी शासनकाल में बने लघु उद्योग मंत्रालय में गठन के समय इस बात को प्रमुखता से रखा गया था कि छोटे कार्य करनेवाले सूक्ष्म और लघु उद्योगों के विकास और विस्तार पर सरकार फोकस करे। 12 फरवरी 1999 को वाजपेयी सरकार ने तब की परिभाषा के अनुसार 3 करोड़ लागत वाले उद्योगों को लघु उद्योग की श्रेणी में रखा तथा बाद में छोटे व्यापारियों से बातचीत कर इसे घटाकर राशि 1 करोड़ लागत कर दिया था। यूपीए सरकार ने फिर इसे बढ़ाकर 5 करोड़ किया, किंतु 2006 में मध्यम उद्योगों को जोड़कर इसे सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग मंत्रालय भी बनाया। यहां तक भी सब कुछ सही चला, लेकिन जब 2014 में मोदी सरकार आई तो उसने सूक्ष्म उद्योग की राशि 25 से 50 लाख, लघु उद्योग 5 से 10 करोड़ और मध्यम उद्योग को 10 से 30 करोड़ प्रतिवर्ष के टर्नओवर होने के साथ परिभाषित किया, किंतु लघु उद्योग भारती जैसे संगठनों के प्रयासों के कारण यह अमल में अब तक नहीं लाया गया था।
इसके बाद 7 फरवरी 2018 को केंद्रीय मंत्रिमण्डल ने फिर से इसमें जो परिवर्तन करने को मंजूरी दी है, यही वह निर्णय है जिसे देखते हुए कहा जा रहा है कि मोदी सरकार लघु उद्योगों को कमजोर करने की नीति तय कर चुकी है। इसके अनुसार 5 करोड़ की वार्षिक आय वाले उद्योग सूक्ष्म, 5 से 75 करोड़ आय के कारोबारी उद्योग लघु और 75 से 250 करोड़ तक वार्षिक कारोबारी उद्योग मध्यम उद्योग कहलाएंगे। इसे संबंधित विभाग नोटिफिकेशन द्वारा तीन गुना तक भी बढ़ा सकता है। इस तरह संसद में बिल लाने की आवश्यकता भी समाप्त कर दी गई है। वस्तुत: खतरा यहीं है। कहीं ऐसा न हो कि इस बढ़े हुए स्लैब से पूरे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों का ढांचा ही बदल जाए।
अव्वल तो यह कि सूक्ष्म में लिए 5 करोड़ तथा मध्यम उद्योगों के लिए तय की गई 75 करोड़ वार्षिक टर्नओवर की राशि इतनी अधिक है कि नियमों के फेर में कई छोटे उद्योग बर्बाद हो जाएंगे। अपने स्तर पर वह कार्य नहीं कर पाएंगे, जिसका परिणाम यह होगा कि देश के उद्योग-धंधे खासतौर से स्थानीय स्तर पर बढ़ने की जगह सिमटने लगेंगे और उनके स्थान पर बड़ी पूंजीवालों का वर्चस्व दिखने लगेगा। यदि कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी लघु उद्योग में रजिस्ट्रेशन कराकर 1 से 5 करोड़ की पूंजी लगाकर तथा अलग-अलग नामों से जीएसटी नंबर लेकर बाजार पर कब्जा करना चाहेगी तो इस व्यवस्था से उसे आसानी होगी। पुरानी व्यवस्था में मशीनरी में निवेश आवश्यक था तो नई नीति से कोई भी बाहर से आयात कर यहां सामान असेम्बल कर उस पर मेक इन इंडिया के नाम का उपयोग करके बेच सकता है। कहना होगा कि वास्तव में वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूटीओ) और विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के कारण से जो खतरे नहीं, उससे कहीं अधिक खतरा केंद्र के इस निर्णय से कम पूंजी के घरेलू उद्योगों पर आज आ खड़ा हुआ है।
इस व्यवस्था का सच यही है कि इससे उत्पादन घटेगा, कामगारों की संख्या घटेगी, मशीन से अधिक काम होगा और इसके कारण ट्रेडिंग गतिविधियां बढ़ेंगी। कुल मिलाकर यह देश के न तो परंपरागत उद्योग के लिए लाभदायक है और न ही सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग के हित में है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक हो गया है कि मोदी सरकार जिसका लक्ष्य वर्षभर में लाखो बेरोजगारों को रोजगार देना भी है, वह अपनी बनाई इस फरवरी 2018 की नीति पर पुनर्विचार करे।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-03-2017) को "अगर न होंगी नारियाँ, नहीं चलेगा वंश" (चर्चा अंक-2904) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'