गौ-के बारे में हम सभी अपने बचपन से कुछ जानते-समझते आए हैं, वहीं कुछ लोगों को ये सौभाग्य भी मिला है कि वे उसके साथ वक्त गुजारते, कुछ ने तो अब भी गौ-सेवा को अपना लक्ष्य बना रखा है। इसलिए गाय माता को लेकर सबकी अपनी-अपनी अनुभूतियां हैं। प्राचीन वैदिक वांग्मय में गोमाता का सन्दर्भ 1331 बार आया है। जिसमें कि ऋग्वेद में 723 बार, यजुर्वेद में 87 बार, सामवेद में 170 बार और अथर्ववेद में 331 बार गौ का किसी न किसी रूप में स्मरण किया गया है। ऋग्वेद में कहा गया है कि जिस स्थान पर गाय सुखपूर्वक निवास करती है वहां की रजत पवित्र हो जाती है । अथर्ववेद में रुद्रों की माता, वसुओं की दुहिता, आदित्यों की स्वसा और अमृत की नाभि-संज्ञा से गौ को विभूषित किया गया है । वेदों में गाय के लिए गो, धेनु और अघ्न्या ये तीन शब्द सबसे अधिक हैं । वेदों को समझने के लिये छः वेदांग शास्त्रों में से एक निरुक्त शास्त्र में वैदिक शब्दों के अर्थों को विस्तार से बताया गया है जिसे निर्वचन कहते हैं, यहां ‘हन हिंसायाम्’ धातु से हनति, हान आदि शब्द बनते हैं जिसका अर्थ हिंसा करना मारना है। गौ के लिए यहां अघ्न्या कहा गया है अर्थात् जिसकी कभी भी हिंसा न की जाये।
इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में (7/5/2/34) में कहा गया है-सहस्रो वा एष शतधार उत्स यदगौ: अर्थात भूमि पर टिकी हुई जितनी जीवन संबंधी कल्पनाएं हैं उनमें सबसे अधिक सुंदर, सत्य, सरस, और उपयोगी यह गौ है। इसमें भी गाय को अघ्न्या बताया गया है। वस्तुत: यह वेदों में गाय का महत्व है। सभी ऋषियों ने एक स्वर में बोला है कि गाय की हत्या नहीं करनी चाहिए। इस धरती पर विचरण करने वाले जीव-जन्तुओं में संभवत: गाय ही एकमात्र ऐसी है जिसे देवतुल्य व पूज्य माना गया है।
वेदों से आगे पुराणों एवं श्रीमद्भगवत गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने कामधेनु की महत्ता बताई है। केवल हिन्दू धर्म में ही नहीं, अन्य मत-पंथों में भी इसकी महत्ता और पवित्रता को स्वीकार किया गया है। गोसेवा को पुण्य कर्म माना गया है। ऐसी पापनाशिनी, समस्त जगत का कल्याण चाहने वाली गाय की धार्मिक, आध्यात्मिक,सांस्कृतिक , आर्थिक एवं औषधीय महत्ता को समेटे हुए और वर्तमान में गाय से जुड़े जनमानस के बीच के अंतर्विरोध को रेखांकित करती हुए पुस्तक 'गौ-उवाच' डॉ. देवेन्द्र दीपक की एक श्रेष्ठ कृति है। कुल 30 कविताओं के माध्यम से पुस्तक में गाय की महत्ता का विस्तार से विवेचन एवं समाज की कमियों को प्रमुखता से उठाया गया है।
डॉ. देवेन्द्र दीपक की पुस्तक गौ-उवाच अपने आप में वर्तमान समाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था के साथ उस समुची प्रणाली के प्रति प्रश्न खड़े करती है जोकि गाय के प्रति दिखावे की संवेदना तो दिखाती हैं, किंतु व्यवस्था सुधार के लिए अपने ईमानदार प्रयत्न करते दिखाई नहीं देती है।
प्रश्न यह है कि वर्तमान में गौ भारतीयों के लिए क्या रही है ? पशु, दूध देनेवाला यंत्र या इससे बहुत व्यापक भिन्न......गौ- वैदिक काल में देव... उत्तर वैदिक काल में माता... मध्यकाल में पशु.... और आधुनिक काल में ?स्वयं एक भोजन...मांस का लूथड़ा, जिसकी चर्बी, सींग और नाखूनों की कीमत उसकी देह से अधिक है। वस्तुत: यह पुस्तक हम सभी के बीच आज सोचने के लिए एक समान भावधारा पैदा करती है और विमर्श के लिए जमीन। इस पुस्तक की पहली कविता ही बहुत कुछ स्पष्ट कर देती है :
