मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

भारत, जनसंख्‍या और दुष्‍परिणाम : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारत में जनसंख्या अभी 121 करोड़ पहुंच चुकी है और इसका निरंतर यहां तेजी से बढ़ने का क्रम जारी है। आगे यदि यह इसी तरह बढ़ती रही तो शीघ्र ही देश की जनसंख्‍या 150 करोड़ और फिर 200 करोड़ पर पहुंच जाएगी। खतरा आगे इसी बढ़ती जनसंख्‍या के आंकड़े से है। वस्‍तुत: जब किसी भी देश की जनसंख्‍या उसके आवश्‍यक संसाधनों की पूर्ति के समर्थन में हो तो वह उस देश के लिए लाभकारी होती है, किेंतु जब वही जनसंख्‍या मांग और पूर्ति से आगे होकर अपना विकराल रूप धारण करले तो वह उस देश के लिए मुख्‍य मानवसंसाधन का केंद्र न रहकर वहां के लिए अभिशाप बन जाती है।

वैसे देखाजाए तो भारत की वर्तमान ताकत उसका युवा मानव संसाधन का होना है। किंतु इसी के साथ जो सबसे बड़ा सवाल है, क्‍या हमारे पास अपनी बढ़ती युवा जनसंख्‍या के लिए पर्याप्‍त रोजगार और उनको एक विकासपरक जीवन दे सकने के लिए आवश्‍यक पर्यावरणीय संसाधन हैं? निश्‍च‍ित तौर पर इसका जवाब नहीं है। भारत के कई लाख युवा आज दुनिया के अनेक देशों में कार्य कर रहे हैं और वे वहां अपने जीवन की मूलभूत आवश्‍यकताओं को पूरा करने के साथ भारत में भी निरंतर विदेशी पूंजी का प्रवाह बनाए हुए हैं। जिससे कारण कहना होगा कि देश की अर्थव्‍यवस्‍था को उनसे पर्याप्‍त ताकत मिल रही है। 

वहीं दूसरी तरफ जो तस्‍वीर भारत में युवाओं की है उसके कारण जो स्‍थ‍ितियां निर्मित हो रही हैं, उसको यदि देखें तो यहां युवाओं की संख्या 24 करोड़ 30 लाख से ज़्यादा है, अपनी इतनी बड़ी जनसंख्‍या के लिए आज न तो केंद्र सरकार के पास पर्याप्‍त रोजगार है और न ही किसी राज्‍य सरकार के पास इन युवाओं की क्षमताओं का भरपूर उपयोग कर लेने की कोई ठोस योजना है। केंद्र सरकार का एक आंकड़ा बताता है कि देश की आबादी के लगभग 11 फीसदी अर्थात् 12 करोड़ लोगों को नौकरियों की तलाश है। इन बेरोजगारों में 25 फीसदी 20 से 24 आयुवर्ग के हैं, जबकि 25 से 29 वर्ष की उम्र वाले युवकों की तादाद 17 फीसदी है।  20 साल से ज्यादा उम्र के 14.30 करोड़ युवाओं को नौकरी की तलाश है। इसमें भी 12वीं तक पढ़े युवाओं की तादाद लगभग 2.70 करोड़ है, जिन्‍हें रोजगार की तलाश है। तकनीकी शिक्षा हासिल करने वाले 16 फीसदी युवा भी बेरोजागारों की कतार में हैं, यानी की तकनीकि दक्षता प्राप्‍त कर लेना भी रोजगार मिलने की गारंटी नहीं है। 

इन आंकड़ों से साफ है कि देश में युवाओं की तादाद के अनुपात में नौकरियां नहीं हैं। दूसरी ओर देश में यह दृष्‍य आम है कि नौकरियां पैदा करने के लिए केंद्र की मोदी सरकार के साथ ही सभी राज्‍य सरकारें अपने स्‍तर पर कौशल विकास और लघु उद्योगों को बढ़ावा दे रही हैं, लेकिन इसके बावजूद देश से बेरोजगारी की मुक्‍ति का कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ रहा। इस अनियंत्रित हो रही जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए कड़े उपाय, नीति व कानून लागू करने की मांग करते हुए हाल में सुप्रीम कोर्ट में तीन जनहित याचिकाएं भी दाखिल हुई हैं। 

