गुरुवार, 10 नवंबर 2016

लोक मंथन की प्राचीन परंपरा और राष्‍ट्र : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

मंथन भारत का आधारभूत तत्‍व है, इसलिए विमर्श के बिना भारत की कल्‍पना भी की जाएगी तो वह अधूरी प्रतीत होगी। यहां लोकतंत्र शासन व्‍यवस्‍था की सफलता का कारण भी यही है कि वेद, श्रुति, स्‍मृति, पुराण से लेकर संपूर्ण भारतीय वांग्‍मय, साहित्‍य संबंधित पुस्‍तकों और चहुंओर व्‍याप्‍त संस्‍कृति के विविध आयामों में लोक का सुख, लोक के दुख का नाश, सर्वे भवन्‍तु सुखिन: और जन हिताय-जन सुखाय की भावना ही सर्वत्र दृष्‍टि‍गत होती है।

इसे इस रूप में भी देखा जा सकता है कि सत्‍ता की प्राप्‍ति और स्‍वयं के सुख एवं भोग की कामना से दुनिया में आज तक अनेक युद्ध हुए हैं। राज्‍य विस्‍तार और अपने विचार को ही सत्‍य मानकर दूसरे पर उसे थोपने के लिए लगातार प्रयत्‍न किए जाते रहे और जो आज भी यथावत किए जा रहे हैं। परिणामस्‍वरूप जिसके कारण विश्‍व से युद्ध एवं विनाश की लीला समाप्‍त होने का नाम नहीं ले रही है। किंतु इस सब के बीच भारत ने कभी सुख की कामना से न कभी पहले किसी अन्‍य देश पर आक्रमण किया और न हीं 1947 बाद अस्‍तित्‍व में आए राज्‍यीय अवधारणाओं के नवीन भारत ने किसी देश पर अपना विचार थोपा। बल्कि जो संविधान ने अंगीकार किया, उसमें सभी के लिए समादर और पंथ निरपेक्ष की भावना समाहित की गई । यानि एक राज्‍य के रूप में भारत सभी विचारधाराओं का समान आदर करेगा, ऐसा नहीं होगा कि वह किसी विशेष का ही सहचर बन जाए। अपने आचरण से भारत ने यह बात सिद्ध भी की है। भारत बहुवचनीय अर्थों में अपने लोक से, जनता से, आवाम से, जन समूह से यही कामना करता है कि –

“विविध पंथ, मत दर्शन अपने,

भेद नहीं वैशिष्‍ट्य हमारा, 

एक-एक को ह्दय लगाकर,

विराट शक्‍ति प्रगटाओ।

वस्‍तुत: चेतना का विस्‍तार ही भारत का लक्ष्‍य है, और इसके लिए भारत बार-बार विमर्श का आह्वाहन करता रहा है। इस बार ऐसा ही एक विमर्श विशद् रूप  में लोकमंथन के नाम से भोपाल में हो रहा है। विमर्श की परंपरा को आप ऋग्‍वेद काल से ही सतत देख सकते हैं। उस समय में हुए महर्षि पाणिनी, पतंजलि व महर्षि यास्क जैसे वेदों के विश्रुत विद्वानों ने अपनी ज्ञान साधना, प्रतिभा एवं पुरूषार्थ के बल पर अष्टाध्यायी, महाभाष्य एवं निरूक्त आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। इनमें निरुक्त वैदिक साहित्य के शब्द-व्युत्पत्ति (etymology) का विवेचन करता है । निरुक्त में शब्दों के अर्थ निकालने के लिये छोटे-छोटे सूत्र दिये हुए हैं। इसके साथ ही इसमें कठिन एवं कम प्रयुक्त वैदिक शब्दों का संकलन (glossary) भी है।

