भारतीय जनता ने देश में भले ही स्थायी सरकार दे दी हो, लेकिन सरकार के बनने के बीत रहे छह माह के बाद भी कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे ऐसे हैं जिन पर भारत को ठोस समाधान की दरकार बनी हुई है। भारत अपनी नीतियों के कारण अभी भी व्यापार विस्तार को लेकर कई देशों के सामने पिछड़ा हुआ है। हम यदि समुची दुनिया की बात न करते हुए सिर्फ एशिया महाद्वीप की ही बात करें तो विशाल भू-भाग और अपार संभावना होने के बाद भी भारत व्यापार में चीन और रूस, जैसे बड़े देशों को छोड़ कर जापान, सिंगापुर, इज़रायल जैसे छोटे-छोटे देशों की तुलना में खराब प्रदर्शन कर रहा है।
एशिया के मान्य 48 देशों की सूची में भारत और चीन आज क्षेत्रफल तथा जनसंख्या विस्तार में दुनिया के सबसे बड़े देश हैं। स्वाभाविक है विकास की संभावनाएं भी यहां अपार हैं। हमारे पड़ोसी देश जिसे आज दुनिया विश्व की सबसे तेजी से उभरती अर्थ व्यवस्था मान रही है वह चीन भले ही भौगोलिक विस्तार में भारत से ज्यादा होगा, लेकिन वह विविधता के मामलों में हमसे कई गुना पीछे है। इसके बाद भी चीन सामरिक और व्यापार की एशियायी नीति तय करता हुए दिखाई देता है। वैश्विक नजरिए से देखें तो चीन ने अपने समर्थित संगठन एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक) के जरिए विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को आने वाले दिनों में निष्प्रभावी बनाने तथा अमेरिका को समर्थन देने वाले आर्थिक संगठन ट्रांस पैसिफिक नेटवर्क (टीपीपी) को चुनौती देने की तैयारियां शुरू कर दी हैं।
वस्तुत: चीन ने इस समय एशिया में रूस को पछाड़ दिया है और वह अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी महाशक्ति बनने की और अग्रसर हो उठा है। लेकिन इन सब के बीच भारत कहीं नज़र नहीं आता। भले ही भारत में मोदी सरकार आ जाने के बाद कुछ परिवर्तन दिखाई देना शुरू हो गये हों। हमारे दूसरे देशों से लगातार के उनके विदेशी प्रवासों से कूटनीतिक और व्यापारिक स्तर पर संबंध मधुर हो रहे हैं, किंतु यह भी उतना ही सच है कि हम संबंध सुधारने के साथ विभन्न देशों में जाकर उनके उत्साह वर्धन करने में लग जाते हैं और चीन धीरे से अपने काम की बात करते हुए आर्थिक मोर्चे पर आगे बढ़ जाता है। जब तक हमें पता चलता है कि चीन कूटनीतिक चाल चल गया तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
अर्थ बिना सब व्यर्थ है, यह दुनिया मानती हो या नहीं लेकिन विश्व का भारत ही एक ऐसा देश है, जहां धन की पूजा घर-घर लक्ष्मी के रूप में होती है। साथ में श्री सूक्त और लक्ष्मी सूक्त के पाठ होते हैं, किंतु व्यवहार में धन कमाने की कला अभी भी लगता है हमें चीन जैसे अर्थ और दिशा केंद्रित देशों से सीखने की जरूरत है। क्यों कि सिर्फ भारत से ही चीन अपना सामान बेचकर खरबों रूपए सालाना कमा रहा है। दोनों देशों के बीच 2013 में कुल व्यापार 65.88 अरब डॉलर का था। इस दौरान भारत ने चीन को 14.50 अरब डॉलर मूल्य का निर्यात किया, वहीं 51.37 अरब डॉलर का आयात किया।यही कारण रहा कि चीन के कारण हमारा व्यापार घाटा पिछले वित्त वर्ष में 2 हजार 22 अरब के करीब रहा है।अभी कुछ माह पहले तक भारत और चीन के बीच व्यापार अंतर 35 अरब डालर का है जो चीन के पक्ष में है। पिछले साल दोनों देशों के बीच कुल द्विपक्षीय व्यापार 66.4 अरब डालर रहा है।