याचिकाओं में कहा गया है कि सरकार को एक ऐसी नीति बनाने का आदेश दिया जाए जिसमें दो बच्चों की नीति अपनाने वालों को प्रोत्साहन और नीति का उल्लंघन करने वालों को उचित दंड देने की व्यवस्था हो।
उच्‍चतम न्‍यायालय में याचिकाएं दाखिल करनेवालों ने जनसंख्या से देश की प्रगति, संसाधन और विकास पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को बताते हुए इसे नियंत्रित करने के लिए प्रभावी नीतिगत उपाय किये जाने की जरूरत बताई है। साथ में यह भी बताया है कि कैसे जनसंख्या वृद्धि का बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, खराब सेहत, अर्थव्यवस्था, पर्यावरण पर असर पड़ रहा है क्योंकि जनसंख्या के अनुपात में संसाधन सीमित हैं। 

यहां कहा गया है कि जनसंख्या वृद्धि पर रोक सिर्फ कड़े नीतिगत उपायों से ही संभव है। याचिकाओं में मांग की गई है कि कोर्ट सरकार को जनसंख्या नियंत्रण के लिए एक ऐसी नीति बनाने का आदेश दे जिसमें दो बच्चों की नीति अपनाने वाले परिवारों को प्रोत्साहन और उसका उल्लंघन करने वालों को उचित दंड की व्यवस्था हो याचिकाकर्ताओं के कुलमिलाकर करने का अर्थ यही है कि जनसंख्या विस्फोट से देश का सारा विकास गड़बड़ा गया है। इसे तुरंत ठीक किया जाए। इसके बावजूद प्रश्‍न यही है कि क्‍या यह जनसंख्‍या विस्‍फोट सरकार के या न्‍यायालय के हस्‍तक्षेप के बाद बने नियमों से रुक सकता है? कहना होगा नहीं । आज देश में जनसंख्‍या वृद्धि‍के जो महत्‍वपूर्ण कारण हैं, उनमें अशिक्षा तो है ही साथ में कुछ धार्मिक कारण भी जिम्‍मेदार हैं। 

इसके अतिरिक्‍त भारत की जनसंख्‍या बढ़ाने में विदेशी घुसपैठियों का भी बहुत बड़ा योगदान है।  देश में आज भी परिवार नियोजन के कार्यक्रमों को इस्लाम विरोधी बताया जाता है। ऐसा कहनेवालों का मत है कि महिलाएं बच्चा पैदा करने के लिए ही होती हैं। मुस्लिम परिवार गर्भ निरोधक का इस्तेमाल बंद करें और ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे पैदा करें।

वस्‍तुत: इससे देश में पिछले दिनों में हुआ यह है कि एक हिन्दू महिला की तुलना में मुस्लिम महिला 1.1 अधिक बच्चों को जन्म देती है। केवल दिल्ली में ही मुसलमानों की जनसंख्या साढ़े दस गुना बढ़ी है।  हरियाणा में यह तीन गुना बढ़ी है। कोलकाता में मुसलमान 18 प्रतिशत की दर से बढ़ रहे हैं। असम के कुछ भागों में मुस्लिम संख्या 31.8 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ रही है।

स्वतंत्रता से पूर्व मुस्लिम जन्म दर 10 प्रतिशत थी जो अब 25 प्रतिशत से अधिक हो गई है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार शहरी क्षेत्र में हिन्दू जनसंख्या 26 प्रतिशत तो मुस्लिम जनसंख्या 36 प्रतिशत की दर से बढ़ी है जबकि उनकी मृत्यु दर हिन्दुओं की तुलना में कम है। एच.एफ.एच.एस. के आंकड़े बतलाते हैं कि हिन्दुओं की मृत्यु दर 9.6 प्रतिशत है तो मुस्लिम की 8.9 प्रतिशत।

बात यहां केवल हिन्‍दू मुस्‍लिम या अन्‍य किसी धर्म की नहीं है। विषय यह है कि जनसंख्‍या पर कैसे नियंत्रण किया जा सके। केंद्र और राज्‍य सरकारें जनसंख्‍या नियंत्रण के लिए कई वर्षों से जनजागरण के प्रयास कर रही हैं। पहले हम दो हमारे तीन से होते हुए, हम दो हमारे दो पर आकर अब बच्‍चा एक ही अच्‍छा के स्‍लोगन पर सरकार का जनसंख्‍या नियंत्रण कैंपेन चल रहा है। सरकार इससे आगे, ‘नहीं चाहिए हम को बच्‍चा’ पर चाहकर भी नहीं जा सकती है।