पक्षपात तुम करते हो, मैं नहीं करती...छुआ-छूत तुम मानते हो...मैं नहीं मानती...मुझे बीच में खड़ा कर ..तुम लड़ते हो...लड़ने-लड़ाने की शैली...तुम्हारी है, मेरी नहीं। पुस्तक राजनीतिक स्तर पर कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी से यह सवाल भी करती है कि क्या सोचकर तुमने..दो बैलों की जोड़ी को अपना चुनाव चिह्न बनाया ?..और क्या हुआ तुमने उसे छोड़ दिया ? पुस्तक देश के गद्दीदारों से पूछती है कि आखिर मेरे अपनत्व में कमी क्या रह गई? जो वफा की उम्मीद अब तक अधूरी है। गौ-उवाच में वफा कविता में डॉ. देवेन्द्र ने बड़ी ही साफगोई से यह पूछा है, वह जो विदेशी था चला गया..ये जो देशज हैं.. यही तो अदल-बदल कर तख्त पर बैठे रहे...आरे के दांतों के नीचे.. हमारी गर्दन ज्यों की त्यों....हमारी चीख सुने कौन ?... प्राणों की भीख सुने कौन ?... दिल्ली की पंचायत अंधी, बहरी... एक तरफा... हम गायों से कौन करे वफा ?.....
यहां गाय देश के कर्णधारों से सीधे पूछ रही है कि वे मुझे हिंसक नजरों से घूरते हैं, मेरे प्रति घोर अवमानना है भीतर उनके.... वे ताल ठोककर कहते हैं....हम कुछ भी खाएं...यह हमारी मर्जी....कोई कौन होता है हमें टोकने वाला ? करुण कातर मैं टुकुर टुकुर देखती हूं, मेरे भारत का यह कैसा संविधान ? इनके सब हैं अधिकार, मेरे हित में क्या है समाधान ? गौ-उवाच में पंडित और ख्वाजा के सांकेतिक प्रतिरूपों के माध्यम से खासतौर पर इस पुस्तक में डॉ. देवेन्द्र दीपक अवश्य यह पूछते दिखे कि अपने बुढ़ापे के लिए तुम्हें चाहिए अच्छी खासी पेंशन...हमारे लिए बूचड़खाने का दरवाजा... क्यों भाई पंडित, क्यों भाई ख्वाजा ?...वास्तव में गाय का आज सबसे बड़ा दर्द यही है कि उसके बूढ़े होने के बाद सबसे ज्यादा उसे चारा और पानी देनेवाले ही दर दर भटकने के लिए छोड़ देते हैं।
यह पुस्तक बड़ी ही बेवाकी से यह भी पूछने का साहस करती है कि वह जो खाता है मेरा मांस , बड़ा सहिष्णु है,वह जो पीता है मेरा दूध वड़ा असहिष्णु है। मेरे भारत को ये क्या हो गया है, न्याय और औचित्य कहां खो गया है ?..... इतना ही नहीं तो आज समाज और सरकार दोनों स्तरों पर इन दिनों समाजिक समरसता की बातें बहुत हो रही हैं, ऐसे में यहां गौ देश के आम जन से पूछती हैं कि बीफ को जलसे जलूस में धमक के साथ खाना मेरे प्रेमी भक्तों को खुले आम चिढ़ाना...समाजिक समरसता के विरुद्ध यह एक नियोजित अभियान है।
डॉ. दीपक बड़ी चतुरायी से अपनी इस पुस्तक में गंगा-जमुनी तहजीब पर भी सवाल खड़े करते हैं, इस संयुक्त संस्कृति पर गाय यहां आम जन से जनना चाह रही है कि राजनीति, कला, संस्कृति और शिक्षा, सब मंचों पर दशकों से गंगा जमुनी तहजीब तकिया कलाम की तरह चलन में है...अगर सच ऐसा है तो अच्छी बात है। एक बात हमें कहनी है...सदा के लिए यह बात तय हो जानी चाहिए.. हमें बतादी जानी चाहिए- गंगा जमुनी तहजीब में हम गायों को क्या जगह है ?.... और जो जगह है, उसकी क्या वजह है ?....