ऋग्वेदभाष्य भूमिका में सायण ने कहा है ‘अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्’ अर्थात् अर्थ की जानकारी की दृष्टि से स्वतंत्ररूप से जहाँ पदों का संग्रह किया जाता है वही निरुक्त है। वैदिक शब्दों के दुरूह अर्थ को स्पष्ट करना ही निरुक्त का प्रयोजन है। पाणिनि शिक्षा में "निरुक्त श्रोत्रमुच्यते" इस वाक्य से निरुक्त को वेद का कान बतलाया है। संस्कृत के प्राचीन वैयाकरण (grammarian) यास्क को इसका जनक माना गया है। वे एक स्‍थान पर पत्‍नि की व्‍याख्‍या करते हुए लिखते हैं कि जो पति को पतन से बचाए वह पत्नि है। इसी प्रकार एक अन्‍य स्‍थान पर महर्षि यास्‍क तर्क के महत्‍व को शब्‍दों से प्रस्‍तुत करते हैं, जो विविध पक्षों का अवलम्‍बन करते हुए चेतना के विस्‍तार तक जाता है। यानि कि शब्‍दों के इस महत्‍व को भारतीय ऋषियों ने जानकर उसके निर्माण और उसके व्‍यवहार पर सदियों पूर्व ही जोर देना आरंभ कर दिया था। इस प्रकार शब्‍दवार संस्‍कृत और उससे निकली जितनी भी भारतीय भाषाएँ हैं, सभी को देखा जा सकता है, हर शब्‍द और वाक्‍य का अपना महत्‍व और गूढ़ अर्थ है।

लोक को भी हम इस संदर्भ में देख सकते हैं। यह लोक देश की जनता का प्रतिनिधित्‍व करता है, यह देश की चेतना का आधार है, यही लोक शब्‍द वह शब्‍द है जो हमें स्‍वयं से दूसरे के साथ परस्‍पर एकाकार करने में हमारी मदद करता है। इसलिए लोक से बना लोकमंथन, सही मायनों में  ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ (Nation First) की सघन भावना से ओतप्रोत विचारकों, अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए आपसी संवाद का तानाबाना बुनने के लिए एक मंच के रूप में आज प्रकट हुआ है, जिसमें देश के वर्तमान मुद्दों पर विचार-विमर्श और मनन-चिन्तन किया जायेगा।

वेद का मंत्र भी यही कहता है कि सं गच्छध्वं सं वदध्वं, सं वो मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।। - ऋग्. १०.१९१.२। अर्थात् (हे जना:) हे मनुष्यो, (सं गच्छध्वम्) मिलकर चलो । (सं वदध्वम्) मिलकर बोलो । (वः) तुम्हारे, (मनांसि) मन, (सं जानताम्) एक प्रकार के विचार करे । (यथा) जैसे, (पूर्वे) प्राचीन, (देवा:) देवो या विद्वानों ने, (संजानाना:) एकमत होकर, (भागम्) अपने - अपने भाग को, (उपासते) स्वीकार किया, इसी प्रकार तुम भी एकमत होकर अपना भाग स्वीकार करो ।

सीधे-सीधे इसे इस अर्थ से समझें कि (हे मनुष्यों) मिलकर चलो । मिलकर बोलो । तुम्हारे मन एक प्रकार के विचार करें । जिस प्रकार प्राचीन विद्वान एकमत होकर अपना-अपना भाग ग्रहण करते थे, (उसी प्रकार तुम भी एकमत होकर अपना भाग ग्रहण करो) । वास्‍तव में यही संगठन का और परस्पर संवाद का वह मंत्र है जिसके माध्‍यम से लोक अपने अस्‍तित्‍व को साक्षात प्रकट करता है। इसलिए भोपाल में होने जा रहे लोकमंथन आयोजन से यह विश्‍वास स्‍वत: ही दृढ़ होता है कि इसमें शामिल हो रहे बुद्धिजीवियों, चिन्तकों, मनीषियों, अध्येताओं के परस्पर विचार-विमर्श से भारत के साथ विश्व को नई दृष्टि मिलेगी। यह तीन दिवसीय विमर्श गहरी वैचारिकता की वजह से हमारे राष्ट्र के उन्नयन में सहायक सिद्ध होगा। समता, संवेदनात्मकता, प्रगति, सामाजिक न्याय, सौहार्द्र और सद्भाव की आकांक्षा राष्ट्रीयता के मूलमंत्र है। इसी भावना के साथ सामाजिक बदलाव और समाज का विकास इस राष्ट्रीय विमर्श का जो मूल उद्देश्य है, वह साकार रूप में आकर पूर्णत: सिद्ध होगा ।