वस्‍तुत: ऐसे में समाज को ही आगे आकर इस विकराल हो चुकी जनसंख्‍या को काबू में करना होगा। प्रकृति के संसाधन सीमित हैं उन्‍हें असीमित नहीं किया जा सकता जबकि बढ़ती जनसंख्‍या संसाधनों पर भारी बोझ है।
वास्‍तव में बच्‍चे भगवान की देन और अल्‍लाह की नेमत हैं, इस सोच से ऊपर जब भारतीय समुदाय उठेगा तभी भारत में जनसंख्‍या की बड़ती समस्‍या से समाधान की ओर बढ़ा जा सकता है।


शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

राममंदिर ,कट्टरता, और मुस्‍लिम पर्सनल लॉ बोर्ड : डॉ. मयंक चतुर्वेदी

दो वि‍द्वान, दोनों ही इस्‍लाम के उम्‍दा जानकार । दोनों का एक विषय पर स्‍वर भी एक कि उन्‍हें कभी हिन्‍दुओं से कोई दिक्‍कत नहीं हुई। हिन्‍दुओं ने हमेशा इज्‍जत और प्‍यार दिया है। पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्‍यक्ष मौलाना कल्‍बे सादिक और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सुलह का फार्मूला देने वाले मौलाना सैयद सलमान हुसैनी नदवी आज दोनों ही यह बात सार्वजनिक रूप से स्‍वीकार्य कर रहे हैं। कहने को लोग कह सकते हैं कि ये दोनों न्‍यायालय के बाहर से राममंदिर निर्माण का रास्‍ता सुझाने के लिए अब तक लगातार प्रयास करते हुए अपने मुस्‍लिम भाईयों के बीच इस बात की सहमति बनाने के लिए प्रयास करते रहे हैं कि भगवान राम का भव्‍य मंदिर यदि विवादास्‍पद स्‍थान पर बन जाता है तो उसमें हर्ज ही क्‍या है? लेकिन इस्‍लाम के अपने नियम और कानून है, जिसके ऊपर कोई नहीं।

हमने अभी हाल ही में देखा और समझा भी कि किस तरह से एआईएमआईएम प्रमुख और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य असदुद्दीन ओवैसी ने सीधे शब्‍दों में एक टूक बताया कि अयोध्या मुद्दे पर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है। बाबरी मस्जिद के बारे में, यह स्पष्ट रूप से समझ लिया जाए कि एक बार जब मस्जिद बन जाती है तो अनंतकाल तक यह मस्जिद रहती है। विवादित भूमि पर कोई समझौता नहीं होगा। मस्जिद मुद्दे पर समझौता करने वाले लोग अल्ला के सामने जवाबदेह होंगे। अंतत: ओवैसी जो कहते हैं, उनके इस विचार की जीत भी हुई, इस विवाद का सार्थक हल सुझाने के लिए प्रयासरत थे वे मौलाना सैयद सलमान हुसैनी नदवी को आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बाहर का रास्‍ता दिखा दिया। नदवी एक्जिक्यूटिव मेंबर के पद से बर्खास्त कर दिए गए और बोर्ड ने अपनी 26वीं सालाना बैठक में अपना पुराना रुख दोहराते हुए कहा कि बाबरी मस्जिद हमेशा मस्जिद ही रहेगी। मुसलमान उस मस्जिद के बदले कहीं और जमीन नहीं ले सकते हैं। मस्जिद को न तो गिफ्ट किया जा सकता है, न बेचा जा सकता है और न शिफ्ट किया जा सकता है।

ऐसा तो नहीं है कि कोई मस्‍जिद का ढांचा पहली बार ढहा हो। दुनिया के अंदर कई देश ऐसे हैं जहां मस्‍जिदें विकास के लिए समय-समय पर तोड़ी जाती रही हैं, किंतु वहां तो अब तक कोई इस प्रकार का विवाद देखने को नहीं मिला, जैसा कि भारत में एक बाबरी ढांचे को लेकर बनाए रखा गया है। वस्‍तुत: ओवैसी और उनके साथ इस मत पर विश्‍वास करनेवाले आज कितना सच बोल रहे हैं, वह सऊदी अरब जहां इस्‍लाम का जन्‍म हुआ और दुनियाभर के इस्‍लामिक लोग अपनी धार्मिक यात्रा करने यहां एक बार अवश्‍य पहुँचते और जाने की मंशा रखते हैं कि स्‍थ‍िति से पता चलता है।

