शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

महाराष्ट्र में भाजपा-शि‍वसेना गठबंधन की स्वीकार्यता : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के परिणामों आने के बाद दिन पर दिन गुजरते जा रहे हैं, लेकिन स्पष्ट जनादेश नहीं मिलने से सरकार कैसे और किसकी बने, इसे लेकर लगातार राजनैतिक पार्टियों में माथापच्ची चल रही है। यहां उम्मीद से इतर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह सबसे पहले प्रदेश की सबसे ज्यादा सीटें पाने वाली भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन पहल की पेशकश की और उसके बाद जो राजनैतिक परिदृष्य बदला, उसे देखकर अब लगने लगा है कि राजनीति में कुछ भी संभव है।

भाजपा को आज यह समझना होगा कि महाराष्ट्र में बिना शर्त अपना समर्थन देने के लिए जिस तरह एनसीपी सामने आई है, उसके आगे के आशय क्या हो सकते हैं ? बीजेपी नेताओं ने एनसीपी के करप्ट नेताओं को जेल भेजने का वादा महाराष्ट्र के मतदाताओं से किया है। अब अगर उसी पार्टी के नेताओं के समर्थन से बीजेपी सरकार बनाएगी तो जेल किसे भेजेगी?राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का अभी तक का इतिहास तो यही बताता है कि उसने आजतक अपने निर्माण के बाद से किसी को भी बिना शर्त समर्थन नहीं दिया है। बल्कि, वह जिस पार्टी के साथ गई है उससे पूरी कीमत वसूली है। फिर अचानक भाजपा पर मेहरबान क्यों हो रही है। सच्चाई यही है कि एनसीपी महराष्ट्र में बीजेपी को समर्थन देकर अपने दिग्गज नेताओं अजीत पवार, प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल को बचाना चाहती है।

पूर्व उप-मुख्यमंत्री अजीत पवार और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष व पूर्व सिंचाई मंत्री सुनील तटकरे 70 हजार करोड़ रुपये के सिंचाई घोटाले में फसें हैं, पूर्व पीडब्ल्यूडी मंत्री छगन भुजबल पर नई दिल्ली में महराष्ट्र सदन के जीर्णोद्धार की लागत में इजाफा कर भ्रष्टाचार करने का आरोप है। दरअसल, ऐंटि करप्शन ब्यूरो (एसीबी) ने राज्य सरकार से इन दोनों पूर्व मंत्रियों के खिलाफ जांच का आदेश मांगा है। ब्यूरो की फाइल मंत्रालय में है। पार्टी को डर है कि प्रफुल्ल पटेल के उड्डयन मंत्री रहते एयर इंडिया की दुर्दशा के लिए उनकी गर्दन दबोची जा सकती है। पूर्व महालेखाकार (सीएजी) विनोद राय ने अपनी किताब 'नॉट जस्ट एन अकाउंटेंटः द डायरी ऑफ नेशंस कॉन्शन्स कीपर' में भी एयर इंडिया के लिए खरीदे जानेवाले नए हवाई जहाजों की संख्या 28 से बढ़ाकर 68 किए जाने के पटेल के फैसले पर सवाल उठाया है।

जानकारी तो यहां तक आ रही है कि एनसीपी ने न केवल बाहर से समर्थन देने की बात कही है बल्कि अपने प्रस्ताव में यह तक कह दिया है कि भाजपा जब सदन में अपना बहुमत सिद्ध करेगी वह सदन में उपसि्थत ही नहीं होगी ताकि भाजपा अपना बहुमत सरलता से सिद्ध कर सके। शि‍वसेना का समर्थन लिए बगैर कैसे अल्पमत में भारतीय जनता पार्टी अपनी सरकार महाराष्ट्र में चला सकती है इसका फार्मुला भी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की और से भाजपा के नेताओं को सुझाया गया है। लेकिन यहां प्रश्न यही है कि क्या यह प्रदेश के हित में होगा ? महाराष्ट्र की जनता ने जो भी जैसा भी जनादेश दिया है, क्या यह उसका सम्मान है ?