वास्तव में यह एक ऐसा प्रश्न है जहां हमारा संविधान भी मौन है..इसी बात को डॉ. दीपक अपनी हित नामक कविता में भावनात्मक स्हायी से शब्दों को उकेरते हैं और पूछते हैं कि मेरा मांस खानेवालों के सर्वाधिकार सुरक्षित! मेरा दूध चाहनेवालों के हित, कौन करे संरक्षित...संविधान में दिए अधिकार सब कुछ, संविधान में दिए कर्तव्य कुछ भी नहीं।..... वस्तुत: पुस्तक गौ-उवाच की हर कविता सीधे ह्दय को छूती है, भावनाओं में सागर सा वेग पैदा करती है और हर बार हर कविता कहती है कि अपनी मर्यादाओं को लांघ जाओ, गाय जैसी अमृता को जीवन दान देने के लिए अपना सर्वस्व होम कर जाओ।....
अंत में इस पुस्तक की कविता वर्तमान शासन तंत्र के प्रति अपनी कृतज्ञता तो ज्ञापित करती ही है साथ में स्वयं में भय से लिपटी प्रसन्नता का बोध कराती है, कवि कहता है कि भारत में सदियों के बाद, कुछ अनुकूलता आई गौ वंश के लिए।... एक सुखद अध्याय हमारी मुक्ति के खण्डित इतिहास में फिर जुड़ा.... प्रमाण उस कोटि जन को जो हमारी रक्षा के लिए हवन हो गया खुशी खुशी।.. हमें न्याय मिला हम प्रसन्न हैं लेकिन हमारी यह प्रसन्नता लिपटी है भय के काले रुमाल में.... कहीं ये चार दिन की चांदनी तो नहीं?... हमारा इतिहास साक्षी है हमारे वध पर प्रतिबंध लगते रहे… प्रतिबंध निरस्त होते रहे….. क्या पता इतिहास अपने को फिर दोहराए,,,
यहां इस पुस्तक की सबसे अच्छी बात यह है कि बेरोजगारी के कोहराम के बीच गौ इस पुस्तक में आह्वान कर रही है कि मैं गाय हूं… एक माय हूं… अवैध बूचड़खाने वालों बच्चों के पेट का सवाल है,,,, मैं कहती हूं,….. मेरे पास आओ… दूध डेयरी के धंधे में लग जाओ,….आज तुम दिनभर देखते हो खून ही खून….. फिर तुम दिन भर देखोगे दूध ही दूध....
पुस्तक में भाषा शैली, शब्द विन्यास का बहुत ध्यान रखा गया है, सामान्य रोजमर्रा के बोलते शब्दों में डॉ. देवेन्द्र दीपक के माध्यम से गौ यहां अपनी भावनाओं को व्यक्त कर रही है। यह पुस्तक न केवल पढ़ने के बाद उसकी शब्द ऊर्जा को अपने अंदर में समेटने के लिए विवश करती हैं, बल्कि यथार्थ जीवन में गौ सेवा के लिए प्रवृत्त भी करती है। सही पूछिए तो यही इस पुस्तक की सफलता है और डॉ. देवन्द्र दीपक की कलम की धन्यता भी.....
लेखक हिन्दुस्थान समाचार बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख एवं फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के सदस्य हैं।
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