सऊदी अरब में अब तक विकास के लिए और अपनी योजनाओं को मूर्त रूप देने के लिए कई मस्‍जिदें समय-समय पर ढहाई गई हैं। प्रश्‍न यह है कि क्‍या वह अल्‍ला की जमीन नहीं थी, जब मस्‍जिद को स्‍थान्‍तरित किया ही नहीं जा सकता तो इस्‍लाम के जन्‍म स्‍थान से इन्‍हें क्‍यों अलविदा कहा गया ? मदीना के कई ऐतिहासिक मस्जिदों में जिनमें मस्जिद-ए-सलमान फारसी, मस्जिद-ए-रजत अल समस को ज़मींदोज किया जा चुका है और वह मस्जिद जिसमे मुहम्मद साहेब ने पहली ईद की नमाज पढ़ी वह मस्जिद-ए-ज़मामा भी ध्वस्त होने वाली है। इस संबंध में गल्फ इंस्टिट्यूट का मानना है की गत 25 वर्षों में लगभग 300 से अधिक ऐतिहासिक मस्जिदों को और कब्रों को सऊदी अरब में नेस्तानावुद किया गया है जो पैगम्बर की बीबियों और उनके अन्य परीज़नों की थी। आज वहाँ पांच सितारा और सात सितारा होटल शापिंग माल एवं बाज़ार सहित पार्किग स्थल बन चुके हैं और कुछ पर यह बन रहे हैं।

वस्‍तुत: इसमें जो समझनेवाली बात है, वह यही है कि इस्लाम की धरती पर ही ऐतिहासिक मस्जिदों और पवित्र कब्रों को हटाया गया और निरंतर हटाया जा रहा है, लेकिन अब तक कोई बवाल वहां के आम नागरिकों ने नहीं किया और न ही वहां का मिडिया एवं इस्लामी विद्वान इसके विरोध में खड़े हुए। इसके अलावा न ही कोई इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) जैसा संगठन वहां इसका विरोध करने सामने आया है। जिसके ठीक विपरीत भारत में बोर्ड कह रहा है कि बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण के लिए संघर्ष जारी रहेगा। सुप्रीम कोर्ट में अपील को भी सभी संसाधनों को जुटाकर पूरे जोरशोर से लड़ा जाएगा। यानि की जो अयोध्‍या राम मंदिर-बाबरी ढांचा विवाद है, उच्‍चतम न्‍यायालय की भावनानुसार बोर्ड उसे आपसी सहमति से कभी हल करना ही नहीं चाहता है।

तो क्‍या यह मंदिर-मस्‍जिद विवाद हमेशा भारत में मौजूद रहेगा? यह वह प्रश्‍न है जो आज इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) की हाल ही में हुई बैठक के बाद खड़ा हो गया है। इसका तो अप्रत्‍यक्ष मतलब यह भी है कि जो आवाजें मुसलमानों में से सभी धर्म-पंथ सद्भाव और समन्‍वय की उठेंगी, उसे दबा दिया जाएगा? वस्‍तुत: यहां ध्‍यान देनेवाली बात यह भी है कि ऐसा बार-बार इस्‍लाम के लोगों के बीच क्‍यों होता है कि उनमें जो धारा सभी को साथ लेकर चलने का प्रयास करती है, वह मुख्‍यधारा से तुरंत बाहर कर दी जाती है? जबकि पहले तो खुद ही मुसलमान कहते हैं कि जहां अल्‍लाह की इबादत न की जाए वह स्‍थान मस्‍जिद नहीं रहता, फिर बाबरी मस्‍जिद का इतिहास भी यही बताता है कि वहां ढांचा टूटने से पूर्व ही कई वर्षों तक कोई नमाज नहीं पढ़ी गई थी।