वस्तुत: भाजपा यहां भले ही आज अपने लिए स्वतंत्र माहौल का विकल्प तलाश रही हो लेकिन सच यही है कि शि‍वसेना और भाजपा गठबंधन ही महाराष्ट्र के लिए स्वभाविक सत्ता एवं राजनीतिक विकल्प हैं। ऐसा मानने और कहने के पीछे कई सार्थक तर्क आज दिए जा सकते हैं अव्वल तो देश तथा राज्य दोनों स्तरों पर ये दोनों पार्टियां ऐसी हैं जो आर्थि‍क, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट, देश में समान आचार सहिंता जैसे तमाम विषयों में एक जैसी सहमति रखती हैं वहीं दोनों ही पार्टियों की छवि हिन्दूवादी है।

महाराष्ट्र में इन दोनों राजनैतिक दलों में यदि एक को बड़ा भाई और दूसरा छोटा भाई है कहा जाए तो गलत ना होगा । 25 वर्षों से राज्य की राजनीति में एक-दूसरे का साथ निभाते आ रहे इन दोनों दलों में मनमुटाव की सि्थति पहली बार बनी हो ऐसा भी नहीं है। 1989 में भाजपा नेता प्रमोद महाजन और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे के प्रयासों से ये गठबंधन जब हुआ था तब 1991 से ऐसी परिि‍स्थतियां बनना शुरू हो गई थीं कि दोनों दल कई विषयों को लेकर विरोधी बयान देते थे। दोनों के बीच विरोध के स्वर तब शुरू हुए थे जब उस समय छगन भुजबल ने शिवसेना छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया था और विधानसभा में शिवसेना के सदस्यों की संख्या भाजपा से कम हो गई थीऐसे में भाजपा ने भी अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन करते हुए तब गोपीनाथ मुंडे ने विधानसभा में विपक्ष के नेता पद का दावा ठोंक दिया जिसे लेकर शिवसेना असहज हो उठी थी।

इसके बाद ऐसे ही हालात साल 2005 में उपजे, जब नारायण राणे ने शिवसेना का दामन छोड़ दिया था। जिस पर शिवसेना ने विपक्ष के नेता के रूप में रामदास कदम को आगे किया लेकिन भाजपा को यह रास नहीं आया, क्यों कि उसका कहना था कि विधानसभा में उसके सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण यह पद उसे मिलना चाहिए।

महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के अलावा लोकसभा चुनाव के वक्त भी इन दोनों पार्टियों के बीच की रार बाहर निकलकर आई थी 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान शिवसेना को राज ठाकरे के नेतृत्व वाले एमएनएस ने घेरना शुरू कर दिया और भाजपा उससे अपने संबंध मजबूत करने मे लगी हुई थी। यह बात शि‍वसेना नहीं पचा पा रही थी। इस कारण दोनों दलों के बीच मनमुटाव बढ़ा।

जब इस बार के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नितिन गडकरी ने राज ठाकरे के घर जाकर उनसे बात की तब तो सभी को लगने लगा था कि अब इस गठबंधन को कोई नहीं बचा सकता। भाजपा के इस क़दम के बाद शिवसेना ने ऐलान कर दिया था कि वह एनडीए से बाहर जाएगी। लेकिन क्या हुआ, सभी ने देखा, केंद्र में दोनों का गठबंधन लाख विरोधाभासों के बाद भी बना हुआ है। मोदी मंत्रिमंडल में अनंत गीते सोलहवीं लोक सभा के सांसद तथा केन्द्रीय मंत्रीमण्डल में भारी उद्योग तथा सार्वजनिक उद्यमिता मंत्री हैं।जब उद्धव ठाकरे ने कहा था कि पीएम मोदी के अमेरिका से लौटने के बाद मंत्रिपद से अनंत गीते उन्हें अपना इस्तीफा सौंपेंगे, वह बात भी सार्वजनिक बयान देकर आगे स्वयं अनंत गीते ने स्पष्ट कर दी थी कि वे मोदी मंत्रीमण्डल में बने रहेंगे, क्यों कि केंद्र में शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन अटूट है।शुरू से अभी तक के दोनों पार्टियों के आपसी संवाद को देखकर भले ही देश और विशेषकर कुछ समय तक के लिए महाराष्ट्र की जनता में यह भ्रम हो जाए कि ये गठबंधन ज्यादा दिन साथ नहीं चलनेवाला लेकिन सच तो यही है कि देखते-देखते दोनों के पच्चीस वर्ष साथ निभाने के गुजर चुके हैं।

हां राज्य में जरूर इन बार के विधानसभा चुनावों के पहले दोनों से विलग होने के कारण जग जाहिर हैं लेकिन इसे भी कोई नकार नहीं सकता कि यदि यह दोनों दल महाराष्ट्र में साथ रहकर चुनाव लड़ते तो आज नज़ारा कुछ और होता। शि‍वसेना का कहना कुछ गलत नहीं है कि कांग्रेस- एनसीपी को 25 सीटें भी लाना भारी पड़ जाता। क्यों कि जिस तरह वोटों का विकेंद्रीकरण हुआ है उससे सबसे ज्यादा नुकसान भी यदि आज किसी को हुआ है तो महाराष्ट्र की ये दोनों राजनैतिक पार्टियां भाजपा और शि‍वसेना ही हैं। भले ही फिर मोदी-शाह की जोड़ी तथा भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व यह स्वीकार न करें लेकिन सच तो सच ही रहेगा।