वास्तव में देखा जाए तो एशिया में अकेले भारत का चीन के साथ करीब 925 अरब रुपए का निर्यात होता है जबकि आयात 3 हजार 14 अरब रुपए का है। यह आंकड़ा अपने आपने नज़ीर है कि भारत को चीन से कितना आर्थिक लाभ है और उसे हमसे कितना है। भारत एक हजार अरब का आंकड़ा भी पार नहीं कर पा रहा है और चीन निरंतर तीन के अंक को पार करते हुए चार हजार अरब रुपए के कारोबार की तरफ बढ़ रहा है। इस कारण भारत का लगातार व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है। चीन से प्रतिदिन अरबों रुपए के प्रॉडक्ट मोबाइल फोन, लैपटॉप, सीडी, सीडी कवर, सेरामिक्स, ऑटो सीट कवर का आयात होता है। पिछले दो सालों में हर साल 78,000 करोड़ रुपए की कंज्यूमर सामग्री का आयात भारत में हुआ। इसमें 31,000 करोड़ रुपए की लागत के सिर्फ मोबाइल फोन ही आयात किए गए हैं। हालांकि जब चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग भारत आए थे उस समय द्विपक्षीय वार्ता के अंतर्गत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दानों देशों के बीच के व्यापार असंतुलन का मुद्दा उठाया था जिस पर भारत के बीच विशाल व्यापार असंतुलन को दूर करने के लिए चीन की ओर से भारतीय वस्तुओं तथा निवेश के लिए चीन का बजार उपलब्ध कराने का भरोसा दिलाया गया। लेकिन यहां भी चीन अपनी योजना को सफल बनाने में आर्थिक मोर्चे पर कामयाब रहा। भारत में दो चीनी औद्योगिक पार्क तथा पांच साल में 20 अरब डॉलर के निवेश का वादा चीन ने भारत से किया। जिस पर अभी सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि चीन जहां पांच साल में 20 अरब डॉलर निवेश करेगा वहां हम भारतीय चीन का सामान खरीद करमुनाफे के तौर पर 200 अरब डालर उसकी झोली में डाल चुके होंगे।
वस्तुत: भारत की ओर से अभी जो आर्थिक मोर्चे पर कमजोरी की सबसे बड़ी वजह सामने आती दिखाई दे रही है, वह है भारतीय उद्योगपतियों को सरकार से उस सीमा तक जाकर मदद नहीं मिलना, जितना कि चीन प्रशासन अपने व्यापारियों के हित में दूसरे देशों के साथ मिलकर समझौतों के स्तर पर करता रहा है। ड्रैगन अपनी फर्मों की खातिर हमेशा पूरी शक्ति झोंकते हुए उनके पीछे खड़ा होता आया है। जबकि भारत के उद्यमियों के इंडिया इंक जैसे संगठन विदेश में ड्रैगन के दबदबे को तोड़ने के लिए अपनी सरकार से कई बार गुहार लगा चुके हैं।
चीन के प्रभाव के बारे में उद्योगपति सुनील मित्तल ने अपने अनुभव को साझा करते हुए एक बार बताया था कि वह विदेश में जहां भी गए उन्हें चीन के प्रभाव का सामना करना पड़ा। निवेश संभावनाओं की तलाश करते हुए श्रीलंका में जब उनकी कंपनी पहुंची तो वहां सरकार एक परियोजना के लिए दस करोड़ डॉलर के सहयोग की अपेक्षा कर रही थी। उन्होंने यह बात विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय में पहुंचाई, लेकिन कुछ नहीं हुआ। उसी के कुछ महीने बाद चीन एक अरब डॉलर का चेक लेकर श्रीलंका पहुंच गया, जिसके कारण चीनी कंपनियों को वहां उद्योग स्थापित करने में श्रीलंका सरकार से मदद मिली। चीन सरकार की अपने उद्योगपतियों को दिए जा रहे सहयोग के अलावा गूगल, फेसबुक, एप्पल जैसी अमेरिकी कंपनियों को अपनी सरकारों से जोरदार समर्थन मिलता है। किंतु भारत सरकार से इस प्रकार का कोई सहयोग अपने उद्योगपतियों को नहीं मिलता। विदेश में विस्तार के लिए भारतीय कंपनियों को नई सरकार से सक्रिय मदद की जरूरत है। चीन की चुनौती से निपटने के लिए उन्हें पूर्व में अपेक्षित सहयोग नहीं मिला पर अब यदि मिल जाए तब कहना होगा कि भारतीय उद्यमी भी अपनी आर्थिक उड़ान से चीन को पीछे छोड़ सकते हैं।
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भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग फोटो- साभार |
वस्तुत: यह जो चीन की आर्थिक क्षेत्र में कार्य करने की शैली है, उसे देखकर कहीं न कहीं लगता है कि वर्तमान भारत को उससे बहुत कुछ सबक लेकर सीखने की जरूरत है। केवल विकास की चर्चाओं से अब काम नहीं चलने वाला, हमें धरातल पर भी चीन की तरह व्यवहारिक निर्णय और अन्य देशों के साथ अनुबंध करने होंगे, नहीं तो भारत की ओर से लाख कोशिशे कर ली जायें हम कभी व्यापार के मोर्चे पर चीन की चुनौती को नहीं तोड़ पाएंगे।