देखाजाए तो इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इस मुद्दे को बनाए रखते हुए भारत में इस्‍लामिक राजनीति को ताकतवर बनाना चाहता है। भारत के आम सीधेसाधे मुसलमान को नहीं समझ आता कि सच क्‍या है? उसे यह बोर्ड के लिए बार-बार बताना चाहते हैं कि कैसे उनकी इबादतगाह को हिन्‍दुओं ने तोड़ा और वे किस तरह से आज भी बाबरी मस्‍जिद को नहीं बनने देना चाहते हैं। ऐसे में कल्‍बे सादिक साहब की यह बात समझने लायक है कि अयोध्‍या में मंदिर जरूर बने बल्‍कि विद्यामंदिर बने। मदरसों की शिक्षा से बेहतर मार्डन एजुकेशन है। मुसलमानों की असल दिक्‍कत मार्डन एजुकेशन की है। मुझे मुसलमानों से ही प्रॉब्‍लम आई है, हिन्‍दुओं से कभी कोई प्रॉब्‍लम नहीं आई। हिन्‍दुओं ने हमेशा मुझे इज्‍जत और प्‍यार दिया। वास्‍तव में कल्‍बे सादिक की इन बातों से भी यह समझ आ जाता है कि कमी कहा है। भारत का मुसलमान इतना कट्टर क्‍यों है और सऊदी का मुसलमान विकास के लिए क्‍यों अपने यहां मस्‍जिदें ढहा रहा है।

उच्‍चशिक्षा का नैतिक पतन

: डॉ. मयंक चतुर्वेदी 
ह एक सत्‍य तथ्‍य है कि सम्पूर्ण विश्व में शिक्षा किसी भी जीव को मानव बनाने की प्रक्रिया है। इसे वर्तमान तथा भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार रहने के लिए व्यवहारिक ज्ञान, आधुनिकतम तकनीकी दक्षता, भाषा, साहित्य, इतिहास सहित हर आवश्यक विषय की जानकारी प्रदान करने वाला सशक्त माध्यम माना जाता है। इतना ही नहीं तो हमारे लिए शिक्षा कोरा अक्षर ज्ञान नहीं बल्कि विद्या का वह रूप है जो सर्वप्रथम सुसंस्कृत बनाती है। जीवन में शिक्षा का क्‍या महत्‍व है, अब तक इस पर न जाने कितना कहा गया और लिखा गया है। प्राचीन ग्रंथ वेद, उपनिषद से लेकर स्‍वामी विवेकानन्‍द, महर्षि दयानन्‍द से लेकर आधुनिक समय तक भारत ही नहीं समुचे विश्‍व में एक ऐसी चिंतन एवं अध्‍ययन की श्रेष्‍ठ परंपरा रही है जो पीढ़ी दर पीढ़ी आनेवाली भावी संतति को ज्ञान का मार्ग दिखा रही है। किंतु दूसरी ओर इनके बीच से होकर डिग्री लेकर आधुनिक शिक्षा में ज्ञान के प्रसार को लेकर जब कुछ लोग आर्थ‍िक लाभ के लिए गलत कार्य करते हें तो न केवल उन लोगों का सिर झुकता है जो इस शिक्षक परंपरा के अनुगामी है बल्‍कि उनका भी सिर नीचा होता है जो ऐसे लोगों को कभी आगे बढ़ने की प्रेरणा देते औरसमय-समय पर उनकी कुशाग्र बौद्ध‍िक कौशल से प्रेरि‍त होकर या उन्‍हें आगे बढ़ाने की मंशा से सहयोग के लिए आगे आते हैं। 

वस्‍तुत: यह बहुत ही दुखद है कि उच्‍चशिक्षा के क्षेत्र में वर्तमान ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन (एआईएसएचई) की वर्ष 2016-17 की रिपोर्ट यह बता रही है कि देश के विश्वविद्यालयों और कालेजों में 80 हजार ऐसे प्रोफेसर नौकरी कर रहे हैं, जो एक या दो स्‍थानों पर नहीं, बल्कि एक साथ ही चार जगह नौकरियां कर रहे हैं और इन सभी स्‍थानों से यह प्राध्‍यापकगण नियमित वेतन भी ले रहे हैं। 
एआईएसएचई रिपोर्ट से हुए इस खुलासे पर अब क्‍या कहा जाए ? जो प्राध्‍यापक अपने विद्यार्थियों को सत्‍य की राह पर चलने की प्रेरणा देता है, यदि वही लालच के लिए असत्‍य का स्‍वजीवन में आग्रही हो, तो फिर उसे कौन ज्ञान देगा? यह अच्‍छा ही है कि कम से कम देश में सभी कार्यों को आधार कार्ड से लिंक करना अनिवार्य किया गया और इस तरह का अपने आप में अनौखा भ्रष्‍टाचार सामने आ सका है। शायद, देश भर के विश्वविद्यालयों और कालेजों में पढ़ा रहे शिक्षकों के सत्यापन का प्रयास आधार के माध्‍यम से नहीं होता तो यह बात कभी सामने नहीं आती । अब जिसे आधार की हर जगह अनिवार्यता के लिए प्रधानमंत्री मोदी को दोष देना है, वह तो देगा ही, किंतु इससे जो इस तरह की बातें सामने उजागर हो रही हैं, वह कम से कम यह बताने के लिए पर्याप्‍त हैं कि भारतीयों के बीच भ्रष्‍टाचार किस हद तक अपनी जड़े गहरी कर चुका है। 