वास्तव में देखा जाए तो महाराष्ट्र की राजनीति में यह दोनों दल एक-दूसरे के पूरक ही हैं, यह बात सार्वजनिक तौर पर आज दोनों में से कोई न माने लेकिन हकीकत यही है। किसी को शक है तो पिछला रिकार्ड उठाकर देखा जा सकता है जिसमें मराठी मानुस की बात छोड़ दी जाए तो क्या भाजपा और क्या शि‍वसेना दोनों के राष्ट्रीय और राज्यीक मुद्दे समानता के साथ उठाते हुए दिखाई देते हैं। दोनों ही पार्टियां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में अपना बीज तलाशती हैं। आर.एस.एस. की सद्भावना और कृपा दोनों के साथ समान हैंतभी तो सबसे पहले इनको लेकर संघ की प्रतिक्रिया सामने आई, जिसमें सांकेतिक रूप से कहा गया है कि यह गठबंधन कभी टूटना नहीं चाहिए। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी साफतौर पर कह चुके हैं कि भाजपा और शिवसेना का पुराना रिश्ता फिर से बहाल हो जाए तो अच्छा रहेगा। इस रिश्ते को नहीं टूटना चाहिए ।


चुनाव पूर्व शि‍वसेना के मुख्य पत्र सामना ने लिखा था कि
"पिछले 25 साल से कुर्सी के लिए नहीं बल्कि हिंदुत्व के लिए हमारी युति (गठबंधन) है. इस युति धर्म को याद करो और जब प्रचार शुरू होना चाहिए तब हम सीटों को लेकर खींचतान कर रहे हैं, ऐसी कर्मदरिद्रता मत करो "आज ऐसा स्पष्ट लिखने के पीछे के भाव को इन दोनों राजनैतिक पार्टियों के नेताओं को समझना ही होगा। यह पंक्तियां सभी भ्रमों को तोड़ते हुए साफ कर देती हैं कि इस गठबंधन की ताकत का आधार आखि‍र किस बात में निहित है।


वस्तुत: दोनों दल
हिंदुत्व को लेकर समानरूप से सोचते हैं यही उनकी ताकत भी है। अब अच्छी बात यह है कि भाजपा और शि‍वसेना ने संघ के इशारों को समझ लिया है और समझे भी क्यों ना। वास्तव में राजनीति में रहकर बहुत कुछ विषय ऐसे हैं जो सीधे-सीधे समझ में नहीं आते जितने कि बाहर से देखने पर उनकी हकीकत का पता चलता है। आज इसे कोई नहीं नकार सकता कि सार्वजनिक जीवन में रा.स्व.संघ की स्वीकार्यता किसी भी राजनैतिक मंच से ज्यादा है। ऐसे में संघ जैसा घर-घर पैठ रखने वाला संगठन सोचता है कि महाराष्ट्र के विकास के हित में भाजपा-शि‍वसेना गठबंधन का साथ बना रहना जरूरी है तो वह वास्तव में जरूरी है। वस्तुत: इसीलिए इन दोनों पार्टियों को अपने गिले शि‍कवे दूर कर एक दूसरे का साथ निभाने के मुद्दे पर मान जाना चाहिए। वास्तव में यही इन दोनों राज्य की मुख्य दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों और महाराष्ट्र की जनता के हित में होगा। 

महाराष्ट्र-हरियाणा चुनावों में मोदी मंत्र की सफलता : डॉ. मयंक चतुर्वेदी


लोकसभा चुनावों में तो सभी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनीतिक प्रबंधन देखा ही था लेकिन एक राष्ट्रीय राजनैतिक पार्टी की ताकत क्या होती है यह दो राज्यों के विधानसभा चुनावों के आए परिणामों ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया है। अपने सफल नेतृत्व के माध्यम से नमो ने सभी को बता दिया कि भले ही विरोधी कुछ भी कहें वे राजनीति के महागुरू हैं। जब नरेंद्र मोदी की अगुवाई में लोकसभा चुनावों में परचम फहराने के कुछ ही महीनों के बाद भारतीय जनता पार्टी को उपचुनावों में बड़ा झटका लगा । जिसमें कि दस राज्यों में लोकसभा की तीन और विधानसभा की 33 सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे चौंकाने वाले रहे। तब सभी विरोधि‍यों ने कहना शुरू कर दिया था‍ कि मोदी का मैजिक खत्म हो गया किंतु उस वक्त नमो अपने सहयोगियों के साथ क्या रणनीति बनाने में लगे थे यह किसी को नहीं पता था।

