सोमवार, 9 जून 2014

नवजागरण काल में लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रतिष्ठा और हिन्दी पत्रकारिता


                                        डा. मयंक चतुर्वेदी

व जागरण से तात्पर्य है भारत में आधुनिकता का प्रवेश, वैज्ञानिक दृषिटकोण का विकसित होना और किसी भी घटना के परिप्रेक्ष्य में तार्किक मीमांसा के लिए तैयार हो जाना अर्थात तर्क-विर्तक की खुली परम्परा का प्रारंभ। भारतीय सन्दर्भ में इस नवजागरण काल का श्रेय हम अंग्रेजों को दे सकते है, क्योंकि प्राचीन भारत विदेशी आक्रांताओं और अपनी प्रजा की आपसी कलह-टुकडों तथा जातीय अहंकार के बीच यह निश्चित ही नहीं कर पा रहा था कि उसका अपना कोर्इ स्वतंत्र असितत्व है। 


अंग्रेजों का भारत में निरंकुश शासन आने तथा उनकी फूट-डालों शासन करो” कि नीति के कारण ही इस देश की जनता राजा-रजबाडे एक जुट होना शुरू हुए, उनमें भारतीयता एक राष्ट्र होने का एहसास जागा। इस नवजागरण के फलस्वरूप भारतीय जनता स्वाधीन होने के लिए उठ खडी हुर्इ, जिसका सुखद परिणाम 15 अगस्त, 1947 को पूर्ण स्वराज्य प्रापित के रूप में भारतवासियों को मिला।

नवजागरण का पहला अनुभव बंगाल ने किया, बंगाल से होती हुर्इ आधुनिकता की धारा सारे देश में पहुँची। राजा राममोहन राय समुचे देश के लिए मनस्वी बनकर उभरे, अपने विराट व्यकितत्व से उन्होंने भारतीय नवजागरण को एक दिशा दी और आधुनिक भारत निर्माण के सन्दर्भ में लोकतांत्रिकमूल्यों की प्रतिष्ठा सबसे पहले की। उनके बारे में मोनियर विलियम्स ने कहा कि सम्भवत: वे पहले-पहले दृढ मनोवृत्ति के अन्वेषी थे” वास्तव में राजा राममोहन राय एक ऐसी परम्परा की नींव रख रहे थे, जिसने प्रकारान्तर में आधुनिक भारत के निर्माण की नींव रखने करने के साथ सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप की मानव जाति का उपक्रत किया। 

इस परम्परा को आगे बढाने का कार्य किया ईश्वरदास विधासागर, केशव सेन, दयानन्द सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा श्री अरविन्द आदि ने। इन्होंने वर्तमान लोकतांत्रिकमूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए अपने समय के काल में उन सभी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक विसंगतियों पर प्रहार किये जो मानव समानता-बंधुत्व और आपसी प्रेम की शत्रु हैं। इन सभी भारतीय जन को सांप्रदायिक और जातीय चेतना से उभारकर राष्ट्रीय, आध्यातिमक व मानवीय भावों में रूपायित किया। जिसके परिणाम स्वरूप कश्मीर से कन्या कुमारी तक सारा भारत एक सूत्र में बंध सका।


आज इसके एतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं कि अंग्रेजों द्वारा भारत को उपनिवेश बनाये जाने के बाद उनका उददेश्य भारतीयों का हित नहीं बलिक इस भू-खण्ड से अधिक से अधिक लाभ कमाना रहा। उनके मन में भारतीयों के प्रति कोर्इ आत्मीयता का भाव नहीं था। अंग्रेज भारत को लूट रहे थे, जिसके परिणाम स्वरूप यह देश दिनो-दिन गरीब होता चला गया और अंग्रेज समृद्ध। इस लूट के कारण भारत में नये ढंग से आर्थिक शोषण प्रारम्भ हुआ। अंग्रेजी माल की बिक्री के लिए भारतीय बाजार बंद कर अनेक कठोर नियम लागू कर दिए गये। ऐसी विषम परिसिथति में सर्वप्रथम राजा राममोहन राय ने हिन्दी पत्रकारिताको अभिव्यकित का सशक्त माध्यम माना, उन्होंने इसका उपयोग कर लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा की।


आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रतिष्ठा से हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को इस कथन से समझा जा सकता है कि पत्रकार राष्ट्र के शिक्षक होते हैं। चार विरोधी पत्र चार हजार संगीनों से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं। राजा राममोहन राय की पत्रकारिताऔर उनके समाचार पत्र-पत्रिकाओं विशेषकर संवाद कौमूदी, बंगदूत, ब्रम्होनिकल मैगजीन, मिरातउल अखबार ने समकालीन समय की विसंगतियों को निर्भीकता से उठाया। जिसके कारण क्रोधित अंग्रेजों ने इन सभी पत्र-पत्रिकाओं को अपनी दमन नीति का शिकार बनाया। किन्तु इसके बावजूद लोकतांत्रिकमूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए न केवल बंगाल बलिक विभिन्न प्रदेशों से 1857 के पूर्व अनेक पत्र प्रकाशित हुए। इन सभी पत्रिकाओं में भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और आधुनिक लोकतंत्रात्मक मूल्यों के अनेक ऐतिहासिक तथ्य मौजूद हैं।


लोकतंत्रात्मक मूल्यों के संरक्षण उनकी स्थापना तथा प्रखरता के लिए उत्तरप्रदेश से गोविन्द नारायण थत्ते के सम्पादन में 1845 में बनारस अखबार” निकला। 1846 में इन्दौर, मध्यप्रदेश से मालवा अखबार” श्री प्रेमनारायण द्वारा शुरू हुआ। कलकत्ता बंगाल से 1826 में निकाले गये उदन्त-मार्तण्ड” को अंग्रेजों द्वारा दमन का शिकार होने के बाद 185ñ के जुगल किशोर शुक्ल ने सामन्त मार्तण्ड” प्रारंभ किया। 185ñ में बनारस से महत्वपूर्ण समाचार पत्रसुधाकर” निकला। मुंशी सदासुख ने आगरा से 1852 में बुदिा प्रकाश” प्रारम्भ किया। इसी दौरान ग्वालियर से ग्वालियर गजट”, आगरा से प्रजा हितैषी” आदि पत्र निकलना शुरू हुए। हिन्दी का नित्य निकलने वाला सुधावर्षण” समाचार पत्र1854 कलकत्ता से श्याम सुन्दर सेन के नेतृत्व में निकाला गया। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के वर्ष में ही तत्कालीन नेता अजीमुला खाँ ने पयामे आजादी” नामक पत्रप्रकाशित किया। इस पत्रने दिल्ली की जनता में स्वतन्त्रताकी आग फूंक दी। वास्तव में लोकतंत्र की सही परिभाषा और अभिव्यकित का माध्यम था पयामे आजादी”। यह सभी तात्कालीन समय में निकले हिन्दी पत्र हैं जिन्होंने नवजागरण काल में हिन्दी पत्रकारिताके माध्यम से लोकतांत्रिकमूल्यों की सशक्त प्रतिष्ठा की है।

इसी समय 1867 में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का पत्रकारके रूप में उभरता एक ऐतिहासिक घटना है, उन्होंने निडर भाव से राजनैतिक लेख लिखकर, जनता-जर्नादन को झकझोरा। इनकी मित्र मण्डली ने परतंत्रभारत में अपनी हिन्दी पत्रकारिताके माध्यम से लोकतंत्रात्मक मूल्यों की प्रतिष्ठा की।


वस्तुत: नवजागरण काल में अनेक अंग्रेजी दवाबों के बीच जिस तरह हिन्दी पत्रकारिताने जनमूल्यों की स्थापना के लिए कार्य किया और आने वाली पीढ़ी के हित में जमीन तैयार की वास्तव में आज आधुनिक युग के चरम विकास के फलस्वरूप उन्हें कोर्इ नकार नहीं सकता है। हमारा वर्तमान इन्हीं मनीषियों, त्यागी-तपसिवयों और समर्पित हिन्दी पत्रकारिताउदीयमान के संघर्ष का ही सुखद परिणाम है। जिस पर हम जैसे हिन्दी साहित्य के विधार्थियों को अत्याधिक गौरव है।

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