अब भले ही इस खुलासे के बाद मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इसे गंभीरता से ले और ऐसे शिक्षकों की पहचान करके उनके खिलाफ जल्द कड़ी कार्रवाई करने के निर्देश दे। मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर कहें कि जनता का पैसा है, इसे इस तरीके से लूटने नहीं दिया जाएगा। ऐसे लोगों पर कार्रवाई होगी। किंतु साथ में यह प्रश्‍न भी है कि अभी मौजूदा समय में देशभर के विश्वविद्यालयों और कालेजों में करीब 15 लाख शिक्षक कार्यरत हैं। इनमें करीब 12.50 लाख शिक्षक ऐसे हैं, जो अब तक आधार से जुड़ चुके हैं। यानी करीब 85 फीसद प्राध्यापकों का सत्यापन हो चुका है। आगे अभी बाकी शिक्षकों को भी आधार से लिंक करने की तैयारी चल रही है, पर जब सभी शिक्षकों का इस तरह से आधार लिंक हो जाएगा तो संभावना यही है कि जो संख्‍या भ्रष्‍ट शिक्षकों की अभी 80 हजार निकलकर आई है, वह और अधिक हो जाए? कुलमिलाकर देश की उच्‍चशिक्षा खतरे में है, यह भी कहा जा सकता है। 

इस पर भी कुछ बातें अवश्‍य हैं, जिन पर अवश्‍य देश के शिक्षा नीतिज्ञों को विचार करना चाहिए। प्राचीन भारत की शिक्षा व्‍यवस्‍था का अध्‍ययन करने पर यह साफ पता चलता है कि जो गुरू अपने शिष्‍यों को ज्ञान देता था, उसकी वृत्‍त‍ि संग्रहरण की नहीं होती थी। किंतु वर्तमान परिवेश में शिक्षक की सोच में जो उपनिषयों की शिक्षा तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्, अर्थात् त्याग भाव से भोग करे नर , लोभ नहीं मन में लावे का लोप हुआ है, तभी से सर्पूण समाज में गिरावट का दौर निरंतर है । धन किसका? आज यह वह प्रश्‍न है जिस पर शायद हम सभी को खासकर शिक्षकों को अवश्‍य ही गंभीरता से विचार करने की आवश्‍यकता है। 

शिक्षा में जब तक देशप्रेम, संस्कृति और नैतिक मूल्यों का स्थान सुनिश्चित नहीं किया जाता है और जापान एवं जर्मनी की तरह से प्रत्‍येक भारतीय बच्चे में ‘सबसे पहले देश’ के संस्कार प्रबल हों, इसकी व्‍यवस्‍था नहीं खड़ी की जाएगी, हो सकता है कि आगे भी इस तरह के भ्रष्‍टाचार के लिए अन्‍य कोई रास्‍ता खोज लिया जाएगा। इसके साथ यह भी सुझाव है कि स्नातक स्तर तक साहित्य का पठन-पाठन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। एकता को बढ़ावा देने के लिए साहित्य का भारतीय भाषाओं में अनुवाद कर उन्हें प्रकाशित करने का उपक्रम समुचे देश में चले। वस्‍तुत: जब तक देश में संवेदना के स्‍तर पर विद्यार्थ‍ियों को जगाने का प्रयत्‍न नहीं होगा, भौतिकता की दग्‍ध अग्‍नि हर किसी को अपने तापमात्र से जलाने में सक्षम रहेगी, कल का विद्यार्थी आज का शिक्षक और अन्‍य कोई समाज का विशेष वर्ग, नागरिक बनेगा, वह अपने जीवन में वही करेगा, जिसका कि उसे बचपन से अभ्‍यास है, अब यह हमें सोचना होगा कि हम अपना कैसा समाज बनाना चाहते हैं, भ्रष्‍टाचार युक्‍त या भ्रष्‍टाचार मुक्‍त, सदाचरण युक्‍त ?