वस्तुत: महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों के आए परिणामों को इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। मोदी यह भलि-भांति समझते हैं कि सरकारों के निर्माण में उपचुनावों का बहुत महत्व नहीं, हां यदि महत्व होता है तो वह प्रतिपक्ष के लिए जरूर है, क्यों कि वहां सदन में संख्याबल बढ़ने से अपनी बात रखने में विपक्ष के नाते मजबूती मिलती है। इसलिए संभतया मोदी का पूरा ध्यान इस बात पर लगा रहा कि कैसे दो राज्यों के होने वाले विधानसभा चुनावों को भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में किया जाए। अब जब महाराष्ट्र और हरियाणा में हुए चुनावी परिणाम सामने हैं तो कहा जा सकता है कि न केवल उनकी पार्टी में बल्कि जनता के बीच भी लोकसभा चुनावों की तरह मोदी मंत्र का प्रबंधन जादू चल गया।

नमो यह अच्छी तरह जान गए हैं कि जीत का सेहरा अपने सिर बांधने के लिए प्रचार का क्या महत्व है। सोशल मीडिया और प्रचार मध्यमों का अपने पक्ष में उपयोग करने के बाद इस बार उन्होंने महाराष्ट्र और हरियाणा में जो बेहतर प्रयोग किया, वह है अन्य राज्यों से पार्टी कार्यकर्ताओं को इन दो राज्यों में बुलाकर उनका स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ तालमेल बैठाकर चुनावी प्रचार में बेहतर उपयोग करना । अब इसके बेहतर और पार्टी पक्ष में सकारात्मक नतीजे सभी के सामने हैं। महाराष्ट्र में 288 सीटों के लिए और हरियाणा में 90 विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनावों में भारतीय जनता पार्टी 1 नम्बर की राजनैतिक पार्टी बनकर सामने आई है।

वस्तुत: यहां यह भी देखना लाजमी होगा कि आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनाव शुरू होने से लेकर अब तक के सफर में किस तरह अपनी टीम के खासमखास लोगों को भाजपा एवं अन्य जगह केंद्र बिन्दु बनाया और बनवाया। यह तो सिर्फ एक बानगी है कि पहले वह केंद्र की राजनीति में अपनी जीत मुकर्रर करने के लिए अमित शाह को उत्तर प्रदेश का चुनावी प्रभारी बनवाते हैं, क्यों कि वे यह जानते हैं कि देश में राजनीति की सफलता नब्ज यूपी से होकर गुजरती है। शाह का ही कमाल था कि उप्र में कांग्रेस के सफाए के साथ ही भाजपा ने वहां पर 80 में से 71 सीटें हासिल कीं। शाह की सार्वजनिक स्वीकार्यता करवाकर उन्हें फिर पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष की आसंदी पर पहुंचाना आखि‍र मोदीजी की दूरदिृष्ट ही तो कहलाएगी।

आज उत्तर प्रदेश की जीत के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा की जीत का सेहरा नमो के सहारे अमित शाह के सर बंध गया है जैसा मोदी चाहते थे। इस जीत के पीछे यह भी सही है कि स्वयं मोदी और अमित शाह की सटीक रणनीति, एग्रेसिव स्टाइल और उनकी एक खास टीम की कड़ी मेहनत का भी हाथ है, जो सामने न आकर पर्दे के पीछे से अपना काम करती रहती है।

महाराष्ट्र-हरियाणा चुनावों में मोदी टीम ने सफलता के लिए इस बार जो खास काम किया वह है अपने राष्ट्रीय संगठन की शक्ति का भरपूर उपयोग, जो कि अभी तक भाजपा नहीं कर सकी थी। जुलाई माह से ही मोदी टीम महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनावों की तैयारियों के लिए सक्रिय हो गई। पूरी-पूरी रात पार्टी के राज्य स्तर के नेताओं संग बैठ कर रणनीतियां बनाई गईं। भाजपा की झोली में हर एक वोट आए इसके लिए गहरे मंथन और निष्कर्ष का दौर शुरू हुआ। महाराष्ट्र में बीजेपी-शि‍वसेना गठबंधन टूटने के बाद तो परस्थितियाँ और भी चुनौतिपूर्ण थीं लेकिन नरेंद्र मोदी को अपने राष्ट्रीय संगठन पर भरोसा था। मोदी को लगता था कि यदि इन दोनों राज्यों के विधानसभा चुनावों में बाहरी प्रदेशों के पार्टी कर्यकर्ताओं का सही उपयोग किया जाएगा तो जीत उन्हीं की पार्टी की होगी, वस्तुत: देखा जाए तो हुआ भी यही। यहां आकर यदि बड़ी तादात में भाजपा समर्थक चुनाव प्रचार नहीं करते तो कभी भी चुनावी सर्वे उसके पक्ष में आनेवाले नहीं थे।