भरत मुनि का नाट्यशास्‍त्र और भोपाल का लोकमंथन : डॉ. मयंक चतुर्वेदी


मध्‍यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 12 से 14 नवम्‍बर तक आयोजित होने वाले लोकमंथन में जहाँ देश के वर्तमान मुद्दों पर विचार-विमर्श और मनन-चिन्तन होगा, भारत के उत्कर्ष के सभी आयाम विस्‍तार लेंगे, वहीं इसका कलामंच देश की कला संस्कृति का भी पोषण करेगा ।जब भारतीय कला संस्कृति की बात हो तब भरत मुनि को कोई भूला दे ऐसा संभव नहीं। स्‍वभाविक भी है, व्‍यक्‍ति की पहचान उसके कर्म से होती है। एक राजा जब तक राजा है, तब तक कि वह उस पद पर विराजमान है किंतु उसके बाद सिर्फ उसके श्रेष्‍ठ कर्म ही उसे देह से मुक्‍त करते हुए सदैव जीवित रखते हैं। इस दृष्टि से भरत मुनि के ‘नाट्यशास्‍त्र’ की विवेचना समीचीन है। क्‍यों कि नाट्य परम्‍परा की गहराई में जाने पर उनका ही सर्वप्रथम रचित ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ मिलता है, इसलिए ही वे नाटक, फिल्‍म, प्रहर्सन इत्‍यादि कला से संबंधित‍ जितने भी प्रकार हैं उनके आदि आचार्य कहलाते हैं।  

भरत मुनि कहते हैं, ‘‘न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला। नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येदस्मिन यन्न दृश्यते।।’’ अर्थात् न ऐसा कोई ज्ञान है, न शिल्प, न कोई ऐसी विद्या, न कला, न योग और नहीं कोई कर्म, जो नाट्य में न पाया जाता हो। यानि कि जो भी सांसारिक विधाएँ हैं वे सभी कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में नाटक का ही अंग हैं। सही भी है नाटक का प्रधान तत्‍व है भावना और दूसरा प्रमुख तत्‍व विचार, दोनों का उचित समन्‍वय ही किसी नाटक, फिल्‍म, प्रहसन को जन्‍म देता है।

भरतमुनि के इस श्‍लोक और व्‍याख्‍या को यदि प्रत्‍येक मनुष्‍य के दैनन्दिन जीवन से जोड़कर देखें तो स्‍थ‍िति बहुत कुछ स्‍पष्‍ट हो जाती है। शायद, इसीलिए आगे हुए भारतीय एवं पाश्‍चात्‍य नाट्यकारों को परस्‍पर कहना पड़ा कि व्यक्तित्व की पूर्णता के लिए थियेटर का ज्ञान आवश्यक है। जीवन एक रंगमंच है जिसमें हम सभी अलग-अलग समय में आते हैं, अपना-अपना किरदार निभाते हैं और फिर चले जाते हैं।

वस्‍तुत: होता भी यही है, हम सभी नित्‍यप्रति अनेक भूमिकाओं का निर्वहन करते हैं। प्रत्येक रिश्ते में नाटकीयता का पुट कहीं न कहीं रहता है। पति-पत्नि, पिता-पुत्र, माता-पुत्रि, भाई-बहन या अन्‍य किसी रिश्‍तें को ले लें, यदि इनमें से नाटकीयता को समाप्‍त कर दिया जाए तो जीवन नीरस हो जाएगा। क्‍योकि नाटकीयता वह तत्‍व है जो जीवन के नीरस प्रसंगों को भी रोचक बना देती हैं। प्यार में, गुस्से में, उत्‍साह और उमंग में हमारी भाव भंगिमाएँ सब कुछ कह देती हैं। इसी तरह स्वर को कभी कोमल, कभी कर्कश बनाकर हम अपने शब्दों का वजन बढ़ाते और कमतर करते हैं। वास्‍तव में यही सब तो है थिएटर । प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के जीवन का यही रंगमंच उसे सिखाता है कि कैसे वह हँसे, रोए और अपनी अभिव्‍यक्‍ति को खुलकर आंसमानों तक ऊंचाईयां प्रदान करे।