महाराष्ट्र के 8.35 करोड़ मतदाताओं में से करीब 64 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल 3 हजार 843 पुरुष और 276 महिला उम्मीदवारों के राजनीतिक भाग्य के लिए किया। हरियाणा में 1.63 करोड़ से अधिक मतदाताओं ने राज्य की 90 सदस्यीय विधानसभा के लिए रिकार्ड 76.54 फीसदी मतदान किया था। 1,351 उम्मीदवार चुनाव मैदान में जिनमें 116 महिला उम्मीदवार भी अपनी किस्मत आजमा रही थीं।
वस्तुत: केडरबैस पार्टी होने से क्या लाभ हैं, आज यह दोनों राज्यों के चुनावी परिणामों ने साफ बता दिया। अकेले भाजपा का चुनाव प्रचार करने महाराष्ट्र पहुंचने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या ढाई लाख से ऊपर थी। भाजपा-शि‍वसेना गठबंधन टूटने के बाद एनसीपी, शि‍वसेना और कांग्रेस के जिन विधानसभा गढ़ों में जहां कभी भाजपा कार्यकर्ता ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते थे इस बार ऐसा बिल्कुल नहीं दिखा । ऐसे सभी क्षेत्रों में बाहरी राज्यों आए भाजपा कार्यकर्ताओं ने इस बार चुनावी मोर्चा बहुत बेहतर तरीके से संभाल रखा था।

हालत यह हो गई थी कि मुंबई में यदि आप गौर करते तो हर चौथा आदमी चुनाव प्रचार में बाहर का नजर आ रहा था। यही हाल अमूमन पूरे प्रदेश का था। भाजपा ने इस बार इन दोनों राज्यों के चुनाव प्रचार के लिए जितने कार्यकर्ताओं से इसमें सहयोग करने का आग्रह किया था उसकी तुलना में कई गुना ज्यादा लोग महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव प्रचार के साक्षी बनने जा पहुंचे थे। जिनमें ज्यादातर लोग अपने खर्चे पर ही पार्टी का काम करते देखे गए ।

यदि इतनी बड़ी संख्या में भाजपा वॉलेंटियर नहीं आते तो कभी भी महाराष्ट्र में शि‍वसेना, कांग्रेस और एनसीपी का आत्मविश्वास कमजोर नहीं किया जा सकता था और ना हरियाणा जैसे जाट बहुल राज्य में भाजपा अकेले दम कांग्रेस और इनेलो को हाशिए पर ला पाती। करीब तीन दशकों में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए भाजपा ने 90 सदस्यीय हरियाणा विधानसभा चुनाव में 47 सीटें हासिल करके अपने बल पर बहुमत हासिल कर लिया। इससे पहले भाजपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1987 में था जब उसने 20 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 16 सीटों पर जीत दर्ज की थी। इससे बेहतर चुनावी प्रदर्शन भाजपा यहां आज तक नहीं कर सकी थी। हरियाणा में पहली बार भाजपा की सरकार का बनना निश्चित ही मोदी मंत्र की सांगठनिक सफलता मानी जाएगी।

आज भले ही चुनाव से आए परिणाम महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार का सच बता रहे हों लेकिन यह भी उतना ही सच है कि भाजपा हरियाणा जैसे राज्य मे पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने जा रही है और महाराष्ट्र में वह कुल 288 सीटों में से 122 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है।

यहां हमें यह याद रखना होगा कि महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी इसके पहले राष्ट्रीय दल होने के बाद भी कभी यह हिम्मत नहीं कर पाई थी कि अपने दम पर अकेले चुनाव लड़े, उसे क्षेत्रीय दल का सहारा चाहिए ही था लेकिन यह प्रयोग मोदी ही पहली बार कर पाए और सभी को बता पाए कि सांगठनिक शक्ति के लिए अपने पैरों पर चलना ही भला होता है। तभी अपनी शक्ति का सही परिक्षण होता है तथा बाद में स्वयं पर सफलता का मान होता है।

वस्तुत: महाराष्ट्र-हरियाणा चुनावों को लेक‍र आज बार-बार यही कहा जाएगा कि यह अकेली भारतीय जनता पार्टी की सफलता नहीं मोदी के संगठनात्मक तंत्र के सही उपयोग के मंत्र की सफलता है।