भरतमुनि के नाट्यशास्‍त्र का महत्‍व इस बात से पता चलता है कि आगे हुए उद्भट आचार्यों में भट्टोद्भट, भट्टलोल्लट, भट्टशंकुक भट्टनायक, अभिनवगुप्त, कीर्तिधर, राहुल, भट्टयंत्र और हर्षवार्तिक सहित प्राय: सभी प्रमुख विद्वानों ने नाट्यशास्त्र पर टीकाएँ लिखीं। जहां तक कि विदेशी विद्वानों ने भी नाट्यशास्त्र की खण्डित प्रतियाँ लेकर प्रकाशित करने का अदम्य प्रयास किया, इनमें फेड्रिक हाल, जर्मन विद्वान हेमान, फ्रांसीसी विद्वान रैग्नो एवं इनके शिष्य ग्रौसे जैसे विद्वानों के नाम गिनाए जा सकते हैं।

भरत के नाट्यशास्त्र में लोक का महत्‍व अंगीकार करते हुए जिस समग्रता से नाटकों के प्रकार, उनके स्वरूप, उनकी कथावस्तु, कथावस्तु के विभिन्न अंग और चरण तथा उनके सृजन-सम्बंधी विधि-निषेध, नायक-भेद और उनके मानक, नायिका तथा अन्य पात्रों के मानक का वर्णन किया गया है, वह हमारी परम्‍परागत धरोहर है। वे रंगमंच (मंडप) और नेपथ्य की संरचना, नृत्य के प्रकार, उनकी तकनीक, उनके अंग-संचालन की विस्तृत और सूक्ष्म विवेचना प्रस्‍तुत करते हैं। उनके नाट्यशास्‍त्र में बारीक से बारीक भावों की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न आंगिक मुद्राएँ और भंगिमाएँ, भाव, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी (या संचारी) भाव के संयोग से स्थाई भाव के रस की निष्पत्ति, रस के प्रकार, उनके लक्षण, उनके प्रभाव की विशद व्‍याख्‍या है। यहां तक कि संगीत के सात स्वर, उनके क्रम उनकी मूर्छनाएँ, उनके मिश्रण तथा प्रयोग के मानक, वाद्य और गायन की विधियाँ जैसे अनेक विषयों का विवेचन जो वे अपने इस ग्रंथ में प्रस्‍तुत करते हैं ऐसा अन्‍यत्र कहीं ओर देखने को नहीं मिलता है।

भरत के नाट्य शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक की सफलता केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होती बल्कि विभिन्न कलाओं और कलाकारों के सम्‍यक सम्‍म‍िलन से होती है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी व्‍यक्‍ति का जन्‍म अत्‍यधिक विषम परिस्‍थ‍ितियों में हो, किंतु वह अपने कर्तव्‍य का निर्वहन पूर्णत: समर्पण के साथ करे तो वह व्‍यक्‍ति अन्‍य लोगों के सहयोग से एक दिन उस श्रेष्‍ठता को प्राप्‍त कर ही लेता है, जिसको पाने की आशा सभी करते हैं।

यही बात हम किसी राष्‍ट्र के संदर्भ में समझ सकते हैं। भारत सदियों से श्रेष्‍ठता को धारण करते हुए सतत अपने कालक्रम में आगे की ओर बढ़ रहा है, अतीत में उसने वे दिन भी देखे हैं जब दुनियाभर से ज्ञान पिपासु अपनी ज्ञान की अभिप्‍सा की शांति एवं पूर्ति के लिए उसके पास भागे चले आते थे । व्‍यापार के लिए भी भारत दुनिया का केंद्र था, फिर वह समय भी भारत ने देखा कि कैसे देखते ही देखते उसे विखण्डित करने के प्रयास किए गए और एक राष्‍ट्र से कई राज्‍यों का उदय हो गया । वस्‍तुत: सभ्‍यता और संस्‍कृति एक होने के उपरान्‍त भी यदि विचारों में भिन्‍नता हो जाए और उपासना पद्धति का अंतर आ जाए तो कितना भी सघन और संगठित राष्‍ट्र हो उसे भी बिखरने में देर नहीं लगती। यह बात आज भारत के सामने प्रत्‍यक्ष है। इस चुनौती का सामना करने के लिए आगे अब भारत क्‍या करे ? यह एक यक्ष प्रश्‍न खड़ा हुआ है। तब निष्‍कर्षत: इसका श्रेष्‍ठ समाधान यही है कि यहां ऐसा कुछ निरंतर होता रहे जिससे भारत अपने पूर्व वैभव को भी प्राप्‍त कर ले और उसे भविष्‍य में विखण्‍डन का दर्द कभी न सहना पड़े। इसके लिए भारत को अपनी ज्ञान, परम्परा, आचार-विचार, लोक-संवाद और शास्त्रार्थ जैसी अत्यन्त महत्वपूर्ण धरोहरों का विस्‍तार और इन पर केंद्रीत विमर्श के आयोजन करते रहना होंगे।
वस्‍तुत: मध्‍यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 12 से 14 नवम्‍बर तक आयोजित हो रहा लोकमंथन उसी विमर्श के आयोजन का एक हिस्‍सा है, जो ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ की सघन भावना से ओतप्रोत है। इसके माध्‍यम से देश के सभी कलाओं, विधाओं के बुद्धिजीवी, चिन्तक और शोधार्थी एक मंच पर अपने विचार साझा करने आ रहे हैं। इसमें जहाँ देश के वर्तमान मुद्दों पर विचार-विमर्श और मनन-चिन्तन होगा, भारत के उत्कर्ष के सभी आयाम विस्‍तार लेंगे । यह तीन दिवसीय आयोजन भारत को पुन: अपने गत वैभव को प्राप्‍त करने की दिशा में एक कदम सिद्ध हो, आयोजन की सफलता हेतु शुभकामना ।

लोकमंथन का उद्देश्य है राष्ट्रीय संकल्पना की स्थापना

राष्ट्र सर्वोपरि के विचार से ओतप्रोत विचारकों और कर्मशीलों का तीन दिवसीय राष्ट्रीय आयोजन लोकमंथन 12 से 14 नवम्बर तक विधानसभा परिसर, भोपाल में आयोजित हो रहा है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आयोजित इस आयोजन की विशेषता है कि इसमें राष्ट्र निर्माण में कला, संस्कृति, इतिहास, मीडिया और साहित्य की भूमिका पर विमर्श किया जाएगा।   

लोकमंथन का उद्देश्य है कि राष्ट्र निर्माण को लेकर अब तक बनी पश्चिम परस्त अवधारणा को दूर कर भारत के इतिहास, कला, विज्ञान, संस्कृति, भूगोल और मनोविज्ञान को यूरोपीय आस्थावाद से बाहर निकालकर राष्ट्रीयता की संकल्पना की स्थापना की जाए।  नवउदारवाद और वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में राष्ट्रीयता का देशज या यूँ कहें कि शुद्ध भारतीय पाठ तैयार करने की योजना है।लोकमंथन में मीडिया, कला, संस्कृति, इतिहास, साहित्य और अन्य क्षेत्रों से जुड़े स्वतंत्र विचारक और चिंतक शामिल होने वाले हैं। 

लोक मंथन के दो हिस्से रहेंगे- मंच और रंगमंच। मंच से विभिन्न विषयों पर विचारक विमर्श करेंगे। उसी दौरान रंगमंच के जरिए कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन कर राष्ट्रीय भावना को प्रकट करेंगे। कार्यक्रम का उद्घाटन 12 नवम्बर को सुबह 10 बजे रहेगा, इसके बाद तीन दिन तक विभिन्न विषयों पर गहन विमर्श किया जाएगा। आगे लोकमंथन को वार्षिक कार्यक्रम का स्वरूप भी दिया जाएगा। उक्‍त सभी बातें लोकमंथन आयोजन समिति के महासचिव जे. नंदकुमार द्वारा बताई गई हैं। 

अकेला कश्मीर भारत के लिए खतरनाक : उन्होंने बताया कि अलग-अलग पहचान महत्वपूर्ण हैं, उनका स्वागत होना चाहिए। लेकिन, भारत के बाहर उनकी कल्पना ठीक नहीं। कश्मीर हो या केरल, सबकी स्वतंत्र पहचान का सम्मान है, क्योंकि इनके बिना भारत पूर्ण नहीं है। लेकिन, भारत के बाहर जाकर अकेला कश्मीर खतरनाक है। लोकमंथन में सभी प्रकार की अस्मिता के प्रश्नों पर गंभीरता से मंथन किया जायेगा।

देश तोड़ने का प्रयास कर रही है 'ब्रेकिंग इंडिया ब्रिगेड' : लोक मंथन आयोजन समिति के महासचिव जे. नंदकुमार का कहना यह भी है कि आजकल कुछ लोग देश को तोड़ने के सूत्र खोज रहे हैं। इस 'ब्रेकिंग इंडिया ब्रिगेड'का एजेंडा है कि कैसे देश को नुकसान पहुँचाया जाए। इसके लिए वह हर संभव प्रयास कर रहे हैं। लेकिन,उनका सफल होना असंभव है। क्योंकि, देश के सामान्य व्यक्ति के जीवन में भी राष्ट्रीयता प्रकट होती है। सामान्य लोग देश को एकसूत्र में बाँधकर रखे हुए हैं। उन सामान्य लोगों के जीवन में कैसे राष्ट्र प्रकट होता है, इसी पर लोक मंथन में विमर्श होगा।

'औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति' लोकमंथन का केंद्रीय विषय है। इसलिए यह अपने तरह का पहला आयोजन है। लोकमंथन में शामिल होने आ रहे देश-दुनिया से प्रख्यात विचारक और रचनाधर्मियों के परस्पर विचार-विमर्श से भारत के साथ विश्व को नई दृष्टि मिलेगी। यह तीन दिवसीय विमर्श गहरी वैचारिकता की वजह से हमारे राष्ट्र के उन्नयन में सहायक सिद्ध होगा। समता, संवेदनात्मकता, प्रगति, सामाजिक न्याय, सौहार्द्र और सद्भाव की आकांक्षा राष्ट्रीयता के मूलमंत्र है। इसी भावना के साथ सामाजिक बदलाव और समाज का विकास इस राष्ट्रीय विमर्श का मूल उद्देश्य है।
            
लोकमंथन का आयोजन मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग, भारत भवन और सामाजिक वैचारिक संस्था प्रज्ञा प्रवाह के संयुक्त आयोजन में किया जा रहा है। लोकमंथन में शामिल होने के लिए देशभर से लगभग 800 प्रतिभागी आ रहे हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी में तीन दिन 'लघु भारत' के दर्शन होंगे। ऑनलाइन पंजीयन के जरिए लोकमंथन में शामिल होने वाले प्रतिभागियों में अधिकतर 40 वर्ष से कम आयु के युवा हैं। वहीं, विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ के तौर पर 130 से अधिक विद्वान भी इसमें शामिल हो रहे हैं। यह सभी जानकारियां लोकमंथन आयोजन समिति के महासचिव जे. नंदकुमार, भारत नीति प्रतिष्ठान के मानद निदेशक प्रो. राकेश सिन्हा और आयोजन समिति के संयोजक दीपक शर्मा केद्वारा मीडिया के सम्‍मुख बताई गई हैं।
       

मंगलवार, 8 नवंबर 2016

मोदी का यह एक निर्णय जो बदल देगा भारत का भविष्‍य : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से एकाएक राष्‍ट्र के नाम संबोधन करते हुए देशभर से 500 और 1000 रुपए के नोट को बंद करने का एलान किया और उसके स्‍थान पर देश की जनता से परेशान न होते हुए अपने पास इस प्रकार की राशि को अपने बैंक तथा डाकघर में जमा करने की व्‍यवस्‍था दी है। उसकी जितनी प्रशंसा की जाए वह कम ही होगी। यह एक कदम कितना महत्‍वपूर्ण है, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि बातों-बातों में और केंद्र सरकार के हर निर्णय एवं योजना में कोई न कोई कमी निकालने वाला विपक्ष प्रधानमंत्री के इस निर्णय को स्‍वागत योग्‍य कदम बता रहा है।

सरकार ने काले धन के खिलाफ एसआईटी बनाई, कानून बनाए, विदेशों का काला धन लाने के लिए समझौते भी किए किंतु ये सारे निर्णय जो मिलकर भी नहीं कर पा रहे थे वह सिर्फ इस एक सख्‍त उठाए गए कदम ने करके दिखा दिया है। हो सकता है कि कई रात वे सो ही नहीं पाएं जो भष्‍टाचार से आकण्‍ठ डूबे हुए हैं। किंतु यह भारत के लिए कितना बड़ा शुभ संकेत है, इसकी तो कल्‍पना करने भर से रोमांच हो उठता है। वस्‍तुत: प्रधानमंत्री के देश हित में इस प्रकार के एक के बाद एक लिए जा रहे निर्णय आज साफ संकेत दे रहे हैं कि भारत आने वाले दिनों में किस प्रकार का होगा। अब जरूरत इस बात की है कि देश के लोग इसे समझें और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में सरकार को अपना सहयोग प्रदान करें।

मोदी के लिए गए इस फैसले का महत्‍व राष्‍ट्रपति भवन से आई प्रतिक्रिया से भी समझा जा सकता है, राष्‍ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने प्रधानमंत्री की इस घोषणा को साहसिक कदम बताकर इसका स्वागत किया है। राष्ट्रपति का मानना है कि सरकार द्वारा उठाया गया यह निर्णय देश में काले धन और जाली नोटों को खोज निकालने में मदद करेगा। दूसरी ओर काले धन पर विशेष जांच दल (एसआईटी) के चेयरमैन न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) एमबी शाह ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फैसले को ‘साहसी’ कदम बताते हुए कहा है कि इससे काले धन पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी। वे सही कह रहे हैं कि इस निर्णय से देश का आम आदमी लाभ में रहेगा किंतु इस फैसले का असर उन लोगों पर होगा जिन्होंने अघोषित संपत्ति व आय जमा कर रखी है और इसका खुलासा सरकार द्वारा दो साल में घोषित कालाधन घोषण योजना के तहत नहीं किया है।

देखाजाए तो केंद्र सरकार देशभर में फैले भ्रष्‍टाचारियों से सवा लाख करोड़ रुपये का काला धन वापस निकालने में अब तक सफल रही है लेकिन इस एक निर्णय के बाद उम्‍मीद करिए कि 100 प्रतिशत कालाधन जल्‍द ही बाहर आना तय है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस बात में बहुत दम है कि भ्रष्‍टाचार और आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई जरूरी है। जाली नोटों का जाल देश को तबाह कर रहा है। देश विरोधियों एवं आतंकियों को कहां से पैसा नसीब होता होगा, यह बेहद सोचनीय है।

निश्‍चित ही बाजार से मौजूदा 500 और 1,000 रुपये के नोटों को हटाने का सरकार का यह फैसला नकली नोट और कालेधन पर एक 'सर्जिकल स्ट्राइक' कहा जा सकता है। इससे जो सबसे बड़ा काम होने जा रहा है वह है भविष्‍य में कालेधन और नकली मुद्रा की देशभर से समाप्‍ति हो जाना और आर्थ‍िक सुचिता एवं पादर्श‍िता का चहुंओर व्‍याप्‍त हो जाना। यह सच भी सभी को जानना चाहिए कि आज 5 लाख करोड़ से ज्‍यादा की राशि‍ का प्रचलन बड़े नोटों के रूप में है और इस धन से देशभर में कितने प्रकार के काले धंधे होते हैं, उनकी गिनती करना भी मुश्‍किल है।

प्रधानमंत्री के इस एक निर्णय ने उन सभी असंवैधानिक एवं उन सभी गैरकानूनी कार्यों पर अंकुश लगाने का कार्य किया है जिस को लगभग यह मान लिया गया था कि भारत की यही नियती है और देश इससे शायद ही कभी मुक्‍त होगा। धन्‍य हो मोदी देशवासियों को दीपावली के बाद एक बार फिर आर्थ‍ि‍क उत्‍सव बनाने का यह अवसर प्रदान किया है।